राजीव मिश्रा : विषैला वामपंथ.. मां मुझे बंदूक दिला दो, दुश्मन को मार भगाऊंगा…
एक मैडम शिक्षिका हैं. वे बच्चों को एक ट्रेनिंग कैंप में कविता के माध्यम से गतिविधि करा रही थीं. कविता की आखिरी पंक्ति थी – मां मुझे बंदूक दिला दो, दुश्मन को मार भगाऊंगा…
एक अभिभाविका ने उसपर आपत्ति करते हुए एक पोस्ट लिखी है… बच्चों को इतनी छोटी उम्र से बंदूक उठाने की बात सिखाने का क्या उद्देश्य है? इस उम्र में बच्चे को दया, प्रेम और मानवता की कविताएं पढ़ाई जानी चाहिए. पहले बच्चे को दुश्मन की समझ बनाने के लिए परिपक्व तो हो लेने दीजिए…
मैडम ने मुझसे पूछा, क्या बच्चे को बंदूक उठाने की कविताएं पढ़ाने में कुछ गलत है? आखिर बच्चा ही भविष्य का सैनिक है…
आपका अपना मंतव्य क्या होगा नहीं पता, पर मेरी दृष्टि में बच्चे को बंदूक उठाने की बात पढ़ाने में कुछ भी गलत नहीं बल्कि यह आवश्यक भी है. बच्चों में बचपन में न्याय और अन्याय का, सही और गलत का बोध हमसे अधिक प्रबलता से और ब्लैक एंड व्हाइट होता है. दो साल का बच्चा सबसे अधिक जिद्दी होता है. बारह तेरह वर्ष के बच्चे सबसे अधिक विद्रोही होते हैं. बच्चों में जिद करने की प्रवृति एक सहज और सामान्य ही नहीं, एक आवश्यक बात होती है. यह उसके व्यक्तित्व के विकास का एक स्टेज होता है. यह वह समय है जब वह सही और गलत की अपनी सीमित समझ के बावजूद अपना स्टैंड बनाना सीखता है. मैंने देखा है, जो बच्चे बचपन में बिल्कुल आज्ञाकारी, माता पिता की हर बात मानने वाले होते हैं वे बड़े होने पर सबसे अधिक भटकते हैं, क्योंकि जब वे अपने पीयर ग्रुप में जाते हैं तो उनकी हर बात मानने लगते हैं. उनमें अपने स्टैंड पर टिकने की प्रवृति विकसित ही नहीं होती. एक बच्चा जो बालावस्था में अधिक जिद्दी और विद्रोही वृति का दिखाई देता है वह अक्सर बड़े होकर सबसे सभ्य और सौम्य बन जाता है.
लेकिन जब उम्र के साथ परिपक्वता आती है तो उसमें सही और गलत का बोध इतना ब्लैक और व्हाइट नहीं रह जाता. उसकी दृष्टि में ग्रे के शेड्स डेवलप करने लगते हैं. यह बोध उम्र के साथ आता है, लेकिन उसके बीच अपना पक्ष चुन कर उसके लिए स्टैंड लेने की प्रवृति और साहस पहले आता है. अगर सत्य और न्याय के लिए बंदूक उठाना पड़े, तो उठाना ही होगा…खास तौर पर तब जब दुश्मन सशस्त्र हो. फौज में भी जब ट्रेनिंग देते हैं तो पहले बंदूक चलाना सिखाते हैं. दुश्मन की पहचान तो युद्ध क्षेत्र में पहुंचने पर होती है. दुश्मन बदल भी सकते हैं, पर शस्त्र का प्रशिक्षण हमेशा उपयोगी है. साहस व्यक्तित्व का भाग है, और व्यक्तित्व का निर्माण बचपन से ही होने लगता है. वयस्क होने तक व्यक्तित्व लगभग निर्मित हो चुका होता है. परिपक्वता बाद में आती है. आप व्यक्तित्व निर्माण के लिए इस परिपक्वता की प्रतीक्षा नहीं कर सकते.
वामपन्थी यही प्रयास करते हैं कि बच्चे के व्यक्तित्व में यह साहस निर्मित ही न हो सके. इसलिए वे बचपन में बच्चों के बंदूक से खेलने तक के विरुद्ध बोलते हैं (हालांकि उन्हें अवसर मिलने पर इन्हीं बच्चों के हाथ में सचमुच की बंदूक पकड़ाने में जरा भी संकोच नहीं होता). वहीं जिस समय बच्चा सही और गलत में भेद करना सीख रहा होता है उस समय वे उसके मस्तिष्क में ग्रे के शेड्स इंट्रोड्यूस कर देते हैं. उसके मानस में नैतिक और अनैतिक का भेद खत्म कर देते हैं…उसे यह समझाते हैं कि नैतिक और अनैतिक जैसा कुछ नहीं होता, यह एक सोशल कंस्ट्रक्ट है.
वामपन्थ सिर्फ एक पॉलिटिकल, सोशल और इकोनॉमिक फिलोसॉफी ही नहीं है. वे उससे आगे जाकर मानव मनोविज्ञान का गहरा अध्ययन करते हैं. बल्कि मनोविज्ञान एक ऐसा विषय है जिसके अध्ययन की मोनोपॉली बिल्कुल वामियोंं के हाथ में हैं. और जैसे वे समाज के विकास की प्रक्रिया से छेड़छाड़ करते हैं, बिल्कुल उसी विधि से वे व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया से भी छेड़छाड़ करते हैं. उनका उद्देश्य एक ऐसे मनुष्य के निर्माण का है जो उनके लिए आसान कच्चा माल, उनका कैनन फॉडर हो. जिसे आसानी से पालतू और गुलाम बनाया जा सके.