देवेंद्र सिकरवार : क्या होता जो कृष्ण और बुद्ध एक दूसरे के आमने सामने आते!
अभी वैष्णवी तिलक लगा दो यही पंचवटी वासी राम दिखने लगेंगे।
(राम का वंशज ही बुद्ध का रूप धार सकता है।)
कितनी अजीब बात लगती है कि बौद्ध और जैन शताब्दियों तक शास्त्रार्थ में एक दूसरे के सामने अपनी शिखाएँ फटकारते रहे लेकिन बुद्ध और महावीर समकालीन होने के उपरांत भी कभी एक दूसरे से शास्त्रार्थ नहीं किये।

मजेदार कहानी है कि बुद्ध और महावीर एक ही जगह दो कमरों में रुके हैं पर फिर भी नहीं मिलते एक दूसरे से।
उनका मौन बहुत कुछ कहता है।
महर्षि दयानंद सरस्वती और विवेकानंद समकालीन हैं पर नहीं मिलते एक दूसरे से। महर्षि रामकृष्ण से जरूर मिलते हैं और रामकृष्ण उनकी भुजा को स्पर्श कर तौलते से हैं और मुस्कुराकर कहते हैं,”वाह! लेकिन एक बार और आना होगा।” महर्षि मुस्कुराकर मौन स्वीकार कर लेते हैं।
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इन विराट महापुरुषों के बौने अनुयायियों को अपनी क्षुद्र भाषा में इनके प्रति कुवचन बोलते देखता हूँ तो इन पर बड़ी दया आती है।
कभी-कभी एक बड़ी मजेदार परिकल्पना आती है कि क्या होता जो कृष्ण और बुद्ध एक दूसरे के आमने सामने आते!
सोचकर देखिये कि दोंनों क्या व्यवहार करते?
