प्रवीण मकवाणा : क्षात्र धर्म और राजपूत.. फिल्मों ने सामन्त बताया तो कम्युनिस्टों ने तानाशाह ..जातीय स्मृति का गौरव गान उनका क़ानूनन अधिकार नहीं ? 

मांड गायिकी फलाँ जाति के कारण बची, पशुपालन फलाँ जाति के कारण बचा, यह परम्परा फलाँ जाति के कारण रक्षित हो पायी — यह सब बड़े गौरव से बताया जाता है। लेकिन कोई राजपूत कभी कह दे कि हमारी हजारों पीढ़ियाँ खपी तब जाकर यह राष्ट्र और सनातन ज़िंदा रह पाये तो एक मिनट नहीं लगेगा और हम कह देंगे कि यह राजपूत जातिवादी है। क्या जातीय स्मृति का गौरव गान उनका क़ानूनन अधिकार नहीं ? 

ज्यों बिना म्लेच्छों की चर्चा किये बर्बरता पर बात करना बेमानी है, डिंगल पर बिना चारण जाति के कोई बात करना अकारथ है, त्यों ही राष्ट्ररक्षण में क्षात्र-धर्म निर्वहन की महत् परम्परा पर राजपूत जाति की वर्णना बिना हर बात अर्थहीन है; मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि पक्षपात है।

विश्व की एकमात्र जाति राजपूत है जिसके लिए प्राणों का मोह त्याज्य रहा। भय जिन्हें व्यापा नहीं। रक्त में स्नान करने वाले अद्वितीय यौद्धा और जलती आग में कूद जाने वाली वीरांगनाएं इसी परम्परा की संतानें हैं।

कहने को तो वर्ण जन्मना नहीं, कर्म आधृत है। लेकिन दिल पर हाथ रखकर बताइए कि कितने गैर-राजपूत वाक़ई क्षत्रिय हो पाये? वो नाम बहुत कम हैं, राजपूत वीरों की संख्या के समक्ष वह संख्या लगभग नगण्य है।

मांड गायिकी फलाँ जाति के कारण बची, पशुपालन फलाँ जाति के कारण बचा, यह परम्परा फलाँ जाति के कारण रक्षित हो पायी — यह सब बड़े गौरव से बताया जाता है। लेकिन कोई राजपूत कभी कह दे कि हमारी हजारों पीढ़ियाँ खपी तब जाकर यह राष्ट्र और सनातन ज़िंदा रह पाये तो एक मिनट नहीं लगेगा और हम कह देंगे कि यह राजपूत जातिवादी है। क्या जातीय स्मृति का गौरव गान उनका क़ानूनन अधिकार नहीं ?

सोशल मीडिया पर बड़ी बड़ी बातें करना दीगर है लेकिन विवाह की पहली रात सजी सेज पर सो रही अपनी प्रिया को अकेली छोड़ समर में तलवारों की धार सहना और कटना-काटना अलग बात। सेल्फी में साजन के साथ होना बड़ी बात नहीं, बड़ी बात तो यह है कि लड़ने गया साजन जब पत्नी की स्मृति माँगे और पत्नी अपना शीश काटकर थाली में धर दे। प्रेमी का प्यार पाने के लिए पति का गला काटना कौन बड़ी बात, लेकिन स्वामिभक्ति से च्युत पति के सीने में खंजर उतार देने के लिए सवा सेर अजमा खाना पड़ता है। सेक्युलरिज़्म की बातें आसान है लेकिन दुश्मन का कोई दुश्मन ( वो भी दूसरी कौम का ) शरणागत हुआ तो उसे हर हाल में बचाना चाहे निज-प्राणों पर क्यों न बन आये – यह निभाने की परम्परा है।

राजस्थानी में दूहा भी है –

धर जातां, ध्रम पलटतां, त्रिया पडन्ता ताव।

तीन दिहाड़ा मरण रा, कवण रंक कुण राव।।

धरा, धर्म और त्रिया के लिए खपने में राजपूत का कोई सानी नहीं। राजस्थान के गाँव-गाँव में भोमिया जी और मामा जी के मंदिर क्यों बने हैं ? कौन थे जो लड़े, कौन थे जिन्हें लोक पूजता है ? कौन था जो गायों के लिए प्राण देता ? राजपूत और सिर्फ राजपूत !

गर्व से सिर उठाने के लिए दुश्मन का सिर काटने में झिझकना नहीं और अपना सिर कटने की परवाह न करना – यह हमेशा राजपूत के लिए ही शक्य रहा है।

बुद्ध से लेकर संत पीपा जी तक जितने महान आध्यात्मिक संत है हैं, उनमें से अधिसंख्य राजपूत हैं। ओशो अकारण नहीं कहते कि तपस्या का जो स्टेमिना क्षत्रिय जाति में है, अन्य में नहीं।  राजमहलों का वैभव छोड़ने में एक क्षण नहीं लगाना और संन्यासी हो जाना – यह क्षत्रिय ही कर सकता है।

सियासत कहती है हिन्दू स्त्रियों ने जौहर किया। जबकि सच है कि जौहर क्षत्रिय स्त्रियों ने किया। राणा प्रताप हिंदुओं का अभिमान हैं लेकिन वो राजपूतों के पूर्वज भी हैं। कभी कोई पृथ्वीराज, कोई मिहिरभोज तो कभी राणा पूंजा — हिन्दू हैं यह बात तो पचती है लेकिन उन पराक्रमी यौद्धाओं को किसी और जाति का बताकर वोट लेना; यह क्या बेवक़ूफ़ी है ? राजपूत हैं उन्हें राजपूत कहने में मौत क्यों आती है ? आप राजपूत कहेंगे तो राजपूत ग़ैर-हिन्दू नहीं हो जाएंगे।

जिनके वंशज ज़िंदा बैठे हैं और यह निर्लज सियासत है कि धड़ाधड़ उन महापुरुषों को दूसरी जाति का घोषित कर रही है।

कायर पति के सीने में खंजर उतार देती , आग में कूद पड़ती, घोड़े पर बैठकर रण में तलवार चलाती, पति और पुत्र के भाल पर तिलक कर समर में भेज देती – क्षत्राणी सब नहीं होतीं। डेढ़ सेर काळजा चाहिए।

” प्राण जाहि पर वचन न जाही ” के उदाहरण गांव गांव में भरे पड़े हैं। गरीब बेटियों की शादी करवाना, औरत की अस्मत के लिए भीड़ जाना, ब्राह्मण के लिए ढाल बन खड़ा रहना, अंतिम छोर पर खड़े पिछड़े की भी गुहार सुनना, अपराधी बाप या बेटे को सज़ा देने से भी पीछे नहीं हटना — यह आम बातें हैं ?

फिल्मों ने उन्हें सामन्त बताया तो कम्युनिस्टों ने तानाशाह। लेकिन उनकी महती वंश परम्परा को इससे फर्क नहीं पड़ता।

शेष फिर कभी

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