जल से रोगों का उपचार

असत्य सा लगेगा अगर इस आधुनिक युग में दवाइयों की भरमार में इतना कहा जाये कि “जल से हर बीमारी को चल किया जा सकता है” कैसे?

antibiotic, homeopathy, allopathy से भी पुराना विज्ञान है “आयुर्वेद”

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छत्रामृतं विषं वज्रं चत्वारो वारिणो गुणाः।
भुक्तान्तरे च प्रत्यूषे अमुक्त भोजनैः सह।
अग्रसंहारकाले च भुक्तादौ परतो निशि।
आयुराहारकाले तु भुक्त्वा नोपरितो निशि॥

छत्र, अमृत, विष व वज्र ये चार जल के गुण या प्रभाव होते हैं। भोजन के उपरान्त प्यास लगने पर जल छत्र की तरह रक्षक का काम करता है। प्रातः ( उष:काल) में जल अमृत का काम करता है। अभुक्त अर्थात् भूख लगने पर अन्न न खाकर पानी से ही पेट भर लिया जाए तो यह जल भूख को खत्म करने के लिए विष का काम करता है तथा भोजन के साथ जल वज्र का काम करता है- अर्थात् वज्र के समान दृढ़ता कारक होता है।

निहंति श्यामलासंघातं मारुतं चापदर्शनति।

अजीर्ण जरायत्याषु पीतमुष्णोदकं निशि ॥

रात को उष्ण जल पीने से वह कफ समूह को नष्ट कर देता है, वात का निवारण करता है तथा अजीर्ण को पचा देता है।
तत् पादहीनं वातघ्नमार्थहीनं पित्त चजित्।
कफे पादवशेषं तु पानीयं लघु दीपनम् ॥

उबालने पर यदि जल का चतुर्थांश कम हो जाए तो ऐसा जल वातनाशक होता है। यदि आधा बचे तो पित्तनाशक तथा उबालने पर यदि चतुर्थांश ही जल बचे तो वह बड़े कफ को दूर करने में बहुत उपयोगी होता है। यह जल लघु तथा लेखन (शरीर की चर्बी कम करने वाला) होता है।

दिवा श्रुतं च यत्तोयं रात्रिरौ तद् गुरुतां भजेत्।
रात्रिरौ श्रुतं तु दयाये गुरुत्वमधिगच्छति ॥

दिन में उबालकर रखा हुआ पानी रात तक गुरुता (भारीपन ) को प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार रात को उबालकर रखा हुआ पानी भी प्रात:काल तक गुरुता (भारीपन) को धारण कर लेता है। अतः इस जल का सेवन नहीं करना चाहिए।
पार्श्वशूले प्रतिश्याये वातरोगे गलग्रहे।

अध्माने स्तिमिति कोष्ठे सद्यः शुद्धौ नवज्वेरे।

हिक्कायं स्नेहपीते च शीतंबु परिवर्जयेत् ॥

पार्श्वशूल ( बगल का दर्द), प्रतिश्याय (जुकाम), वातरोग, गलग्रह (गला बैठने पर), आध्मान (गैस से पेट फूलने पर), कोष्ठबद्धता होने पर, वमन, विरेचन आदि द्वारा शरीर शुद्धि करने पर, नवीन ज्वर, हिचकी
होने पर, स्नेह (घृत आदि) का पान करने पर शीतल जल का त्याग कर देना चाहिए। अर्थात् उक्त स्थितियों में शीतल जल का सेवन हानिकर होने से निषिद्ध है।

गुल्मशग्रांगीक्षये च जठरे मनदानलाध्यानके
सोफ़े पाण्डुगलग्रहे वृंगदे मोहे च पित्तामये। वाताराच्यतिसारके कफ्युते कुष्ठे प्रतिश्यायके दोषं वारि सुशीतलं श्रुतहिं स्वत्यं प्रदेयं जलम् ॥

गुल्म, अर्श, ग्रहणीरोग, क्षयरोग, उदररोग, मन्दाग्नि, आध्मान, शोफ (सूजन), पाण्डुरोग (पीलिया), गलग्रह (गला बैठना, व्रणगद (घाव), मोह (बेहोशी), नेत्ररोग, वातरोग, अरुचि, अतिसार, कफवृद्धि, कुष्ठ, प्रतिश्याय (जुकाम) आदि में गर्म करके ठण्डा किया हुआ जल अल्प मात्रा में देना चाहिए।
तप्तयःपिण्डसंयुक्तं लोष्ठनिर्वापितं जलम्।
सर्वदोषहरं पथ्यं सदा नैरुज्यकारकम् ॥

जिस जल में तपा हुआ लोहपिण्ड बुझाया गया हो अथवा गर्म पत्थर बुझाया गया हो, वह जल सर्वदोषहर, पथ्य व सदा आरोग्यकारक होता है।

निरमो भोजनादक पिवेद्वारि सुशीतलम्।
अजीर्णे तु पिबेद्वारि शीतलं स्वेच्छया पुनः आरंभ।।

आमदोष (आंव) से मुक्त व्यक्ति भोजन के अनन्तर सुशीतल जल पीवे। अजीर्ण होने पर तो उपवास के साथ जीभर शीतल जल पीते रहना चाहिए। इससे
अजीर्ण का निवारण हो जाता है।

मूर्छापत्तोष्णदहेषु विषे रक्ते मदात्यये।
ब्रह्माक्लमपरितेषु तमके वारि शीतलम् ॥

मूर्छा (बेहोशी), पित्तवृद्धि, उष्णता, दाह (जलन), विष का प्रभाव होने पर, रक्तपित्त रोग तथा मदात्यय (नशा) हो जाने पर, चक्कर आने पर, थकान होने पर, तमक रोग में शीतल जल पीना चाहिए। ऐसा करने से तुरन्त राहत मिलती है।

पिबेद् घटसहस्राणी यवन्नास्तमितो रविः।
अस्तङ्गते दिवानाथे प्वाइंटरेको घटेयते ॥

जब तक सूर्यास्त न हो तब तक भले ही घड़ों जल पिएं, कोई समस्या नहीं होती, परन्तु सूर्यास्त होने पर तो एक बिन्दु (बूंद ) भी घड़े जैसी भारी हो जाती है। भाव यह है कि रात में यथा सम्भव जल नहीं पीना चाहिए। फिर भी बहुत आवश्यकता हो तो पी लें, क्योंकि जल का पूर्ण निषेध तो कहीं नहीं है, ऐसा पहले ही कह चुके हैं।
अजीर्णे चौषधं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम्।

भोजने चामृतं वारि रात्रौ वारि विशोपमम

अजीर्ण (अपच) की स्थिति में भोजन न करके थोड़ा-थोड़ा जल पीते रहना चाहिए। इस प्रकार पिया गया जल अजीर्ण की औषध बन जाता है अर्थात् ऐसा करने से अजीर्ण दूर हो जाता है। भोजन के जीर्ण हो जाने पर (पच जाने पर) जल पीना बलप्रद होता है। भोजन के मध्य में जल पीना अमृततुल्य है; क्योंकि भोजन के मध्य में आवश्यकतानुसार थोड़ा जल पीने या पेय लेने से भोजन का पाचन अच्छी तरह से होता है। रात को जल पीना विषतुल्य होता है, अर्थात् हानिकारक होता है। अतः रात को जल पीने से यथासम्भव बचना चाहिए।

अत्यम्बुपानानां विपच्यते उन्हें
निरम्बुपानच स एव दोषः।
तस्मान्नरो वह्निदिवर्धनार्थं
मुहुर्मुहुर्वारी पिवेदभूरि ॥

बहुत अधिक पानी पीने से भोजन नहीं पचता है तथा सर्वथा पानी न पीने से भी होता है ये दोष मूलतः मनुष्य के लिए जठराग्नि बढ़ती है तो बार बार थोड़ा थोड़ा पानी पीना चाहिए।
अमृतं विकीमिति सलिलं चेदं निगदन्ति विदितत्त्वार्थः।

युक्त्या सेवितममृतं विक्रोमेतदयुक्तितः पीतम् ॥

तत्त्वज्ञानी जन कहते हैं कि- जल ही अमृत है तथा वही विष भी बन जाता है। यदि उसका युक्ति (उचित विधि) से सेवन किया जाए तो अमृत है, अन्यथा विष बन जाता है।

तस्मादादावतिस्वल्यं मध्ये च तृप्तिदायकम्।
मत्रया च पिबेदन्ते न रोगैर्बध्यते नरः

इसलिए भोजन के प्रारम्भ में अतिस्वल्प अर्थात् आचमन के रूप में जल पीना चाहिए। भोजन के मध्य में तो तृप्तिपूर्वक जल पिया जा सकता है । परन्तु अन्त में थोड़ी मात्रा में जल पीना चाहिए। इस प्रकार करने से व्यक्ति रोगों से पीड़ित नहीं होता है।
आयुर्वेद महोदधि वैद्य सुषेण।

साभार- शिवानंद मिश्रा

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