ये कम्बख्त मन जो जो न करा दे ! …बुद्धिविलास/जयराम शुक्ल

व्यंग, निबंध, लेख तो रोज पढ़ते हैं, आज मेरा प्रवचन पढ़ें। प्रवचन पवित्र शब्द है जो आत्मसात करने की बजाय दूसरों को सुनाने के काम आता है। काम- क्रोध- मद- मोह- लोभ पर प्रवचन देने वालों में कई आज भले जेल में हों पर उनके वचन निर्दोष व शाश्वत हैं। आप पूछ सकते हैं कि हजारों, लाखों के समागम में अच्छी बात कहने वाले खुद ही गड्ढे में क्यों गिर जाते हैं?

  (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

उसके पीछे है मनुष्य का यही बेईमान मन, जिस पर इच्छाएं वैसे ही सवार होती हैं जैसे कि आर्टलरी के टैंक में फौजी।

मन बड़ा चिविल्ला, बड़ा शैतान है, इच्छाओं को वहीं भड़काता है। हमारे आचरण और संव्यवहार की लगाम उसी के पास होती है। वह सभी इंद्रियों का कैप्टन है। हमें वही हाँकता है।

यदि पूछा जाए कि शरीर के अंगों और चेतनाओं में सबसे गंदा क्या? तो सहज बुद्धि जाएगी मलमूत्र द्वार। यथार्थ यह कि यही वे द्वार हैं जो मन से संचालित नहीं होते। शरीर में इससे अनुशासित कोई और नहीं।

तो फिर मन का क्या..? क्या वाकई में यह इतना गंदा है! नहीं यह अच्छा भी है गिरगिट की तरह जो अपना रंग और नेताओं की तरह ढंग बदलता रहता है। ये रंग ढंग अच्छे के लिए भी हो सकते हैं।

मन और बुद्धि की अदावत शायद मनुष्य के अस्तत्व के साथ ही शुरू हुई होगी। बुद्धि- विवेक कहता है ऐसे मत करो..मन जवाब देता मैं तुम्हारी बकवास में आने वाला नहीं।

हम सिंगरेट फूँकते हैं, तंबाकू खाते हैं, शराब पीते हैं, इनके रैपरों में कैंसर का कितना खतरनाक चित्र होता है। समान्यतः वैसे मरीज को साक्षात् देख लें तो बेहोश हो जाए। बुद्धि-विवेक कहता है गलत है बेटा..मर जाएगा ऐसा मत कर। मन ढ़ाढस बधाता है.. फूँक मार, मजा ले। मन जीत जाता है प्रायः।

मनुष्य में बुद्धि की हैसियत घर में उस बूढ़े बुजुर्ग की भाँति होती है जिसका पाँव छूकर आदर तो सभी करते हैं पर उसकी बात मानता कोई नहीं।

मन और बुद्धि बराबरी में जाग्रत रहते हैं। लेकिन जैसा कि मैंने कहा बेचारा बुद्धि-विवेक निर्णय लेने के मामले में उस बुजुर्ग की तरह अलग-थलग पड़ जाता है…जिसका आदर तो है लेकिन आदेश का असर नहीं।

विवेक और मन के बीच द्वंद्व को प्रसिद्ध कहानीकार मोपासां ने एक कहानी में शानदार तरीके से बुना है..।

कहानी है –एक अपार्टमेंट में अगल-बगल के फ्लैट में दो महिलाएं रहती हैं। शाम ढलते ही एक महिला बालकनी में सजधज कर खड़ी हो जाती है..। हर रोज कोई न कोई बाँका जवान उसके फ्लैट में आकर कुछ घंटे बिताकर चला जाता है। दोनों की खिलखिलाहट पड़ोस की महिला रोज सुनती है।

पड़ोस की महिला का विवेक उसे बताता है कि यह जिस्मफरोशी करती है। यह गलत काम है। दूसरी महिला को पतित कहते हुए वह मन ही मन बहुत लानतें मलानतें करती है..। यह सिलसिला कुछ महीनों तक चलता है। एक दिन उसका मन सक्रिय होता है विवेक के समानांतर। मन जानना चाहता है कि उस महिला को कैसा अहसास होता होगा। वह खिलखिलाती है, निश्चित ही उस जवान का सानिध्य आनंददायी होगा..।

बुद्धि उसे डांटती है- मूर्ख वह महिला अनैतिक व पतित काम कर रही है और तू उसपर रस्क करने लगी..। मन कहता है उस बुद्धि के चक्कर में मत फँसना, वह खसूट न कुछ करता, न किसी को कुछ करने देता। मन और बुद्धि के बीच घमासान शुरू होता है। मन के मोर्चे की ओर से काम तीरकमान लेकर आ खड़ा होता है। इच्छाएं युद्धनाद करने लगती हैं। मन सुख को भी उकसाता। सुख बुद्धि की लानत मलानत करते हुए अंततः चुप रहने को मजबूर कर देता है।

बुद्धि की आँखें जैसे ही झपकती हैं मन डिस्को डाँस करने लगता है। दूसरी को पतित कहने वाली महिला के देंह में सुरसुरी छूटने लगती है।

आज वह भी सजधज कर अपने फ्लैट की बालकनी पर खड़ी। वह भी बाँके जवान को निहार रही है..। उसके दरवाजे की कालबेल बजती है…और वह भी पड़ोस की कथित पतिता की भाँति काम-सुख की सडाँधभरी दरिया में उतर जाती है।

मन किनारे खड़ा झांझ बजाता उन्मादित करता रहता है..जब तक कि दरिया में उतार नहीं आता। काम, मोह, सुख इच्छाऐं सब मन की पीठपर सवार होकर चंपत हो जाती हैं। तब बुद्धि-विवेक प्रकट होता है लेकिन अब तो उसे कुछ करने के लिए बचा नहीं।

इसलिए सबसे कठिन काम है मन को साधना। हमारा समूचा वांगमय मन को साधने के आख्यानों से भरा परा है। मन को वश में करना ही योग संन्यास का परम है।

सारे झगड़े मन की उपज हैं। इसी ने रामायण महाभारत रचा है। यही दो-दो विश्वयुद्धों का कारण बना। कमाल की बात तो यह कि मन की गति और नियति को जानता सब कोई है लेकिन फिर भी बुद्धि-विवेक को पीछे धकेलते हुए गड़्ढे में जा गिरता है।

लाखों की भीड़ में प्रवचन देने वाला वो संत भी और यह सबकुछ लिखकर दूसरों को पढ़ाने वाला कलमकार भी।

संपर्कः8225812813

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