कृषि कानून से इन समस्याओं का समाधान होता..देश कमजोर हो लेकिन हमारी तिजोरी भरती रहे… -सुरेंद्र किशोर-

इंदिरा ने अपनी गद्दी बचाने के लिए देश पर इमरजेंसी थोपी।

इमरजेंसी से 10 प्रतिशत लोग लाभान्वित हुए।

90 प्रतिशत लोग पीड़ित हुए।

कृषि कानून से 90 प्रतिशत किसान लाभान्वित होने वाले थे।

10 प्रतिशत से भी कम अढ़तिए व मंडी के दलाल पीड़ित होने वाले थे।

 

1978 में साप्ताहिक रविवार के साथ बातचीत में देश के पूर्व गृह मंत्री गुलजारी लाल नंदा ने कहा था कि इमरजेंसी में अपेक्षाकृत अधिक भ्रष्टाचार था।

         (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

राजग शासित प्रदेश कृषि कानून लागू करें

कृषि कानून विरोधी आंदोलन के प्रारंभिक दिनों में ही मैंने लिख दिया था कि यह राज्यों पर छोड़

दिया जाना चाहिए कि वे ऐसा कानून बनाएं या न

बनाएं।

लागू करें या न करें।

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मैंने जान लिया था कि मंडी के दलालों व आढ़तियों की ‘ताकत’ बहुत है।

वे केंद्र सरकार को परेशान कर देंगे।

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यह देश का खासकर किसानों का दुर्भाग्य है कि निहितस्वार्थी तत्वों से मोदी सरकार हार गई और कृषि कानून वापस हो गया।

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यदि कुछ राजग शासित प्रदेश इसे लागू करके किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर कर देतें तो पंजाब व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आम किसान भी वही करने की मांग अपनी सरकारों से करने लगेंगे।

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अन्य देशों की अपेक्षा यहां खेती लायक 

  जमीन अधिक, किंतु उत्पादकता एक चौथाई! 

कृषि कानून इन समस्याओं का समाधान कर सकता था।

किंतु आढ़तियों और मंडी के दलालों को इससे क्या मतलब ?

जो लोग नौकरी या अन्य व्यवसाय में हैं,

वे इस देश में पहले से अपने खेत किराए पर देते रहे हैं।

रद्द हो रहा कृषि कानून एक समझौते के तहत इसे कानूनी मान्यता देना चाहता था।

यदि यह कानून लागू हो जाता तो निजी कंपनियां खेत ठीके पर लेकर उसमें पूंजी लगा सकती थीं।

उससे उत्पादकता बढ़ाती।

जैविक खेती का भी प्रसार होता ताकि लोग कैंसर से बचें।

किसानों की आय बढ़ती।

इससे परोक्ष टैक्स का दायरा बढ़ता।

पर यह उन कुछ निहितस्वार्थियों को मंजूर नहीं है

जो चाहते हैं यह देश भले कमजोर रहे,लेकिन हमारी तिजोरी भरे।

यह संयोग नहीं था कि राष्ट्र विरोधी तत्व भी किसान आंदोलन की मदद में खड़े थे।

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भारत में अन्य देशों की तुलना में खेती योग्य जमीन की उपलब्धता बहुत अधिक है।

पर,उत्पादकता उन देशों की तुलना में एक चौथाई ही है।

खेती में जितनी पूंजी की जरूरत है,वह आम किसानों के पास नहीं है।

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मेरे भी कुछ खेत पुश्तैनी गांव में हैं।

यदि कृषि कानून कायम रहता तो मैं भी इस संभावना की तलाश करता कि मेरे खेत को कोई कंपनी कांट्रैक्ट पर ले सकती है या नहीं।

मेरे जैसे अनेक लोग गांव से बाहर रहते हैं,उनके खेत उपक्षित हैं।उन खेतों में जितनी पैदावार हो सकती है,नहीं हो रही।

नतीजतन राष्ट्रीय क्षति भी हो रही है।

किंतु मंडी के दलालों व अढ़तियों को देश की चिंता कहां है ?

उन्हें तो पंजाब के बंजर होते खेतों की भी चिंता नहीं है।

वहां अढ़तिए व व्यापारी अधिकाधिक पैदावार के लिए किसानों को एडवांस देकर जरूरत से बहुत अधिक रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाएं खेतों में डलवाते हैं।

रासायनिक खाद-कीटनाशक का जितना गैर जरूरी उपयोग पंजाब में हो रहा है,उतना देश के किसी अन्य हिस्से में नहीं।

नतीजतन वहां के भूजल में आर्सेनिक बढ़ रहा है।

बड़ी संख्या में लोग कैंसर से पीड़ित हो रहे हैं।

भटिंडा से बीकानेर जो ट्रेन चलती है,उसे ‘कैंसर मेल’ कहा जाता है।

उस ट्रेन से पंजाब के कैंसर पीड़ित लोग आचार्य तुुलसी कैंसर अस्पताल (बिकानेर) जाते हैं जहां मुफ्त इलाज होता है।

क्या पंजाब के किसी किसान नेता को रासायनिक खाद का उपयोग कम करने व पंजाब को कैंसर मुक्त करने के उपाय के समर्थन में दिल्ली में धरना देते देखा है ? ………………………………

एक कहावत है कि भारत का किसान कर्ज में पैदा होता है,कर्ज में जीता है और कर्ज में ही मर जाता है।

इस समस्या का समाधान कृषि कानून कर सकता था।

उससे देश भी मजबूत होता।

पर इसकी चिंता कितने लोगों को आज है ?

 

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