योगी अनुराग : चंद्रयान “असूर्यम्पश्या”
मानव जाति के अन्तरिक्ष अभियानों के इतिहास में, जितने भी रोवर चन्द्रमा पर जा पहुँचे हैं, सभी उसके उत्तरी ध्रुव पर उतरे हैं। किन्तु ये पहली बार होगा जब कोई रोवर, भारतीय चन्द्रयान का तीसरा संस्करण, चन्द्रमा के घुप्प अँधियारे से भरे दक्षिणी ध्रुव पर उतरा!
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एक शब्द है : “असूर्यम्पश्या”. “सूर्य” और “पश्य” शब्दों से मिलकर, नकारात्मक अव्यय “अ” का उपसर्ग लिए एक शब्द, जिसका अर्थ एक ऐसी व्याप्ति के रूप में है, जिसे कभी सूर्य ने भी न देखा हो. प्राचीन काल में, कन्याओं के लिए “असूर्यम्पश्या” शब्द का प्रयोग बड़ा सम्माननीय माना जाता था. उनके कौमार्य का प्रतीक जैसे!

चूँकि कौमार्य वही है, जिसपर सूर्य की किरण भी न पड़े. कदाचित् इसी कारणवश, कौमार्य के चिह्न सदा ही अँधियारों में निवास करते हैं. ठीक वैसे ही, चन्द्रमा पर एक स्थान ऐसा है, जहाँ कभी सूर्य की किरण नहीं पहुँचती. वो स्थान चिरकाल से “असूर्यम्पश्या” है.
ये स्थान है, इस खगोलीय पिण्ड का दक्षिणी ध्रुव. जिसका तापमान माइनस ढाई सौ डिग्री तक जाए, ऐसी गड्ढों वाला ध्रुव. और मानवजाति के लगातार होते रहने वाले आक्रमणों के पश्चात्, चन्द्रमा का बचा-खुचा तमाम कौमार्य इसी दक्षिणी ओर सिमटा हुआ है!
तिरङ्गे से मण्डित रोवर जब चन्द्रमा के दक्षिणी छोर पर उतरा, तो उसका आख़िरी “कौमार्य” भी सदा सदा के लिए जाता रहा. और समग्र विश्व ने निहारा कि ऑस्ट्रेलिया और कैरीबियन देशों में होने वाले क्रिकेट हेतु जागने वाली पीढ़ी की अगली संतति, कैसी विकट वैज्ञानिक चेतना के साथ जन्मी है कि चन्द्रमा पर उतरते यान का पल पल मुआयना करना चाहती है.
यद्यपि, ऐसा नहीं है कि ये भारत का पहला अंतरिक्ष मिशन था. तथापि, इस चन्द्रयान द्वितीय से शुरू हुई नई पीढ़ी की वैज्ञानिक चेतना ने विश्व बिरादरी के उस धड़े पर तमाचा मारा है, जो भारत को सपेरों और अंधविश्वासियों का देश कहता है.
वस्तुतः हमारे यशस्वी पूर्वजों की उक्ति “यथा राजा तथा प्रजा” त्रुटिपूर्ण नहीं थी, बल्कि उन सूक्तियों के प्रति विश्व बिरादरी का रवैया दोषपूर्ण था. जबकि आज, देश की सरकार अपनी आवाम को वैज्ञानिक चेतना की उच्चतम पराकाष्ठा पर ले गई.
मिशन चन्द्रयान द्वितीय के वक़्त, इसरो-प्रमुख श्री शिवन् ने उस छोटी-सी असफलता के लिए जिस प्रकार पूरी तरह अपने आप को दोषी माना था, ठीक उसी प्रकार चंद्रयान तृतीय के वक़्त इसरो-प्रमुख श्रीधर पणिक्कर सोमनाथ ने इस सफलता का एकाकी श्रेय लेने से साफ़ इनकार कर दिया. उन्होंने श्रेय को पूरी टीम के हिस्से छोड़ दिया.
— ये ठीक वैसा ही है, जैसे कि युद्ध में विजय हो तो सबकी, पराजय हो तो सिर्फ सेनापति की!
इस मानसिकता के पीछे श्री शिवन् का कृषक-अवचेतन था और श्री सोमनाथ का हिन्दी-परिवेश है. उक्त दोनों जन अपने जीवनकाल के हालिया बीते चार दशक में वैज्ञानिक बने हैं, किन्तु उन दोनों का ही जन्म एक मध्यमवर्गीय हिन्दू परिवार में हुआ.
श्री शिवन् के पिता कृषक थे और श्री सोमनाथ के पिता हिन्दी के अध्यापक. और रोचक बात ये कि ये दोनों ही अपने समूचे खानदान के पहले वैज्ञानिक हैं. जिन लोगों ने शिक्षा और कौशल के क्षेत्र में, अपने परिवार में पहली बार कोई कार्य किया होगा, वे इस अवचेतन मन को बखूबी जान सकेंगे. कितना भावनात्मक दबाव होता है, कितनी इच्छाएं आशाएं अपेक्षाएं आप पर टिक जाती हैं.
और जब इस तरह के भावनात्मक वातावरण में अपने मस्तिष्क का विकास करने वाले दोनों वैज्ञानिकों ने पाया कि किस तरह देश ने बाँहें फैला कर उनका अभिनंदन किया है, तो ज़ाहिर है कि परिणाम सर्वश्रेष्ठ ही आना था. इस विशेष और अनूठे कार्य की सफलता हेतु समूचे देश की ओर से वैज्ञानिक टीम को हार्दिक शुभकामनाएँ.
मिशन की वैज्ञानिक सफलता, चन्द्रयान द्वितीय की पिंचानबे प्रतिशत सफलता के पड़ाव से और अधिक बढ़ कर भले ही शत-प्रतिशत रही हो, किन्तु भावनात्मक सफलता इतनी है कि इसे माप सकने की क्षमता किसी टीआरपी काउंटर के पास नहीं.
इतिहास रचने में इतने भी पड़ाव न हों तो इतिहास रचने का आनंद ही क्या. सो, लेट्स चिल एंड एन्जॉय द सक्सेस.
इति नमस्कारान्ते.
[ चित्र : चन्द्रयान तृतीय के रोवर द्वारा चंद्रमा के “असूर्यम्पश्या” दक्षिणी ध्रुव पर उकेरा गया भारत का राजचिह्न. इंटरनेट से साभार. ]
