“सिद्धार्थ-यशोधरा : दाम्पत्य की प्रीति से निर्वाण की मुक्ति तक पहुँचे युगल की बुद्धत्व भरी प्रेमगाथा”

प्राचीन काल में शाक्य कुल में कपिलवस्तु के राजा थे- शुद्धोदन। उनके दो विवाह हुए थे- प्रथम, महामाया से और द्वितीय, महाप्रजापति गौतमी से। महामाया और महाप्रजापति गौतमी दोनों परस्पर बहनें थी। यह दोनों देवदह के कोलिय कुल के राजा अंजन व रानी यशोधरा की पुत्रियां थीं। राजा अंजन भी राजा शुद्धोदन के निकटवर्ती संबंधी लगते थे।

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राजा शुद्धोधन की दोनों रानियां लगभग एक ही समय में गर्भवती हुईं। रानी महामाया ने अपनी गर्भावस्था के समय सोलह सपनों की एक ऐसी अद्भुत श्रृंखला देखी, जिसमें अभिॆभूत हो गईं।

जिस दिन गौतम उनके गर्भ में प्रविष्ट हुए, उस दिन उन्होंने उपवास किया हुआ था। रात में उन्होंने एक स्वप्न देखा- “चातुर्महाराज अर्थात् चार देव गण उन्हें उठा हिमालय पर ले जाते हैं और एक शाल वृक्ष के नीचे रखी हुई एक सुन्दर शय्या पर लिटा देते हैं। तब उन देवों की पत्नियाँ आती हैं और उन्हें अनोत्तत सरोवर में वहाँ स्नान कराती हैं। फिर वे उन्हें दिव्य परिधान धारण करा एक अद्भुत स्वर्ण-प्रासाद की दिव्य शय्या पर लिटा देती हैं। तभी एक सफेद हाथी अपनी चमकदार सूँड में एक ताज़ा सफेद कमल लेकर दाहिनी दिशा से उनके गर्भ में प्रवेश करता है।”

वह दिन आषाढ़-पूर्णिमा का था, और उस दिन से सात दिनों का महोत्सव भी नगर में प्रारम्भ हो चुका था। राजा शुद्धोदन भी उस रात महामाया के समीप नहीं आ सके थे।

अगले दिन महामाया ने जब महाराज शुद्धोदन को अपने दिव्य स्वप्न से अवगत कराया, तो अद्भुत स्वप्न जानकर उन्होंने राज-ज्योतिषियों को बुलाया और उस स्वप्न का रहस्य बताने के लिए कहा। तब उन ज्योतिषियों ने परस्पर विचार कर कहा कि रानी के गर्भ में प्रविष्ट बालक या तो चक्रवत्तीं सम्राट् बनेगा या बुद्ध।

जब रानी महामाया अपने गर्भावस्था के लगभग पूर्णता के निकट थीं, तब वे राजा से अनुमति लेकर अपने अनुचरों व अपनी दासियों के साथ अपने मायके जा रही थीं। उस दिन वैशाख पूर्णिमा थी। मार्ग में लुंबिनी नामक स्थान पर गहन शालवन पड़ता था, जहां अचानक रानी महामाया को प्रसव वेदना उत्पन्न हुई और उन्हें वहां एक पुत्र का जन्म हुआ। कथाओं के अनुसार जन्म लेते ही वह पुत्र चलने लगा।

उस पुत्र का नाम सिद्धार्थ रखा गया। जन्म के उपरांत राजा ने पुनः आठ दैवज्ञ ज्योतिषियों को बुलाया और उनसे पुत्र का भविष्य बताने के लिए कहा। इनमें सात दैवज्ञ ज्योतिषियों ने परस्पर गणना कर पुनः यह अवगत कराया कि यह बालक या तो चक्रवत्तीं सम्राट् बनेगा या बुद्ध। परंतु इनमें कौंडिन्य नाम का भी एक ब्राह्मण दैवज्ञ ज्योतिषी था, जिसने कहा कि महाराज, यह बालक एक विवृत्त कपाट बुद्ध ही बनेगा, कोई चक्रवर्ती सम्राट नहीं।

शुद्धोदन पुत्र के लिए यह भविष्यवाणी सुनकर चिंतित हुए, क्योंकि उन्हें राज्य के उत्तराधिकार के लिए कोई संन्यासी नहीं, अपितु राजकुमार चाहिए था।

सिद्धार्थ के पिता राजा शुद्धोधन के बचपन के मित्र थे, असित देवल, जो कालांतर में तपस्वी बन गए थे. सिद्धार्थ के जन्म पर वे अपना तप छोड़ वे मिलने आए, अप्रत्याशित ही, अचानक.
शिशु के भावी बुद्ध होने को वे पहले ही जान चुके थे। कहते हैं, असित जब नवजात शिशु से मिले तो उन्होंने शिशु के चरणों में सिर रख दिया। शिशु सिद्धार्थ के चरण असित की जटाओं में फँस गए। असित हँसे, फिर रो पड़े.

राजा ने कारण पूछा. असित ने कहा-
यह शिशु असाधारण है.
यह वह बुद्ध है, जो युगों की प्रतीक्षा के बाद जन्म लेता है।
प्रसन्न हूँ कि मैंने उसे देख लिया,
रोता हूँ कि इसे बुद्ध बनते न देख सकूँगा.
वय हो गई, तप ने यह भी तय कर दिया कि अब दूजा जन्म न हो, अन्यथा देखने के लिए फिर जन्म लेता.

संयोगवश उस वैशाख पूर्णिमा के ही दिन, जब शुद्धोधन और महामाया के यहां सिद्धार्थ का जन्म हुआ था, शुद्धोदन की बहन प्रमिता, जिनका विवाह कोलिय कुल के राजा सुप्रबुद्ध से हुआ था, के यहां एक कन्या का भी जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया- यशोधरा। यशोधरा को बचपन में गोपा व भद्रा भी कहा जाता था। उनके पिता सुप्रबुद्ध को दंडपाणि भी कहा जाता था।

एक ही परिवार के विस्तार में एक ही दिवस को सिद्धार्थ और यशोधरा दोनों का जन्म हुआ। विविध कथाओं के अनुसार सिद्धार्थ और यशोधरा विगत कई जन्मों से एक दूसरे के सहचर रहे थे।

सिद्धार्थ के जन्म के कुछ ही दिवस के उपरांत उनकी माता महामाया गंभीर रूप से बीमार पड़ी और सिद्धार्थ के जन्म के सातवें दिन ही उनकी मृत्यु हो गई। सिद्धार्थ अभी नवजात शिशु थे। सिद्धार्थ की विमाता महाप्रजापति गौतमी उनकी मौसी भी थीं और वे भी आसन्नप्रसवा थीं। उन्होंने शिशु के पालन-पोषण कर समस्त दायित्व स्वयं संभाल लिया। कुछ समय के उपरांत महाप्रजापति गौतमी के भी एक पुत्र व पुत्री हुए, जिनका नाम रखा गया- नंद और नंदा।

समस्त बालक एक साथ बड़े होने लगे। सिद्धार्थ के पिता शुद्धोदन यशोधरा के मामा थे और यशोधरा की माँ प्रमिता सिद्धार्थ की बुआ. इसलिए इनके मध्य भी बचपन में यदा-कदा मेल-मिलाप होता रहा था।

समय के साथ सिद्धार्थ और यशोधरा दोनों किशोरावस्था में पहुंचे। दोनों की आयु उस समय सोलह वर्ष की थी। सिद्धार्थ व
यशोधरा समवयस्क थे। दोनों के मध्य विवाह की चर्चा चली।
सिद्धार्थ बचपन से सहृदय थे, करुणामय थे, उनमें सामान्य
युद्धोचित क्षत्रिय व्यक्तित्व नहीं दिखता था, सो यशोधरा के पिता सुप्रबुद्ध इस विवाह से बहुत सहमत नहीं थे.

एक बार राजा शुद्धोदन ने एक उत्सव का आयोजन किया, जिसमें परंपरा अनुसार सांस्कृतिक कार्यक्रम के अंत में राजकुमार सिद्धार्थ के द्वारा अविवाहित कुमारियों को अपनी ओर से अशोकभांड अर्थात् मदनोत्सव पर उपहार दिया जाना था। इस उत्सव के समय यशोधरा भी कपिलवस्तु में आमंत्रित थीं। उत्सव के आयोजन के समापन के समय राजकुमार सिद्धार्थ समस्त कुमारियों को उपहार वितरित करते हुए जा रहे थे, सब के अंत में यशोधरा खड़ी मिलीं। तब तक उपहार समाप्त हो चुके थे, राजकुमार सिद्धार्थ ने अपने कंठ का हार यशोधरा को अर्पित कर दिया। यह दोनों के मध्य प्रेम का आरंभ था। यशोधरा पुनः अपने पिता के पास लौट गईं, परंतु अब उनके लिए सिद्धार्थ को विस्मृत कर पाना संभव नहीं था।

यशोधरा विवाह के योग्य हो चुकी थी अतः पिता शीघ्र उसके विवाह के लिए समुचित आयोजन करना चाहते थे। यशोधरा ने मानसिक रूप से सिद्धार्थ का वर्णन कर लिया था और वह किसी अन्य से विवाह नहीं करना चाहती थी परंतु उसके पिता इस निर्णय से सहमत नहीं थे। सुप्रबुद्ध ने अपने यहाँ क्षत्रिय परंपराओं के अनुरूप विविध प्रतिस्पर्धाओं का आयोजन किया, जो यशोधरा का स्वयंवर भी था। इसमें अनेक राजकुमारों ने भाग लिया। सिद्धार्थ भी वह प्रतियोगिता देखने पहुंचे। यशोधरा ने अपनी माता से कह दिया कि वह विवाह केवल सिद्धार्थ से ही करेंगी। अंततः उनकी माता ने राजा सुप्रबुद्ध को इस हेतु सहमत कर लिया, परंतु स्वयंवररूप प्रतियोगिता का आयोजन हो चुका था और इसमें लगभग पाँच सौ राजकुमार आमंत्रित हो चुके थे, ऐसे में आयोजन को निरस्त करना संभव नहीं था।

अन्य सहभागियों की मांग को देखते हुए पर राजा सुप्रबुद्ध ने प्रतियोगिता यथावत् जारी रखी। इसमें 96 प्रतियोगिताएं रखी गई थीं, जिनमें युद्ध व अस्त्र विद्या के अतिरिक्त अन्य कलाएँ भी रखे गई थीं। उसमें सिद्धार्थ ने समस्त में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया ललित विस्तर नामक कृति के अनुसार उन्होंने सभी 96 प्रतियोगिताओं में श्रेष्ठता प्राप्त की। उन प्रतियोगिताओं में उन्होंने हाथी को नियंत्रित किया, अश्वारोहण प्रतियोगिता में अश्व को अधीन किया। वे लक्ष्यभेद की प्रतियोगिता के लिए उत्सुक नहीं थे, परंतु सब के आग्रह पर वे अंत में उतरे और इस प्रतियोगिता में भी वे सर्वश्रेष्ठ रहे। इन सबमें सिद्धार्थ के कौशल को देखकर सुप्रबुद्ध के मन में निहित युद्ध कौशल का संदेह दूर हो गया, फिर उन्होंने और यशोधरा का विवाह करने का निर्णय कर लिया। प्रतियोगिता के अंत में राजकुमारी यशोधरा ने विविध राजकुमारों को पुरस्कार देते समय राजकुमार सिद्धार्थ को विशेष उपहार दिया।

राजकुमार सिद्धार्थ और यशोधरा का धूमधाम से विवाह हो गया। यशोधरा कपिलवस्तु चली आईं। वर्षों बीत गए। दोनों का विवाह प्रेमपूर्वक चलता रहा। दोनों क्रमशः 29 वर्ष के हो गए। के ही लगभग बारह वर्षों तक दोनों के कोई संतान नहीं थी। परंतु यशोधरा दीर्घकाल के उपरांत गर्भवती हुईं।

सिद्धार्थ के लिए भविष्यवाणी थी कि वे सर्वस्व त्यागकर सन्यास के पथ पर जाएंगे और बुद्ध बनेंगे पिता शुभ बोधन ने उन्हें सन्यास मार्ग सीरत करने के लिए उनके भगवान रात के लिए सम्यक सर्वत्र व्यवस्था कर दी किसी कारणवश ने वृद्धावस्था से भी कभी ज्ञान हो इस कारण वृद्धों को उनकी सेवा से दूर रखा जाता था। मैं बीजी पत्र फूलों को उनके जगने से पहले ही हटा दिया जाता था ताकि उनको देखकर भी कदाचित उन्हें बैराग न हो।

परंतु नियति प्रतीत के मार्ग निकाली लेती है। एक बार सिद्धार्थ अपने सारथी छंदक के साथ नगर भ्रमण के लिए निकले। उन्हें मार्ग में क्रमशः रोगी, वृद्ध, मृतक और संन्यासी मिले। उनको देखकर उन्होंने सारथी से पूछा कि क्या सब लोग कभी न कभी वृद्ध होते हैं, क्या सब ही कभी न कभी मरते हैं, क्या सब ही कभी न कभी रोगी होते हैं, तब सारथी में हर प्रश्न के उत्तर में हाँ कहा। अंत में जब उन्होंने संयासी को देखा, तो उसके विषय में पूछा। सारथी ने कहा कि यह जीवन के पार के रहस्यों को जानने के लिए संन्यास के पथ पर निकला हुआ है। समस्त घटना को देख व जानकर सिद्धार्थ ने जीवन के यथार्थ अंत को जाना और उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया।

यशोधरा का गर्भकाल पूर्ण हो चुका था और उसने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। जब दासी सिद्धार्थ को यह सुसमाचार सुनाने के लिए आई, तब विरक्त हो रहे सिद्धार्थ ने कहा कि उनके लिए राहुल आ गया अर्थात् उनके बंधन के लिए एक राहु आ गया। इसके उपरांत पुत्र का नाम ही राहुल पड़ गया।

एक रात सिद्धार्थ अपने अश्व कंथक और सारथी छंदक को लेकर चुपचाप घर और नगर छोड़कर संन्यास के लिए निकल गए। बुद्ध की कथा ने इसे महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है। राज्य की सीमा पर आकर उन्होंने अपने अश्व और सारथी को मुक्त कर दिया और समस्त आभूषण उतार कर उसे दे दिए। पुनः वे एक भिक्षु के रूप में चल पड़े। इसके साथ ही उनकी दीर्घकालीन साधना प्रारंभ हो गई। मार्ग में उन्होंने कतिपय संतों का सिद्धों से भी ध्यान की शिक्षा ली। उद्दक रामपुत्र नामक वैशेषिक दर्शन के आचार्य से “नैव संज्ञानासंज्ञानायतन” ध्यान व आलारकलाम नामक सांख्य दर्शन के आचार्य से “आकिंचन् आयतन” ध्यान सीखा। एक-एक मास के भीतर ही वे इन दोनों ध्यानप्रक्रियाओं में प्रवीण भी हो गए, परंतु इससे वे संतुष्ट नहीं हुए, क्योंकि ये जीवन के लक्ष्य व संपूर्ण रहस्य के ज्ञान के लिए पर्याप्त नहीं थे। इसके उपरांत सिद्धार्थ चलते हुए सारनाथ पहुंचे, जहां उन्होंने पाँच भिक्षुओं के साथ कठोर साधना प्रारंभ की। उनका शरीर दुर्बल व जीर्ण हो गया।

साधनाकाल में जब बुद्ध ने किसी लोकगीत के स्वर सुने, जिनका भाव था-
जीवन वीणा की तान है, उसके तारों को इतना शिथिल न करो कि स्वर ही न निकलें,
उसके तारों को इतना कसा भी न करो कि तार ही टूट जाएँ।

सिद्धार्थ ने सारनाथ में चलने वाली कठोर साधना छोड़ दी और आगे अगली यात्रा के लिए निकल पड़े अंत में वे बोधगया में निरंजना नदी के तट पर गए। तत्कालीन उरुवेला (बोधगया) में नीरांजना या निरंजना (फल्गू) नदी के तट पर शालवृक्षों का घना वन था. परंतु बुद्ध को पीपल की छाँव ही रास आई.
किसी श्रोत्रिय नामक घसियारे ने अपनी आठ मुट्ठी घास देकर बुद्ध का आसन बना दिया, ताकि उन्हें बैठने में सुविधा हो सके।

तभी सुजाता एक ग्वालिन वहां पीपल वृक्ष की पूजा के लिए खीर का भोग लेकर पहुंची। सुजाता भी माँ बनी थी. मन्नत मानी थी कि पुत्र हुआ, तो पीपल वृक्ष की पूजा करेगी और खीर का प्रसाद चढाएगी. कहते हैं, खीर भी सामान्य दूध की नहीं थी. पहले हजारों गायों को केवल मधुयष्टि की घास चरने दिया गया. उनका दूध पाँच सौ गायों के पिलाया गया, फिर पाँच सौ का दूध ढाई सौ गायों को. ऐसे कर अंतत: आठ गायों के दूध की खीर बनी. सबसे पहले सुजाता की दासी पूर्णा पहुँची, तो उसे लगा कि पीपल वृक्ष ही देव बन गए हैं. उसने सुजाता को यह सूचना दी कि वहां वृक्ष देवता स्वयं बैठे हुए हैं तो विस्मित सुजाता भी सोने की थाली में खीर लेकर पहुँची। सुजाता ने भी वही समझा, तब सिद्धार्थ से कहा कि वे सामान्य मानव है और वे साधना पथ पर निकले हुए हैं। वर्तमान में वह साधक ही हैं। सुजाता ने उन्हें व संपूर्ण खीर अर्पित कर दी। ढकने निरंजना नदी में स्नान कर उस खीर का भोजन किया। कुल उनचास कौर खीर खाकर बुद्ध ने थाली नीरांजना नदी में बहा दी।

वह वैशाख पूर्णिमा का दिवस था, जिस तिथि को उनका जन्म हुआ था। इसी रात्रि को सिद्धार्थ को निर्वाण का ज्ञान प्राप्त हो गया और वे सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए। अगले उनचास दिन भोजन नहीं किया. उनचास दिनों बाद उड़ीसा के दो व्यापारी तपस्सु और भल्लिक वहाँ से गुजरे, तो शहद का लड्डू व छाछ देकर राजयतन वृक्ष की छाँव में बैठे बुद्ध को बुद्धत्व का प्रथम भोजन कराया.

इसके उपरांत सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बने वे सारनाथ पहुंचे, जहां उनके पाँच पूर्व तपस्वी साधना कर रहे थे। वहां उन्होंने उन्हें सम्यक् संबोधि का ज्ञान उपलब्ध कराया। इसके उपरांत विभिन्न स्थानों पर चारिका करते हुए वे अपनी जन्मभूमि कपिलवस्तु पहुंचे।

वहां उन्हें ज्ञात हुआ कि यशोधरा ने बुद्ध के साथ साथ तपस्या की, घर में रहकर. साधना काल में बुद्ध की जो-जो साधना सुनती, स्वयं करती, अपनाती. यशोधरा को भी दूतों, अनुचरों, यात्रियों से बुद्ध की साधना की सूचना मिलती रही , वही करने लग जातीं. भूमि पर सोतीं, कौशेय वस्त्र पहनतीं, भोजन में अधिकांशतः अनाहार को दूर तक ले जातीं.

सिद्धार्थ के गौतम बुद्ध बनने की साधना में छह वर्ष व्यतीत हो चुके थे। कपिलवस्तु पहुँचने तक उनका पुत्र राहुल भी कुछ बड़ा हो चुका था। यशोधरा ने राहुल को अपने पिता के पास यह कह कर भेजा कि वह पिता के रूप में उसे क्या देंगे। गौतम बुद्ध ने अपने पुत्र राहुल को भी भिक्षा पात्र देकर अपने संन्यास के मार्ग में भिक्षु बना लिया।

बाद में बुद्ध यशोधरा से मिलने गए। यशोधरा ने अपने केश उनके चरण पर रखकर उनका अभिनंदन किया। दोनों के बीच मौन रहा और यशोधरा ने उनसे कोई परिवाद नहीं किया।
पुनः बुद्ध अपने संन्यास के पथ पर चले गए। उनके साथ उनके भ्राता आनंद व नंद भी गए।

इसके उपरांत बुद्ध के निरंतर चारिका चलती रहे और उनका धर्म दूर तक प्रसारित होने लगा। एक बार उनकी विमाता महाप्रजापति गौतमी यशोधरा को साथ लेकर उनके पास आईं और उन्होंने बौद्ध धर्म में उन्हें भी दीक्षित करने का निवेदन किया। उस समय तक बुद्ध ने अपने संघ में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित कर रखा था, परंतु आनंद के आग्रह पर बुद्ध ने तदुपरांत का स्वतंत्र संघ बनाते हुए उनका प्रवेश अनुमत कर दिया।

इसके उपरांत यशोधरा भी उनके पद की अनुगामिनी बन गईं। दोनों के पुत्र राहुल ने तो पहले से ही प्रवेश ले लिया था। जितनी कथा वर्णित है, उससे परिलक्षित होता है कि यशोधरा भी सिद्धार्थ के प्रति अनुरागिनी ही नहीं, उनके समान प्रवृत्ति में वैरागन भी थीं, बस प्रव्रज्या बाद में लिया. यशोधरा बुद्धत्व के उस शिखर तक पहुँची, जहाँ केवल बुद्ध के प्रमुख शिष्य सारिपुत्र, मौद्गल्यायन व महाकश्यप पहुँच सके थे. और यह घोषणा स्वयं बुद्ध ने जेतवन में की-
“मेरे भिक्षुओं-श्रावकों में प्रज्ञावान् तो बहुत हैं,
परंतु महाअभिज्ञाप्राप्त श्राविका केवल एक है,
वह है- भद्रा कात्यायनी यशोधरा.”

यशोधरा की प्रव्रज्या के बाद उसकी उपस्थिति शून्यवत् है,
देहावसान भी बुद्ध के परिनिर्वाण से दो वर्ष पूर्व हो गया
और तब बुद्ध ने बस पिछले जन्म सा इतना कहा होगा-
“जब तक जीवित थी, मुझसे संबंधित थी, अब जब वह जीवित नहीं है, समस्त सृष्टि की हो गई है, अब संबद्ध नहीं रही, परंतु संबुद्ध होकर गई है।”

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बौद्ध धर्म विश्व का तृतीय प्रमुख धर्म है। अत: बुद्ध की कथाओं का दूर तक प्रसार है। सिद्धार्थ और यशोधरा की कथा के जीवन और दर्शन दोनों को आधार बनाकर लिखे गए असंख्य ग्रंथों में वर्णित है। इनमें जातक कथा, जातक अट्ठकथा, अवदान कथा, बुद्धचरित, ललितविस्तर आदि में किंचित् परिवर्तन व परिवर्धन भी किया गया है। विशेष रूप से ललितविस्तर में बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण के अतिरिक्त अन्य घटनाओं का ललित रूप में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। बुद्ध से संबंधित अधिकांश कृतियाँ संस्कृत या पालि भाषा में निबद्ध थीं, जो समय के साथ चीनी, तिब्बती, सिंहली आदि भाषाओं में अनूदित हुईं। हिंदी में सिद्धार्थ और यशोधरा की कथा में यशोधरा को नायिका बनाकर मैथिलीशरण गुप्त ने यशोधरा नामक प्रसिद्ध काव्य लिखा है। हिंदी में ही जगदीश गुप्त ने गोपा-गौतम नाम से भी एक काव्य लिखा है, जिसमें उन्होंने उनके दांपत्य का एक पृथक् आयाम वर्णित किया है।

कुछ महायानी जातक कथाओं के अनुसार यशोधरा सिद्धार्थ की कई जन्मों से सहचरी थीं। एक जन्म में सिद्धार्थ तपस्वी थे, तब यशोधरा उनकी सहगामिनी साधिका सम्मिल्लहासिनी थी,
उससे पहले यशोधरा महारानी सुभद्रा थी, तो सिद्धार्थ उनके पति महाराज सुदर्शन थे, उससे भी पहले सिद्धार्थ एक दरिद्र ब्राह्मण थे, तब भी वे उनकी धर्मनिष्ठ भार्या थीं।यशोधरा-सिद्धार्थ की जन्म-जन्मांतर की चली आ रही शृंखला में इस जीवन से ठीक पूर्व के जन्म में उनकी सुमित्रा-सुमेध के रूप में रुचिर प्रेमगाथा थी, जिसे इस संकलन में पृथक् से वर्णित किया गया है।

यशोधरा के तीन और नाम मिलते हैं-
बिंबासुंदरी, चंद्रमा के बिंब के समान सुंदर होने से संभवतः उनका विशेषण था।
गोपा, जो बाल काल में उनके माता-पिता द्वारा दिया गया नाम था।
भद्रा कात्यायनी, घर में भद्र और कात्यायन गोत्र की होने से किया गया संबोधन था, क्योंकि बौद्ध परंपरा में सामान्यतः भिक्षुओं को उनके गोत्र नाम से उच्चारित किया गया है। सिद्धार्थ को भी गौतम उनके गोत्र के कारण ही कहा गया।
प्रव्रज्या के उपरांत अधिकांशतः यशोधरा भद्रा कात्यायनी कहा गया है.
इन तीन नामों के अतिरिक्त उन्हें राहुलमाता भी कहा जाता है, जो नाम न होकर पुत्र राहुल की माता होने से किया गया संबंधगत संबोधन है। इन सबमें गोपा नाम सबसे कम प्रयुक्त हुआ है और यशोधरा सबसे अधिक। एक संभावना यह भी है कि यशोधरा के लिए गोपा, भद्रा और बिंबासुंदरी तीनों ही नाम ही रखे गए हों, किंतु कालांतर में विवाहपर्यंत केवल यशोधरा ही विशेष रूप में प्रयुक्त होता रहा हो। एक विचार के अनुसार
माता के लिए उनका प्यार का नाम बिम्बा था व पिता के लिए गौरव का नाम भद्रा कात्यायनी. थेरी गाथा उच्कथा के अनुसार महामाया के पिता का नाम महासुप्पबुद्ध था और अवदान कथा के अनुसार उनकी माता का नाम सुलक्खणा था।

किंवदंती है कि बुद्ध ने निर्वाण के क्रम में मध्यमाप्रतिपद् के मार्ग का ज्ञान अर्जित किया, किन्हीं ग्राम्या बालाओं के यही गीत सुनकर, परंतु संभवत: इसका कोई प्राचीन लिखित साक्ष्य नहीं है।

देवदह बुद्ध का ननिहाल था, यशोधरा की माँ प्रमिता थीं,
इस प्रकार सिद्धार्थ व यशोधरा परस्पर ममेरे-फूफेरे भाई बहन भी लगते थे, पर यह विवाह में बाधा नहीं था,
क्योंकि वहाँ ममेरे भाई-बहनों में विवाह प्रतिबंधित नहीं था.
बुद्ध की प्रव्रज्या पर चर्चा सदा यशोधरा के परित्याग के संदर्भ में तल्ख़ रही है, परंतु यशोधरा कभी तल्ख हुई हो, यह कहीं नहीं मिलता. यशोधरा व सिद्धार्थ का विवाहित जीवन तेरह वर्ष तक चला था. विवाह के समय दोनों की आयु 16 वर्ष थी.
प्रव्रज्या के समय दोनों 29 वर्ष के थे. परंतु सिद्धार्थ ने गृहत्याग तब किया था, जब यशोधरा अभी माँ बनी ही थीं.

जो हो, सुप्रबुद्ध न तो पहले यशोधरा का विवाह सिद्धार्थ से चाहते थे, न ही उन्होंने यशोधरा के त्याग के लिए बुद्ध को कभी क्षमा किया, यहाँ तक कि बुद्धत्व प्राप्ति के बाद उनसे सुरापान कर लड़ने भी आये.

यशोधरा सिद्धार्थ की समर्पित प्रिया थीं, पत्नी थीं, राजघराने की कुलीन मर्यादित बहू थीं व माता के दायित्वों की सम्यक् निर्वाहिका थीं. यशोधरा ने कभी बुद्ध से परिवाद किया हो, ज्ञात नहीं. कवि की कल्पना में कविता में परिवाद भरे पड़े हैं. यथार्थ के प्रति दोनों असत्य हो जाते हैं,
दर्शन अत्यधिक निष्ठुर होकर,
साहित्य अत्यधिक भावप्रवण होकर.

बुद्ध का स्वभाव बचपन से विरक्त-सा था, परंतु रोगी, वृद्ध, मृतक, संन्यासी देखकर अकस्मात् गृहत्याग का तर्क सुसंगत नहीं दिखता है. 29 वर्ष तक कोई मृतक व संन्यासी न देखे, यह तो फिर भी विश्वसनीय है, परंतु वह रोगी व वृद्ध भी न देख पाए, यह विश्वसनीय नहीं. स्वयं बुद्ध के पिता तब 70 वर्ष के थे. बुद्ध के जीवन में यह कथाएं भी बहुत बाद में जातक कथाओं के रूप में जोड़ी गईं, जिनका समय बुद्ध के निर्वाण के लगभग एक सहस्राब्दी के उपरांत है। प्राचीन ग्रंथ के रूप में सुत्त पिटक के खुद्दक निकाय के सूत्त निपात के अट्ठक वग्ग में अत्तदंड सूत्त है, जिसमें प्रव्रज्या का कारण उनका वैराग्य ही बताया गया है।

बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण के पीछे का एक गहरा राजनीतिक परिदृश्य भी है. शाक्यों व कोलियों में दीर्घ काल से रोहिणी नदी विवाद चल रहा था. कोलियों ने अचानक रोहिणी नदी का बहुत पानी रोक या मोड़ लिया। शाक्यों ने इसे अपना अपमान समझा, और कोलियों के विरुद्ध युद्ध का निर्णय ले लिया।

सिद्धार्थ ने इसका विरोध किया, तो राजसभा ने निर्णय दिया कि रोहिणी नदी विवाद में या तो उन्हें देश से निष्क्रमण करना था या फिर मृत्युदंड का सामना करना होगा या फिर युद्ध में भाग लेना होगा. रोहिणी नदी जलविवाद में बुद्ध को गृहत्याग अनिवार्य हो गया था, यह पिता, पत्नी, परिवार ही नहीं, पूरा समाज जान चुका था.

बुद्ध बुद्धत्व प्राप्ति के उपरांत 49 दिवस तक चार वृक्षों की छाँव में रहे, निराहार, निमग्न।
बौद्ध ग्रंथ बुद्धत्व के चार महावृक्षों का स्मरण करते हैं-
-बोधिवृक्ष, पीपल का पेड़
-अजपाल, बरगद का पेड़
-मुचलिंद, गूलर का पेड़
-राजयतन, संभवतः बरगद का पेड़।

साभार : कृष्णकांत पाठक

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