योगी अनुराग : तोताचश्मी
अक़्सर विचारता था कि पीएम मोदी फ़्रेमलेस चश्मा क्यों लगाते हैं? अंततः ज्ञात हुआ कि चश्मे का ये विशेष फ़्रेम, “तोताचश्म” निगाहों को गुमराह करने के लिए चुना गया है।
उन “तोताचश्म” निगाहों के भटकाव के लिए, जिन्हें “पीएम का चश्मा” तो दिखाई देता है, मग़र अपने ऐतिहासिक रहनुमा मुगलों में से एक “शाहजहाँ” का चश्मा नज़र नहीं आता।
गौरतलब है कि “शाहजहाँ” के चश्मे का एक शीशा हीरे व दूसरा शीशा पन्ने से बना था!
किन्तु कोई “तोताचश्म” निगाह, न ही कोई सो कॉल्ड “इंटलेक्चुअल” ब्रेन, “शाहजहाँ” के इस चश्मे का मूल्य निश्चित करने आगे आया। और न ही ये स्पष्ट किया गया कि ये वे दोनों बहुमूल्य रत्न अरब के किस रेगिस्तान की खुदाई में मिले थे।
वस्तुतः चश्मा शब्द ही संस्कृत की “चश्” या “चष्” धातु से बना है। हालाँकि परिष्करण के आग्रह में, चश्मे को “उपनेत्र” कहकर पुकारा जाता है, किंतु दोनों ही शब्दों में फारसी-अरबी योगदान शून्य है।
शब्द “चश्मा” भी हमारा है और “उपनेत्र” भी!
बहरहाल, बहरकैफ़।
ये पहला मौक़ा नहीं है, जब राष्ट्रप्रमुख के चश्मे पर ज़ुबानी जंग छिड़ गई हो। निकट इतिहास में झांक कर देखा जाए, तो तकरीबन पाँच साल पहले फ्रांसीसी राष्ट्रपति “फ्रांस्वां हॉलैंडे” भी चश्मा-चिंतन में उलझाए जा चुके हैं।
अव्वल तो जनाब “फ्रांस्वां” का नाम बहुत दिलचस्प है, पढ़ते बोलते सुनते समग्र डच-फ्रांसीसी इतिहास कुरेद जाता है। डच साम्राज्य, यानी कि वर्तमान नीदरलैंड्स (हॉलैंड), फ्रांसीसी साम्राज्य का आप्त शत्रु रहा है। मग़र ये दोनों नाम “फ्रांस्वां हॉलैंडे” के नाम में एकीकृत हो जाते हैं।
ऐसे ही एक एकीकरण का प्रयत्न, “फ्रांस्वां” ने अपने चश्मे के जरिए करने का प्रयत्न किया था!
जनाब “फ्रांस्वां” एक फ्रेंच-मेड चश्मा मोंट ब्लांक एमबी-0474 लगाते थे। एक रोज़ उनका चश्मा बदल गया। अब उनके चेहरे पर एक फ़्रेम्ड चश्मा था। विपक्ष के “तोताचश्मों” ने जान लिया कि ये डच-मेड चश्मा है, मूल्य क़रीब डेढ़ हज़ार डॉलर।
मसला ये नहीं था कि चश्मा फ़्रेम्ड है या फ़्रेमलेस। ये भी नहीं कि चश्मे की क़ीमत डेढ़ हज़ार डॉलर है या डेढ़ लाख डॉलर। मुद्दा केवल ये था कि चश्मा डच-मेड क्यों है? चश्मा लिंडबर्ग क्यों है? चश्मे पर अग्रणी डच निर्माता चंकियर डेनिश का लोगो क्यों है?
और ये सब विवाद इसलिए, चूँकि डच फ्राँस का बड़ा प्राच्य शत्रु रहा है! सत्रहवीं सदी के पतन में, दोनों के बीच बड़ा भारी युद्ध भी हुआ था।
हालाँकि जो लोग इस चश्मे का विरोध कर रहे थे, अतिशय राष्ट्रभक्ति दिखा रहे थे, वे सब किसी न किसी मौक़े पर तमाम यूरोपियन राष्ट्रों के बीच सीमाओं का विरोध करते थे, गाहे-ब-गाहे फ़्रेंच संसद में डच पक्ष का गुणगान करते थे।
बताने की आवश्यकता नहीं कि ये दोगले लोग वामशास्त्र के विद्यार्थी थे, महात्मा मार्क्स के शिष्य!
और वर्तमान भारत में, ठीक ठीक यही गुण फ़ेबियन कांग्रेसी भी सीख गए हैं। विरोध में भी पश्चिमी जूठन का सेवन करते हैं। कोई मुद्दा नहीं तो चलिए पीएम के चश्मे कोई ही लक्षित किया जाए।
ऐसा नहीं है कि दुनिया के तमाम राजनेता चश्मा नहीं लगाते। अवश्य लगाते हैं! किंतु उनके सद्भाग्य हैं कि उनके यहाँ का विपक्ष इतना बेवक़ूफ़ नहीं होता।
बराक ओबामा “नाइकी” का चश्मा लगाते थे, शी जिनपिंग “रे-बैन” का। पूँजीवादी और साम्यवादी छोरों से कोई आवाज़ उठी? कभी भी नहीं!
ब्रितानी डेविड कैमरून और कोरियाई किम जोंग, दोनों “सवाना” का चश्मा लगाते हैं, मगर कहीं कोई ज़िक्र तक नहीं। एंजेला मार्कल “ऑप्टिमायइज़” का चश्मा लगाती थीं, वो भी इतिहास में अनुल्लिखित है।
जाहिर है, उन देशों में किसी स्थितिजन्य विरोध में भी पश्चिमी झूठन का सेवन करने वाला कांग्रेसी विपक्ष नहीं है, फेबियन अपोजिशन नहीं है। अस्तु, ये राष्ट्र अपने प्रमुख का सम्मान करते हैं, उसके और उसके चश्मों के विरुद्ध “तोताचश्मी” नहीं करते!
इति।