के. विक्रम राव : चीन से पराजय की हीरक जयंती !

ठीक साठ साल गुजरे आज (20 अक्टूबर 1962) जब कम्युनिस्ट चीन ने भारत को हराया था। ”चीनी—हिन्दी भाई—भाई” काल के इस माओवादी बिरादर ने माहभर की जंग में 4897 हिन्दुस्तानी जवानों को मार डाला था। सत्रह सौ लापता हो गये थे तथा 3968 को चीन ने युद्धबंदी बना लिया था। करीब 15,000 जवान मोर्चा छोड़ आये थे। चीन ने 38,000 वर्ग किलोमीटर भूमि पर आज तक अवैध कब्जा बना रखा है। इसमें लद्दाख और अरूणाचल की जमीन भी है।

कैसा संयोग है कि आज ही सन 1568 में अकबर ने राणा प्रताप के चितौड़ पर हमला किया था। मुगल फौज के सेनापति थे बादशाह के साले और आमेर राज के कुंवर मान सिंह।

भारत से युद्ध के दौरान ही चीन ने कैलास—मानसरोवर भी हथियाया था। तो सुझाव मिला है कि राहुल गांधी अपनी ”भारत जोड़ो” यात्रा को कश्मीर पहुंचकर मानसरोवर तक बढ़ा लें। वे स्वयं चीन के विशिष्ट मेहमान बनकर (31 अगस्त 2018) मानसरोवर पन्द्रह रोज के लिये गये थे। चीन से वीजा लेकर। युगों से हर भारतीय निर्बाध तीर्थयात्रा करता रहा। अत: राहुल कटे हुये भारतीय कैलाश की भूभाग को जोड़ सकते हैं।

चीन से सीमा युद्ध की हार भारत के लिये पानीपत के तीनों युद्धों से भी कहीं ज्यादा शर्मनाक, घृणास्पद और दयनीय रही। इसी गम में जवाहरलाल नेहरू उन्नीस माह बाद ही मर गये। राष्ट्रपति डा. सर्वेपल्ली राधाकृष्णनन ने भारत की हार को ”लापरवाही तथा अतिविश्वास” का परिणाम बताया था। चीन की दोस्ती पर अंधा भरोसा करके। चीन की जनमुक्ति सेना पूर्वोत्तर पर चढ़ आयी थी। तब कोलंबो में निर्गुट राष्ट्रों के सम्मेलन में जाते हुये बम्बई में नेहरू (23 अक्टूबर 1962) रूके थे। प्रधानमंत्री ने दृढवाणी में मीडिया को आश्वस्त किया था कि उन्होंने भारतीय सेनापति जनरल प्राणनाथ थापर और कमांडर ब्रजमोहन कौल को हुकुम दे दिया है कि चीन के घुसपैठियों को भारतीय सीमाभूमि से खदेड़ दो, खाली करा लो। नेहरू द्वारा नामित इस कश्मीरी जनरल को कभी भी आशा नहीं थी कि भ्राता चीन आक्रमण करेगां चूंकि वे केवल सेना के रसद का काम ही किया करते थे। उन्हें रण का ज्ञान नहीं था। परिणामत: उन्हें पूर्वी मोर्चे पर सिवाय पलायन के कुछ सूझा ही नहीं।

तब 14,000 फिट ऊंचाई पर बर्फीले पर्वत पर शून्य से कम के तापमान में भारतीय सैनिक सूती मोजे और एक हल्की जर्सी (स्वेटर) पहने पुराने शस्त्रों के साथ चीन के आधुनिक हथियारधारी सैनिकों का मुकाबला कर रहे थे। पर्याप्त बारुद तक नहीं मिला था। नेहरू का मानना था कि यह सीमा की मामूली तकरार है। जब तक युद्ध का पता चला चीन जीत चुका था। तभी कमांडर कौल ठण्ड से ग्रसित हो गये। छुटटी लेकर दिल्ली लौट आये। नाराज सैनिक कमांडर विरोध नहीं कर पायें क्योंकि जनरल कौल नेहरू तथा रक्षामंत्री वीके कृष्ण मेनन के चहेते रहे। कोई सुननेवाला ही नहीं था। तभी की बात है, इस्राइल ने भारत को शस्त्र की मदद करने की पेशकश की। जवाहरलाल नेहरू को खौफ था कि यहूदी इस्राइल से मदद स्वीकारने के मायने है कि करोड़ों भारतीय मुसलमान वोटर खफा हो जाते। अत: प्रधानमंत्री ने शर्त रखी कि इस्राइली शस्त्रों पर उत्पादक राष्ट्र का नाम मिटा दिया जाये। जो हवाई जहाज शस्त्र लेकर भारत आयें उस पर इस्राइल का झण्डा नहीं लगेगा। इस्राइल ने दोनों शर्त अस्वीकार कर दी। तब भयभीत नेहरू ने एक ही दिन में दो पत्र अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन कैनेडी को लिखे। वायु सेना, गोला— बारूद आदि की लम्बी सूची भेजी। वाशिंगटन में भारत के राजदूत और प्रधानमंत्री के सगे भतीजे ब्रज कुमार नेहरू अपनी आत्मकथा में लिखते है कि पहले वे चाचा के पत्रों को राष्ट्रपति कैनेडी को देना नहीं चाहते थे। भाषा में गिड़गिड़ाहट थी, क्रंदन जैसी। फिर विवश होकर दे दिया।

समस्त विवरण पूरा करने हेतु दो पात्रों की खबर देने की सरि खास अनिवार्यता है। आर्मी चीफ (प्रथम सेनाध्यक्ष) जनरल प्राणनाथ थापर थे। उनमें रणभूमि के अनुभव की काफी कमी थी। तभी रिटायर हो रहे सेनाध्यक्ष जनरल केएस थिमय्या ने उपसेनाध्यक्ष जनरल शंकर पांडुरंग पाटिल—थोरट को सेनाध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया था। थोरट तब पूर्वी कमान (तिब्बत सीमावर्ती) के कमांडर भी थे। मुझे याद है जनरल थोरट का मुख्यालय सदर छावनी, लखनऊ में होता था। उन्हें मैं लखीमपुर के युवराजदत्त स्नाकोत्तर कॉलेज के वार्षिकोत्सव में मुख्य अतिथि बनाकर (फरवरी 1961) में ले गया था। तब मैं वहां लेक्चरार था। मगर नेहरू और उनके रक्षामंत्री कृष्ण मेनन ने बजाये रणबांकुरे जनरल थोरट के अपने चहेते जनरल प्राणनाथ थापर को सेनाध्यक्ष नामित किया। इन जनरल थापर ने युद्ध में आसन्न पराजय के कारण कुछ माह बाद ही (19 नवम्बर 1962) पद त्याग दिया। असली रणछोड़ साबित हुआ। जनरल थापर के ही पुत्ररत्न है टीवी पर बड़बोले टिप्पणीकार करन थापर। इन्हीं कायर जनरल की भतीजी है मार्क्सवादी इतिहासकार रोमिला थापर जो भारतीय इतिहास को विकृत करने में ख्यात है।

अब ​विशेष उल्लेख हो महाखलनायक और प्रधानमंत्री को गुमराह करनेवाले उनके रक्षामंत्री वीके कृष्ण मेनन का। जनरल हेंडर्सन ब्रुक्स ने चीन से हार अपनी जांच रपट में सारा दोष इस मेनन पर लगाया है। यह मंत्री सैन्य अधिकारियों से हुयी वार्ता का ब्यौरा ही कभी भी नहीं रखते थे। अर्थात गंभीर निर्णय की जिम्मेदारी किस पर हो ? इसका खामियाजा यह हुआ कि नाकारे और दोषी अफसर दंडित नहीं हो पाये। रक्षामंत्री प्रधानमंत्री को भ्रमित करते रहे कि समाजवादी चीन कभी भी हमला नहीं कर सकता है। युद्ध का खतरा इस्लामी पाकिस्तान से है। तभी मार्शल अयूब खां ने भारत—पाक सैन्य मैत्री संधि की पेशकश की थी। उसे नेहरू ने खारिज करते हुए कहा : ”हमले का खतरा तो आपसे है। आपसे कैसी संधि ?”

कृष्ण मेनन कम्युनिस्ट थे जब वे लंदन में रहते थे। आचार्य जेबी कृपलानी से मेनन उत्तर बम्बई लोकसभा चुनाव में मार्च 1962 हार ही गये थे। पर तभी नेहरू ने भारतीय सेना को भेजकर पुर्तगाली उपनिवेश गोवा को मुक्त करा लिया। इससे बम्बई के गोवावाले वोटरों ने मेनन को ​जिता दिया। नैतिक सवाल उठा था कि अहिंसक युद्ध से समूचे राष्ट्र को स्वतंत्र कराने वाले भारत ने वामनाकार गोवा के लिये सेना भेजी ?

चीन से पराजय के तुरंत बाद राष्ट्रव्याएपी मांग उठी कि जवाहरलाल नेहरू पद छोड़ें। मगर रक्षामंत्री को बकरा बना कर नेहरू ने उन्हें बर्खास्त कर दिया। खुद पदासीन रहे। मगर दिली आघात पड़ा जो भयंकर था। भाई चीन के धोखे से नेहरू लकवाग्रस्त हो गये। अट्ठारह माह बाद वे दिवंगत हो गये!

संसद में नेहरू हमेशा एक वचन ”मैं” का प्रयोग करते थे। मगर पराजय के डिबेट पर बोलते उन्होंने बहुवचन ”हम” का प्रयोग किया। मानों सामूहिक दायित्व हो, अकेले उनका नहीं। तभी सदन को आश्वस्त करते नेहरू ने कहा भी था कि जो भूभाग चीन ने कब्जियाया है वहां ”उस बंजर पर्वतीय भूमि पर घास का तिनका तक नहीं उगता है।” इस पर पूर्व रक्षा राज्यमंत्री और सीनियनर कांग्रेसी सांसद महावीर त्यागी ने लोकसभा में टोका : ” तो मेरी गंजी खोपड़ी भी चीन को दे दीजिये।”

एकदा किसी सांसद का सवाल था कि कितनी भूमि चीन के कब्जे से मुक्त करा ली गयी है ? तो एक नाराज सत्तासीन सांसद ने कह दिया : ”उस हेस्टिग्स रोड पर स्थित बर्खास्त रक्षामंत्री कृष्ण मेनन का मकान भी अभी तक खाली नहीं करा पायी यह सरकार।” तुर्रा यही कि हेस्टिंग्स रोड का नाम अब कृष्ण मेनन मार्ग कर दिया गया हे। अब इतिहास तय करे नेहरू और उनके ग्रुप की क्या भूमिका रही भारत के पराजय में। बालाकोट को याद करते हुये।

K Vikram Rao
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के. विक्रम राव Twitter ID: @Kvikramrao

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