पद्म सम्मान की ये तस्वीर सम्पादकीय लेख से अधिक प्रभावकारी…
आप क्या कहेंगे-
पद्म सम्मान की ये तस्वीर सम्पादकीय लेख से अधिक प्रभावकारी है।
सामान्य दृष्टि में पैर में चप्पल नही तन ढकने को कपड़े नही पर उपलब्धि ऐसी कि देश के दो सबसे ताकतवर आदमी समाने हाथ जोड़े बैठे है।
(जितेंद्र नेगी, सम्पादक राष्ट्रीय सहारा उत्तराखण्ड की वॉल से साभार)
बीजमाता पद्मश्री
ये हैं महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक छोटे से गाँव की राहीबाई सोमा पोपेरे। ये ‘बीजमाता’/सीडमदर के नाम प्रसिद्ध है।
ये देसी बीजों को बचाने व उनके संवर्धन को लेकर काम करती है। कभी स्कूल नहीं गई और एक जनजाति परिवार से संबंध रखने वाली है राहीबाई। इनके बीज के प्रति ज्ञान को वैज्ञानिक भी लोहा मानते हैं। अपनी जिद्द और लगन से ये देसी बीजों का एक बैंक बनाई है जो किसानों के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रही है। ये देसी बीजों को बचाने व उसके समर्थन में तब आई जब इनका पोता जहरीली सब्जी खाने से बीमार पड़ गया। यही कोई बीस साल पहले। तब से ये जैविक खेती के साथ-साथ देसी बीजों के प्रयोग व उनके संरक्षण को प्राथमिकता देने लगी। ये कहती है कि भले ही हाइब्रिड बीजों की तुलना में ये देसी बीज कम उपज देते हैं लेकिन ये आपका स्वास्थ्य खराब नहीं करती,आप बीमारियों के चपेट में नहीं आते।
56 की साल राहीबाई सोमा पोपरे आज पारिवारिक ज्ञान और प्राचीन परंपराओं की तकनीकों के साथ जैविक खेती को एक नया आयाम दे रही हैं।
गुजरात और महाराष्ट्र में आज परंपरागत बीजों की मांग सबसे ज्यादा है।
और आज जो ये बीजों के माँग की आपूर्ति जो रही है तो बस इसलिए हो रहे हैं इनको जिंदा रखने के लिए राहीबाई जैसे लोग जीवित हैं। नहीं तो ज्यादा उपज और फायदा कमाने के चक्कर में देसी बीजों को लोग कहाँ पहुंचा दिए हैं वो सबको भलीभांति मालूम है। आज से 20-25 साल जिस बीमारी का अता पता नहीं था वो अब फैमिलियर होते जा रहा है।
‘पद्मश्री’ बीजमाता राहीबाई जी को बारम्बार प्रणाम है।
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12 साल की उम्र में शादी, गरीबी की मार अलग… घरों में काम करने वाली दुलारी ने खुद नहीं सोचा था कि उनका संघर्ष उन्हें पद्मश्री दिलाएगा। देश का वो सम्मान जिसे पाने की चाह हर किसी में होती है। लेकिन दुलारी को पद्मश्री पुरस्कार मिलने के पीछे छिपा है उनका अनवरत संघर्ष… वो संघर्ष जिसमें एक पुरुष तक हार मान जाए लेकिन 54 साल की दुलारी ने नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया।
बिहार के मधुबनी जिले के रांटी गांव की रहने वाली दुलारी का माता-पिता ने 12 साल की उम्र में ही विवाह कर दिया। सात जन्मों के बजाए दुलारी सात साल में ही ससुराल से मायके वापस आ गईं और वो भी 6 महीने की बेटी की मौत के गम के साथ।
मायके से ही दुलारी ने फिर से संघर्ष शुरू किया। घरों में झाड़ू-पोंछा लगा कर कुछ आमदनी हो जाती थी।
धीरे धीरे हाथों में पोंछे की जगह कूची ने ले ली। हाथों में जादू ऐसा कि एक वक्त पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने भी दुलारी की तारीफ की।
किस्मत कब किसे किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दे, कौन जाने। यही दुलारी के साथ हुआ। अपने ही गांव में मिथिला पेंटिंग की मशहूर आर्टिस्ट कर्पूरी देवी के घर दुलारी को झाड़ू-पोंछा करने का काम मिल गया। खाली समय में दुलारी अपने घर-आंगन को ही माटी से पोतकर और लकड़ी की ब्रश बना मधुबनी पेंटिंग करने लगीं। कर्पूरी देवी का साथ मिलते ही मानों दुलारी के हाथों का जादू बाहर आ गया।
गीता वुल्फ की पुस्तक ‘फॉलोइंग माइ पेंट ब्रश’ और मार्टिन लि कॉज की फ्रेंच में लिखी पुस्तक मिथिला में दुलारी की जीवन गाथा व कलाकृतियां सुसज्जित हैं। सतरंगी नामक पुस्तक में भी इनकी पेंटिग ने जगह पाई है। इग्नू के लिए मैथिली में तैयार किए गए आधार पाठ्यक्रम के मुखपृष्ठ के लिए भी इनकी पेंटिग चुनी गई।
पटना में बिहार संग्रहालय के उद्घाटन के मौके पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दुलारी देवी को विशेष तौर पर आमंत्रित किया। वहां कमला नदी की पूजा पर इनकी बनाई एक पेंटिग को जगह दी गई है। 2012-13 में दुलारी राज्य पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं।
