दरबारी पत्रकार बनाम गोदी पत्रकार

टीवी चैनलों, अखबारों, पत्रिकाओं, यू-ट्यूब या कोई भी ऐसी जगह जहाँ दुनिया से संबंधित कोई सूचना भारतीय या भारतीय मूल के व्यक्ति द्वारा डाली जाती हैं। 2014 के बाद से उसे देखने का एक नया नज़रिया हमारे देश में विकसित हुआ, ऐसा नहीं हैं। कि इस नज़रिए को विकसित करने वाले, बिल्कुल निष्पक्ष लोग हैं। बल्कि ये वे लोग हैं। जिन्हें 2014 से पहले दबी आवाज़ में दरबारी पत्रकार कहा जाता था और ऐसा भी नहीं हैं। कि इन्हें दरबारी पत्रकार कहने वाले निष्पक्ष हैं। ये वो हैं। जिन्हें पहले तो नहीं पर अब गोदी मीडिया कहा जाता हैं।वैसे ये मत सोचना की गोदी मीडिया के आने से दरबारी पत्रकारों की संख्या घट गई हैं। बल्कि पहले से ज्यादा हो गई हैं। बस अंतर इतना हुआ हैं। कि इनकी आवाज़ सुनने वाले कम हो गए हैं।

आइए पहले इन दोनों तरह के पत्रकारों की दोनों श्रेणियों के बारें में जानें।

दरबारी पत्रकार

इस श्रेणी में वो पत्रकार आते हैं। जिन्हें कांग्रेस के समय पर तवज्जो मिलती थी। इनका राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री आवास, संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट सभी में बिना रोक-टोक आना जाना था, देश में कोई भी निति बन रही हो, इन दरबारी पत्रकारों से सलाह मशवरा किया जाता था। विदेशों के दौरे पर ये मंत्रियों के साथ सलाहकार के तौर पर जाते थे, कौन सी कैबिनेट किस मंत्री को दी जाएगी, उसे तय करने में इनकी पूरी एक लॉबी होती थी।, कई बार तो सरकारी पैसे से इन्हें न्यूज-चैनल, अखबार, पत्रिकाओं के दफ्तर तक खोल कर दिए जाते थे। ताकि ये पूरी तरह से आज़ादी से अपने मानसिक विचार फैला सकें। देश के जनता को क्या दिखाना हैं। क्या नहीं, सब इन्हीं के हाथों  में होता था। लेकिन 2014 के बाद से इनकी जिंदगी में ये सब नहीं हो रहा, इसलिए ये परेशान हैं।

दरबारी पत्रकारों का चरित्र; ये जितने भी पत्रकार हैं। सारे बड़े शहरों में रहते हैं। जिसे भारतीय संस्कृति कहते हैं। उससे इनका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं होता हैं। ये बचपन में कॉन्वेंट स्कूलों में, बड़े होने पर JNU जैसी यूनिवर्सिटी में, और अपने जीवन की कोई एक डिग्री विदेशी यूनिवर्सिटीज से करते हैं। ये मत सोचना कि ये बहुत मेहनती होते हैं। इसलिए इन्हें ये सब हासिल होता हैं। बल्कि इन्हें ये सब इस कारण मिल जाता हैं। कि इनके माँ-बाप पहले से चाटुकारिता की ज़िंदगी में जी रहे होते हैं। और इनके माँ-बापों ने ये जिंदगी एक लंबे अरसे के दोगलेपन, भ्रष्टाचार करने के बाद हासिल की हुई होती हैं।

ये इंग्लिश बोलते हैं। लेकिन नार्मल नहीं, बल्कि सॉफिस्टिकेटेड इंग्लिश बोलते हैं। बढ़िया सूट-टाई अंग्रेजों की तरह दिन के 16-17 घण्टे अपने बदन पर पहन कर रखते हैं। पानी की जगह व्हिस्की, और खाने के तौर पर फ़ास्ट फ़ूड इनकी दिनचर्या का हिस्सा होता हैं। हर दो महीने बाद सरकारी खर्च पर विदेश में छुटियाँ मनाते हैं।, बच्चें इनके विदेशों के बढ़िया स्कूल में पढ़ते हैं।

पत्रकारिता का मतलब इनके लिए A.C रूम में बैठकर, जो इनके मुताबिक नहीं हैं। उस पर सवाल खड़ा करना हैं। यूँ तो देश की रत्ती भर इन्हें चिंता नहीं होती, लेकिन चेहरे पर देश की चिंता के भाव जगाने के लिए जबरदस्ती सिगरेट पीना इनकी जीवनशैली का हिस्सा होता हैं। ये खुद को साहित्य पढ़ने का शौकीन बताते हैं। लेकिन साहित्य के नाम पर केवल लाल क्रांति के अलावा इन्हें कुछ पता नहीं होता। वैज्ञानिक उपागम, तर्क, सही बात क्या होती हैं। इस बात से इनका दूर-दूर तक लेना-देना नहीं होता। लेकिन अपने इस बिना सिर-पैर के ज्ञान को अभिव्यक्त करने का तरीका इनके पास इतना बढ़िया होता हैं। कि कोई भी दूसरा इनका मुकाबला कर नहीं पाता, इसलिए ही ये समाज में अपनी दावेदारी हमेशा ही रखते हैं। और समाज भी इनकी दावेदारी को स्वीकार करता हैं।

गोदी मीडिया

 ये पत्रकारिता की दुनिया में नई पैदा हुई भीड़ हैं। राष्ट्रवाद से लबालब भरी हुई, कई बार तो लगता हैं। कि ये नाश्ते, लंच, डिनर में भी खाने की जगह राष्ट्रवाद खा रही हैं। पर इनके साथ एक समस्या हैं। ये काम तो गोदी मीडिया बनकर करना चाहते है। लेकिन इन दो शब्दों का तमगा लेने से इनकार करते हैं। और जैसे ही इन्हें कोई इस नाम से पुकारता हैं। ये बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं। इसलिए ही इन्हें बीच-बीच में इनकी समर्थक सरकार द्वारा हुड़की दी जाती हैं। जिसे ये टॉनिक समझते हैं। और जब इनके साथ ऐसा होता हैं। तो ये और ज्यादा मुखर होकर राष्ट्रवाद का गीत गाने लगते हैं। वैसे ये अभी तक इतने बड़े और वफादार नहीं हुए। कि सरकार इन्हें अपनी हार बात में शामिल करें, इनसे सलाह मशवरा करें। लेकिन काम हो जाने के बाद पहली खबर इन्हें ही दी जाती हैं। और ये उस खबर को राष्ट्रवाद का तड़का लगाकर अपने दर्शकों के सामने परोसते हैं। इन्हें अलग से चैनल खोलकर नहीं दिए जाते, लेकिन प्रसारण की दुनिया में जो चैनल मौजूद हैं। उनकी रूपरेखा ऐसी कर दी जाती हैं। ताकि इनके काम में कोई दुविधा ना पड़े और ये चिल्ला-चिल्ला कर अपने हिसाब से तय किया हुआ राष्ट्रवाद बेच सकें।

गोदी मीडिया का चरित्र चित्रण; ये जितने भी पत्रकार हैं। छोटी जगह से आकर बड़े शहरों में रहने लगे हैं। भारतीय संस्कृति से लेना-देना तो इनका भी कुछ नहीं हैं। पर अभी इन्हें खुद को भारतीय कहने पर शर्म आनी शुरू नहीं हुई हैं। इसलिए कई बार ये हमें अच्छे भी लग सकते हैं। पर इस बात से दिग्भ्रमित मत होना, क्योंकि बेसिक शिक्षा के बाद डिग्री वाली पढ़ाई इनकी भी जेएनयू जैसी यूनिवर्सिटी से ही हुई हैं। इसलिए ये कभी भी अपना पाला बदल सकते हैं। वैसे आगे की पढ़ाई करने का मन इनका भी विदेश से ही होता हैं। पर किसी वजह से ये इस काम को कर नहीं पाते हैं।, इसलिए इनकी फिर सारी उम्मीदें अपने बच्चों से हो जाती हैं। इसलिए ये उन्हें विदेश में पढ़ने के लिए भेज देते हैं। यानी कि एक पीढ़ी के राष्ट्रवादी पत्रकार की अगली पीढ़ी वामपंथी की जमात में खुद पर खुद अपनी जगह तलाश लेती हैं।

माहौल के हिसाब से इन्होंने भी सूट-बूट पहनना सिख लिया हैं। खाना क्या खाना हैं। इसमें अभी भी भारतीय हैं। पर भाषा में दोगलापन साफ-साफ दिखलाई पड़ता हैं। यानि कैमरे के पीछे इंग्लिश और कैमरे के आगे भारतीय भाषा बोलना इनकी खासियत होती हैं। ये छुटियाँ मनाने विदेश अपने खर्चे पर ही जाते हैं। पर विदेश के नाम पर यूरोप का इस्तेमाल करना अभी इनका शुरू नहीं हुआ हैं। और एशिया के ही समुद्री किनारों पर ये घूमने जाते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा पर ये साथ में सरकारी खर्चे या चैनल के खर्चे पर साथ लग लेते हैं।

रिपोर्टिंग के नाम पर ये भी A.C ROOM में ही बैठते हैं। पर बीच-बीच में ये आपको ग्राउंड पर भी दिखेंगे, पर वो ग्राउंड बिल्कुल देहात नहीं होगा। वो अच्छा खासा बाजार होगा, ऊंची इमारतों के साथ, लोगों की भीड़ से अटा हुआ। ये देश की चिंता चिल्लाकर, आँखों में आँसु लाकर प्रदशित करते हैं।, बड़ी बहस जैसे प्रोग्राम करना इनकी खासियत होती हैं। जिसमें ये अपनी मर्ज़ी से राष्ट्रवाद का सर्टिफिकेट बाटते हैं।

आजकल दोनों की स्थिति; आजकल दरबारी पत्रकारों की स्थिति गर्त में हैं। और गोदी पत्रकारों की उफान पर, आखिर सरकार भी तो गोदी मीडिया वालों की हैं। लेकिन फिर भी दरबारी पूरी कोशिश में हैं। कैसे भी हो, सरकार को बदला जाए। और अपने पुराने दिन वापस लाए जाए। पर अफसोस ऐसा कुछ हो नहीं रहा और दूसरी तरफ गोदी मीडिया ने इनकी पूरी तरह तबीयत खराब कर रखी हैं। जिससे ये हमेशा झुंझलायपन की अवस्था में रहते हैं। और आए दिन मानसिक दिवालियापन ली स्थिति में जाते जा रहे हैं। जिसके चलते ये आलोचना की भी आलोचना करने लगें हैं। ऊपर से समस्या यह हैं। कि इन्हें सुनने वालों की तादात भी लगातार घटती जा रही हैं। और अगर ऐसा ही आने वाले दस सालों तक और चला तो इनकी हालत बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसी हो जाएगी।

साभार : चिंटू (जितिन त्यागी)

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