सूत्र समूह के कविरत्न गेंदलाल शुक्ल…
कोरबा। छत्तीसगढ़ के वरिष्ठतम पत्रकारों में से एक गेंदलाल शुक्ल हैं जो छत्तीसगढ़ के कवि बिरादरी में भी अपनी एक महत्वपूर्ण पहचान रखते हैं।पत्रकारिता के चलते गेंदलाल शुक्ल जी कविता जीवन को उस ढंग से साध नहीं सके, जिस ढंग से पत्रकारिता के शीर्ष में उनकी कलम बोलती है। बावजूद इसके इनके अंदर एक संवेदनशील कवि चुपचाप बिना होल्ला के कविकर्म से पूरे मर्म से भी जुड़ा हुआ है।उनकी प्रस्तुत कविताएं पढ़ कर मैं हतप्रभ हूँ।अपने समय की चुनौतियों में युध्द की विभीषिका को उन्होंने जी लिया है। रासायनिक उर्वरकों से अपनी उपजाऊ पन खोती ज़मीनें स्वाद से भी महरूम हैं ! घर की जीवंतता में जो अनगढ़पन की सुंदरता है। उसे बचाये रखने का स्वप्न देखता गेंदलाल शुक्ल जी का कवि हृदय एक सुंदर दुनिया के लिए लालायित हैं। आईये आप सब भी हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि गेंदलाल शुक्ल जी की कविताओं में जीवन का यथार्थ खोंजे..
युद्ध
युद्ध
कभी- कभी बहुत जरूरी हो जाता है
जैसे,
शेर की मांद में झोंक दिये गये
आदमी के लिए जरूरी हो जाती है-आत्मरक्षा
युद्ध से,
कभी, किसी का भला नहीं हुआ
उजाड. हो जाते हैं-गांव के गांव
मैदानों में बदल जाते हैं खेत-खलिहान
नदियां अपना रास्ता बदल देती हैं
कारखानों की धडकनें रूक जाती हैं
और ठहर जाते हैं विकास के पांव
युद्ध का कोई तरफदार नहीं है
फिर भी होते हैं-युद्ध
जब शक्ति का संतुलन बिगड. जाता है,
किसी एक हाथ मेें जकड. जाती है- दुर्गा
जब मानव का अहंकार सिर उठाता है,
जब कोई देखता है-हिटलरी सपना
और फौजी बूट कदम-ताल करते हैं
तब बहुत जरूरी हो जाता है युद्ध
स्वत्व की सुरक्षा के लिए
आप्त-जनों की रक्षा के लिए
जब शान्ति कपोतों की देह
संगीनों की भंेट चढ.ा दी जाती हैं
बंद हो जाते हैं स्कूलों के पट,
मासूम कन्धों से उतार लिए जाते हैं – बस्ते
नवजवानों के हाथों में थमा दी जाती हैं- बंदूकें
हवा में घुल-मिल जाती हैं बारूदी सड.ांध
तब बहुत जरूरी हो जाता है युद्ध
इस युद्ध को कोई टाल नहीं सकता
………………………….
मुझे बोल लेने दो
मुझे बोलने दो
बोलकर मरने दो
मर कर भी मुझे
न रहेगा कोई अफसोस
पिता! मुझे रोको नहीं,
मेरे होठों पर
मत रखो ऊंगलियां
तुम्हारे – स्नेह का अतिरेक
जीते-जी मार डालेगा मुझे
तुम अपनी प्रवृत्ति मत छोड.ो
खामोश रहो हमेशा की तरह
कठोर कर लो अपना हृदय
और जड.वत निहारते रहो
मेरी मौत का मंजर
वैसे ही, जैसे
तुमने देखा था
छत पर खडे. होकर
पड.ोसी युवती का चीरहरण
और पीठ फेर कर
आ बैठे थे – घर के भीतर
पिता! तुम्हारी निर्लिप्तता से
मुझे कोई दुःख नहीं होगा
और सच पूछो तो खुशी होगी
कि – मैं बोलकर मरा,
मरते मरते भी बोला,
बोलते बोलते मरा
पिता! मुझे मत रोको
बोलने दो .. . . . . बोल लेने दो . .. . . !
सुख
दीवारों पर
बनी रहने दो
आड़ी-तिरछी रेखाएं,
नदी, घर, सूरज,
फूल, पत्ते, चिडि़या,
आम, सेव, इमली
ये हैं,
भरे-पूरे परिवार के
प्रतीक-चिन्ह
खूबसूरत दीवार के
नाम पर इन्हंे,
मिटाना नहीं कभी
इनकी मौजूदगी से
आता है…सुख का अहसास
स्वाद
पांच बरस हुए
खेतांे में नहीं चली कुदाल
रसायनों की जुगलबंदी से
पौधों ने निचोड़ ली
मिट्टी की पूरी-पूरी उर्वरता
फसल तो हुई खूब, दिल-खुश
मगर स्वाद ने कर ली किनाराकशी
स्वाद ने पीठ क्या फेरी
जीवन ही हो गया रसहीन
यंत्रवत हो गया मानव
फूल-पत्ते, पेड़-टहनियां-नार
कोयल, तोते, खरगोश, हिरण, मयूर
भित्ती चित्रों में रूपायित हुए,
करमा, ददरिया, सुआगीत
मांदर की थाप,
बांसुरी की स्वर लहरी
हो गये पूर्णतः मौनव्रती
इससे इतर
कहीं दबा पड़ा है जीवाश्म
इन शब्दों के प्रस्फुटन से
जो हो रहे रेखांकित
ये जीवाश्म ही फिर होंगे सजीव
खेतों में चलायेंगे कुदाल
मिट्टी की नयी परतों का करेंगे अनावरण
बोयेंगे फिर-फिर बीज अनाज के
लौटा लायेंगे…फिर से अपने जीवन में स्वाद
सबक
बज उठी है-दुंदुभी
पाच बरस में
एक बार होने वाले
युद्ध की
वो लाव-लश्कर से
सुसज्जित हो
उतर आये हैं मैदान में
और तुम बैठे हो
अभी भी द्वार पर
बाट जोहते किसी नायक की.
हर बार,
बार-बार होता है यही
वो आता है,
अपनी पूरी फौज के साथ
उत्तेजक नारे लगाता,
अपना ऐश्वर्य दिखाता,
दुश्मनों पर भेडि़या सा गुर्राता
और तुम
उठ खड़े होते हो समर्थन में
करने लगते हो उसका अनुशरण,
चौंको नहीं,
खुद को कोसना भी मत
क्योंकि,
तुम अकेले नहीं ऐसे,
एकल संख्या से
नहीं खड़ी होती कोई फौज
और ना ही
जीता जा सकता है कोई युद्ध,
दरअसल जब तनी होती है शमशीरें
तो संख्या बल
होता है सर्वाधिक आवश्यक
यह उनका सौभाग्य नहीं,
तुम्हारा दुर्भाग्य है कि
भीड़ की नहीं होती कोई चेतना
और चुन लिया जाता है
एक ऐसा नायक,
जो युद्ध जीतने के बाद
भूल जाता है अपने सैनिकों को
बेचारे !
रणभूमि के योद्धा
अपनी क्षत-विक्षत देह के साथ
घर की देहरी पर बैठ
राह निहारते हैं अपने नायक की
वैसे ही
जैसे तुम बैठे हो अभी
पर, दोषी वे नहीं,
सत्ता का,
ऐसा ही होता है चरित्र
दोष तो तुम्हारा है,
जो, अपने अनुभव से भी
नहीं लेता कोई सीख
अब, एक बार फिर
बज उठी है-दुंदुभी
श्वेत घोड़ों को दौड़ाता
चमचमाते रथ पर आरूढ़
अभियान पर
निकल पड़ा है- नायक
कहीं तुम्हारी
अस्मिता को ललकारता
तो कहीं,
तुम्हारी पीड़ा को उभारता
सोचो,
क्या तुम फिर बह जाओगे
किसी लहर के साथ
या, इस बार
अपने अनुभव से
लोगे कोई सबक.
…………………………..
सुबह
जल्द आएगी
अंधेरे को चीरती हुई
एक सुनहरी किरण और
दशकों पुराना घटाटोप का
हो सकेगा अन्त,
उजाले की
इस वापसी के साथ
गांव के सीवान पर
फिर गुलजार होंगे घोटुल
मोटियारी और चेलिक की
खिलखिलाहट से
गूंज उठेंगे जंगल,
यह समय,
सब्र का है,
आशा और विश्वास का है
डंटे रहो अपनी जगह
रात के बाद
सुबह तो होना ही है।
परिचय :
गेंदलाल शुक्ल,जन्म- मुंगेली, जिला- मुंगेली,छत्तीसगढ़
कार्य स्थल- कोरबा
प्रतिनिधि : आजतक टी वी न्यूज़,यू एन आई/वार्ता
पूर्व सम्पादक : दैनिक लोकस्वर, बिलासपुर
पूर्व प्रतिनिधि : ए एन आई,ई टी वी mp cg,सहारा समय mp cg,पी 7 न्यूज़
छत्तीसगढ़ और देश के पत्र पत्रिकाओं में रिपोर्ताज, कहानियां, कविताएं प्रकाशित,
आकाशवाणी रायपुर, बिलासपुर, बालाघाट से कविताएं प्रसारित
सम्पर्क : सी 402, अनन्त इमेजिन,पुराना बस स्टैंड, कोरबा,जिला- कोरबा (छत्तीसगढ़)
मोबाइल : 98271-96048
📚 सूत्र समूह📖
02 नवम्बर 2015 से प्रारंभ्भ वाट्सअप पत्रिका
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🖌 अनुक्रम
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📚 समकालीन गीत – ग़ज़ल
मंगलवार : सतीश कुमार सिंह
📚 सृजन विविध — बुधवार: डॉ.सोनाली चक्रवर्ती
📚लोकरंग — गुरूवार : विजय सिंह
📚विशिष्ट कवि- युवा कवि : शुक्रवार — सरिता सिंह
📚 रचना संवाद : शनिवार -राज किशोर राजन
📚 सूत्र समूह के रचनाकारों के लिए खुला मंच : समूह के सभी सदस्यों के लिए : रविवार
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