बिपिन पांडे : कांतारा.. आदिवासी समुदाय द्वारा विष्णु के तीसरे अवतार की पूजा.. विराट संघर्ष गाथा…
देश भर में धूम मचा रही ‘कांतारा’ फिल्म दर्शकों के लिए एक विजुअल ट्रीट है । दक्षिण के फिल्म उद्योग ने एक और मास्टरपीस तैयार किया है । निर्देशक और अभिनेता ने जिस तरह से इस फिल्म में जान डाल दी है वह थियेटर में देखने लायक है । जी हाँ यह फिल्म तो थियेटर में ही देखनी चाहिए।

कहानी का प्लाट बेशक पुराना है पर जिस तरह से इसमें स्थानीय आदिवासी मान्यताओं का समावेश किया गया है वह इसे ज्यादा विश्वनीय बना देता है।
कहानी का प्लाट 1847 से लेकर 20 सदी के अंत तक फैला हुआ है । जिसमे एक राजा है जो मन की शान्ति के लिए अपनी जमीन वहां के आदिवासियों को दे देता है और उनके देवता को अपने यहाँ लाता है । समय बदलता है, राजा के वंशज अब अपने जमीन की बढ़ती कीमतों को देखकर उसे वापस पाना चाहते हैं और दूसरी तरफ सरकारें वन्य जीव संरक्षण कानून के तहत जंगलों से, जमीनों से आदिवासियों का दखल समाप्त करना चाहती हैं।
देखा जाए तो सत्ता और नागरिक के मध्य यह संघर्ष सतत चलता रहा है। संसाधनों की लूट में कैसे-कैसे मोड़ आते हैं, कैसे एक समुदाय की आस्था पर चोट किया जाता है और फिर समुदाय कैसे उठ खड़ा होता है इसी की कहानी है कन्तारा।
एक संवाद याद आ रहा जिसमे फारेस्ट अधिकारी कहता है कि यह जमीन सरकार की है तो नायक कहता है हम यहाँ सरकार के आने से पहले से रह रहे हैं।
वैसे कंतारा का मतलव होता है जादुई जंगल । कर्नाटक का एक आदिवासी समुदाय विष्णु के तीसरे अवतार वाराह के स्वरूप की पूजा करता है, पूजा करने वाला एक पुजारी (देव होता है) । यह देव ही बाहरी दुनिया से उनकी रक्षा करता है । ऋषभ शेट्टी ने इस फिल्म का निद्रेशन भी किया है और मुख्य भूमिका का निर्वहन भी । जब वे देव की भूमिका में आते हैं और स्थानीय नृत्य करते हैं तो देखने लायक होते हैं । ऐसा लगता है मानों किरदार में समा गए हैं।
इस फिल्म की सिनेमेटोग्राफी गजब की है । स्थानीय मान्यताओं के इतने रंग इसमें दिखते हैं कि आँखे चाहती हैं कि पर्दे पर दृश्य बस चलता रहे । यह अबतक की सबसे ज्यादा रेटिंग वाली कन्नड़ फिल्म भी बन गयी है । केवल क्लाइमेक्स ही आपका पैसा वसूल करने का सामर्थ्य रखता है, बाकी फिल्म तो बोनस मानकर चलिए… निसंदेह यह फिल्म देखी जानी चाहिए।
