देविंदर शर्मा : कृषि ऋण की बंदरबांट

तब  वर्ष 2014 के पहले कृषक, कृषि की कृशकाय अव्यवस्था को उजागर करता वर्ष 2013 में प्रकाशित लेख।

जबकि

2014 के बाद से कृषकों और कृषि की व्यवस्था में कई बड़े सुधार आएं हैं।


कृषि ऋण की बंदरबांट

पिछले दिनों एक टीवी चैनल पर तत्कालीन रेलवे मंत्री पवन कुमार बंसल को उनके बेटे की फर्म से 15 लाख रुपये का ऋण मिलने पर चर्चा चल रही थी। एक टीवी एंकर ने पूछा, ‘किसी को महज तीन प्रतिशत की दर पर ऋण कैसे मिल सकता है?’ शायद वह एंकर नहीं जानता था कि वित्ता मंत्री पी. चिदंबरम ने मालामाल और संसाधनों से लैस कृषिव्यापार कंपनियों को गत वित्ताीय वर्ष में केवल चार प्रतिशत की दर से 6.5 लाख करोड़ रुपये का कृषि ऋण दिलाया है। 2013 का बजट पेश करते हुए पी. चिदंबरम ने घोषणा की थी कि इस साल कृषि ऋण के लिए सात लाख करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है।

निश्चित तौर पर 2012-13 में कृषि क्षेत्र के लिए जारी किए गए पौने छह लाख करोड़ रुपये को देखते हुए यह ऊंची छलांग है। इससे पहले 2011-12 में पौने पांच लाख रुपये कृषि ऋण का प्रावधान था। इससे आभास होता है कि सरकार किसान छोटे और मझौले किसानों की हमदर्द है। सन 2000 से 2010 तक कृषि ऋणों में 755 प्रतिशत की जबरदस्त वृद्धि हुई है।

दैनिक जागरण में एक चौंकाने वाली खबर प्रकाशित हुई जो हमें बताती है कि पैसा जा कहां रहा है। वित्ता मंत्रालय के एक दस्तावेज के अनुसार पिछले पांच साल में कृषि ऋण में ढाई गुना बढ़ोतरी के बावजूद छोटे और सीमांत किसानों को कुल संस्थागत ऋण का छह प्रतिशत से भी कम दिया गया है। इस पर तुर्रा यह कि वित्तामंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक देश को यह बताते नहीं थकते कि सरकार छोटे और सीमांत किसानों के लिए कितना कुछ कर रही है।

दूसरे शब्दों में कुल सात लाख करोड़ रुपये में से पचास हजार करोड़ से भी कम जरूरतमंद किसानों को मिलेगा। शेष 6.5 लाख करोड़ रुपये कृषिव्यापार कंपनियों, भंडारण निगमों और राज्य बिजली बोडरें को चार प्रतिशत की दर पर दे दिया जाएगा। असल में यह ऋण घोटाला भारत में होने वाले तमाम घोटालों की मां है। 2जी स्पेक्ट्रम, कोयला आवंटन और राष्ट्रमंडल खेलों में कुल घोटाले भी इस ऋण घोटाले के सामने बौने ठहरते हैं।

पिछले 15 सालों में 2.90 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं और 42 प्रतिशत किसान खेती छोड़ने के कगार पर हैं। इस संकट से उबारने के लिए किसानों को निम्न ब्याज दरों पर ऋण मुहैया कराने की सख्त जरूरत है, किंतु गरीब किसानों को ऋण देने के बजाय सरकार उनके नाम पर जारी राशि को बड़े उद्योगपतियों को नाममात्र की ब्याज दरों पर बांट देती है।

2007 में बैंकों द्वारा दिए गए कृषि ऋणों में छोटे किसानों की हिस्सेदारी महज 3.77 प्रतिशत थी। दूसरे शब्दों में 96.23 प्रतिशत कृषि ऋण बड़े किसानों या कृषिव्यापार कंपनियों को दे दिए गए थे। 2011-12 में पौने पांच लाख करोड़ रुपये के ऋण वितरण के लक्ष्य से भी अधिक 5,09,000 करोड़ रुपये वितरित किए गए और इसमें से महज 5.71 प्रतिशत ही छोटे किसानों को मिला। पिछले कुछ वषरें के दौरान यह सुनिश्चित करने के लिए कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक वरीयता क्षेत्र को ऋण देने के 18 प्रतिशत के लक्ष्य की पूर्ति कर सकें, सरकार ने कृषि क्षेत्र की परिभाषा का विस्तार करते हुए इसमें बैंकों द्वारा कृषि व्यापार कंपनियों को दिए जाने वाले अप्रत्यक्ष ऋणों को भी शामिल कर लिया।

2000 से पहले भी सरकार ने कृषि ऋणों में ड्रिप सिंचाई उपकरण निर्माण कंपनियों और कुछ अन्य कृषिव्यापार कंपनियों को कृषि ऋण की पात्रता सूची में शामिल कर लिया था। बाद में ग्रामीण विद्युत कंपनियों, कृषि क्लिनिकों, भंडारण निगमों, कोल्ड स्टोर और मंडी के शेड निर्माण में निवेश करने वाली कंपनियों और यहां तक कि बिचौलियों व दलालों को भी इस सूची में जोड़ दिया गया।

टाटा इंस्टीट्यूट ने एक अध्ययन में पता लगाया कि सन 2000 से 2006 के बीच प्रत्यक्ष वित्ता पोषण 17 प्रतिशत की दर से बढ़ा और अप्रत्यक्ष ऋण 32.9 प्रतिशत की चौंकाने वाली दर से। दिलचस्प आंकड़ा यह है कि 2006 में जारी किए गए कुल ऋणों में 25 करोड़ रुपये से अधिक के ऋण की दर 54 प्रतिशत थी। वे कौन से किसान हैं जिन्हें 25 करोड़ रुपये के ऋण की जरूरत है? यही प्रमुख कारण है कि 2008 में महाराष्ट्र में दिए गए कुल कृषि ऋणों का 42 प्रतिशत मुंबई के बैंकों ने जारी किया है। 2009-10 में दिल्ली और चंडीगढ़ में दिए कृषि ऋण उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल को दिए गए कुल ऋणों से भी अधिक थे। इसी कारण छोटे किसान बर्बादी के कगार पर पहुंच गए हैं। उनके सामने ऊंची ब्याज दरों पर महाजनों से ऋण लेने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है। इसीलिए किसानों की मौत का तांडव थमने का नाम नहीं ले रहा है।

हमें बार-बार बताया जाता है कि कृषि ऋण कृषि उत्पादन, उत्पादकता बढ़ाने और किसानों की दुर्दशा दूर करने में अहम भूमिका निभाते हैं। पिछले एक दशक में ऋणों के वितरण पर उद्योग संगठन एसोकेम के एक अध्ययन में कहा गया है कि कृषि ऋण दिशाहीनता के शिकार हैं। बैंकों द्वारा अप्रत्यक्ष ऋण जारी करने का अनुपात बुरी तरह गड़बड़ाया हुआ है। ब्याज दरों में छूट का लाभ अन्य क्षेत्रों को मिल रहा है। कृषि और फसल के आकार तथा ऋण राशि में असंतुलन है और संस्थागत ऋण के दायरे से छोटे और सीमांत किसान बाहर कर दिए गए हैं। यह नीति कृषि क्षेत्र की बड़ी समस्या बन गई है। अगर आपने एसोकेम की रिपोर्ट के अंतिम बिंदु पर गौर फरमाया हो तो इससे स्पष्ट हो जाता है कि संस्थागत ऋण प्रणाली अपने उद्देश्य में क्यों विफल है। कृषि क्षेत्र के छोटे और सीमांत किसानों को दरकिनार करके सरकार उन लोगों तक लाभ पहुंचाने में बुरी तरह विफल हो गई है, जिनके लिए यह योजना लागू की गई थी। भारत का रिजर्व बैंक इस अनियमतितता का मूकदर्शक कब तक बना रहेगा? यह क्रूर चूक है या फिर सुनियोजित कार्यक्रम?

यह बड़ा कृषि ऋण घोटाला ऐसे समय सामने आया है जब नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक ने 2009 के बजट में 74,000 करोड़ रुपये की ऋण माफी में भारी अनियमितताओं और भ्रष्टाचार को उजागर किया है।

कृषि ऋण की समूची प्रक्रिया को संदेह के घेरे में रखते हुए कैग रिपोर्ट कहती है कि करीब आठ से दस प्रतिशत यानी करीब 35.5 लाख पात्र किसानों को इस योजना का लाभ नहीं मिल पाया है जबकि लगभग इतनी ही संख्या ऐसे किसानों और बड़ी कंपनियों की है, जो इस छूट के हकदार न होने के बावजूद ऋण लेने में सफल रहे। बड़ी संख्या में कुपात्र किसानों ने ऋण चुकाने की जहमत भी नहीं उठाई। असलियत में, धनी और ताकतवर कंपनियां छोटे और सीमांत किसानों के लिए लागू कृषि ऋण योजना को दुह रही हैं। भारतीय रिजर्व बैंक, नेशनल बैंक ऑफ एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट तथा वित्ता मंत्रालय भारत के संभवत: सबसे बड़े घोटाले में सहयोग दे रहे हैं।

साभार – लेखक देविंदर शर्मा, कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं।

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