कमलकांत त्रिपाठी : याद हो कि न याद हो…

उल्लेखनीय है कि दारा शिकोह ने शाहजहाँ के दरबारी संस्कृत कवि पंडितराज जगन्नाथ के मार्ग-दर्शन में और बनारस के कई अन्य पंडितों की सहायता से 50 उपनिषदों का फ़ारसी में ‘सिर्र–इ-अकबर’ (सबसे बड़ा रहस्य) के नाम से अनुवाद किया था.

एक फ़्रांसीसी विद्वान ऐंक्वेटिल डु पेराँ (Anquetil Du Perron) द्वारा फ़ारसी से लैटिन में किए गए इसके अनुवाद से यूरोप उपनिषदों के ज्ञान से परिचित हुआ और शापेनहावर-जैसे जर्मन दार्शनिक इस ज्ञान की अप्रतिम सूक्ष्मता और निरपेक्ष सत्य के प्रति उत्कट आग्रह से प्रभावित हुए. संस्कृत से सीधे यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद बहुत बाद में हुआ.

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आर्थर शापेनहावर ने अपनी विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘The World as Will and Representation’ (जर्मन से अंग्रेजी में अनूदित नाम) में स्वीकार किया कि भारत के ऋषियों ने शायद सत्य को पहचान लिया था.

दारा शिकोह की दुर्लभ फ़ारसी पुस्तक सिर्र-इ-अकबर इलाहाबाद वि वि के इतिहास विभाग के प्रोफ़ेसर ताराचंद (1888-1973) द्वारा अंग्रेजी में लिखित 49 पृष्ठों की भूमिका के साथ प्रकाशित हुई थी जिसे प्रोफ़ेसर ने अपनी ईरान यात्रा के दौरान ईरान के तत्कालीन शाह–मोहम्मद रज़ा‌ शाह पहलवी– को भेंट की थी।

शापेनहावर के माध्यम से ही भौतिकी में नोबल पुरस्कार से सम्मानित आइरिश आस्ट्रियाई भौतिकशास्त्री एरविन श्रेन्दिगर (Erwin Schrodinger, 1887-1961) उपनिषदों और भारतीय वेदांत दर्शन से परिचित हुए थे।

अद्वैत वेदांत के अनुसार परम या विश्व चेतना ही सृष्टि का आदि कारण है और कार्य-कारण संबंध से समस्त सृष्टि में व्याप्त है। नानारूप वस्तुजगत् उसी विश्व चेतना का अध्यास है। वही विश्व चेतना हर मनुष्य की चेतना में प्रतिबिंबित है।

एरविन श्रेन्दिगर क्वांटम भौतिकी के पाश्चात्य वैज्ञानिकों के उस समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसने क्वांटम भौतिकी की बोधगम्यता के लिए मानव-चेतना की समांतर वास्तविकता को अकाट्य पाया और भारतीय उपनिषदों के ज्ञान का उल्लेख करते हुए उसमें निहित चेतना और पदार्थ के अद्वैत के प्रति आदर व्यक्त किया।

श्रेन्दिगर ने 1922 में लिखे अपने एक शोधपत्र में वर्णक्रमीय (spectral) रेखाओं के संदर्भ में सापेक्षी डॉप्लर प्रभाव (जब इलेक्ट्रोन-तरंग का निरीक्षक उसके स्रोत की ओर बढता है, तो उसी के सापेक्ष तरंग की आवृत्ति भी बढ़ती जाती है) पर एक समीकरण विकसित किया। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘जीवन क्या है?’ (What is Life) में श्रेन्दिगर ने आनुवंशिकी (Genetics) और जैवीय परिघटना (phenomenon of life) को भौतिकशास्त्र की दृष्टि से परखा और विज्ञान के दार्शनिक पक्ष पर विचार करते हुए, प्राचीन, पौर्वत्य दार्शनिक एवं नैतिक अवधारणाओं को स्वीकार्य पाया।

श्रेन्दिगर ने मस्तिष्क और पदार्थ (Mind and Matter) विषय पर दिये गए अपने एक व्याख्यान में कहा, “स्थान और समय के आरपार फैला संसार हमारी ही अनुकृति है (यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे?)…यदि संसार वस्तुत: हमारे निरीक्षण-कर्म पर आधारित है तो अरबों संसार होने चाहिए–हम सब का एक-एक संसार। लेकिन ऐसा कैसे हुआ कि हमारा और आपका संसार वही है, एक ही है… वह क्या है जो इन सभी संसारों को एक-दूसरे के समतुल्य बनाता है?” इसी के साथ श्रेन्दिगर ने औपनिषद महावाक्य ‘तत्वमसि’ के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की। श्रेन्दिगर का निष्कर्ष है –“चेतना की व्याख्या भौतिक शब्दावली में नहीं हो सकती क्योंकि चेतना निरपेक्ष रूप से (absolutely) मूलभूत (fundamental) सत्ता है। किसी भी इतर संदर्भ से इसकी व्याख्या नहीं हो सकती।“

पता नहीं, भारत को विश्वगुरु सिद्ध करने को बेताब हमारे वर्तमान पुरोधाओं को आर्थर शापेनहावर के माध्यम से भौतिकशास्त्री एरविन श्रेन्दिगर को प्राप्त औपनिषद ज्ञान और क्वांटम भौतिकी की अद्यतन खोजों के लिए उसकी प्रासंगिकता का कुछ इल्म है या नहीं!

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