वेद-मूलनिवासी-आर्य : एनसीईआरटी ने वामपंथी लेखकों के दबाव में वैदिक साइंस के विषय को हटा दिया
देश की अखंडता के साथ खिलवाड़ कर समाज को तोड़ने के लिए आर्य-मूलनिवासी में भेद किया जाता रहा है।वास्तव में आर्य एक आदरसूचक शब्द था, जिसे सबके लिए उपयोग किया जाता था। भीमराव अंबेडकर ने स्वयं माना है कि आर्य बाहर से नहीं आए थे। अम्बेडकर आर्यों के संबंध में क्या विचार रखते थे, ये अगले post में।
मूल निवासी दिवस के नाम पर छलावा 9 अगस्त को मूल निवासी दिवस के नाम से एक नया भ्रमजाल बुना जा रहा है. इस भ्रमजाल को बुनने वाले वामपंथी हैं. इसका शिकार होने वाले अनुसूचित जाति/जनजाति के युवा. इस भ्रमजाल का एकमात्र उद्देश्य हिन्दुत्व को कमजोर करना है.
सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए एक प्रश्न के जवाब राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और पशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) का कहना है कि उसके पास स्कूली किताबों में वैदिक इतिहास का चेप्टर जोड़ने की कोई योजना नहीं है। यह बात संस्थान ने कही है।
सूचना में एनसीईआरटी ने कहा कि 2005 राष्ट्रीय पाठ्यक्रम परिचर्या तैयार किए जाने के बाद पुस्तकों में बदलाव किया गया। 2007 में इतिहास की नई किताबें शामिल की गई जिसमें वैदिक इतिहास को नहीं रखा गया है। जबकि इससे पहले तक एनसीईआरटी की एक पुस्तक में वैदिक इतिहास पढ़ाया जा रहा था। लेकिन एनसीईआरटी का कहना है कि विशेषज्ञों की सिफारिश पर पाठ्यक्रम तैयार हुआ था। जिसमें अब कोई बदलाव होने का प्रस्ताव नहीं है। वैदिक इतिहास के मुद्दे पर कार्य कर रहे लोगों का कहना है कि एनसीईआरटी ने वामपंथी लेखकों के दबाव में वैदिक साइंस के विषय को हटा दिया। लेकिन आज छात्रों को यह जानने का हक है कि वेद क्या हैं, वैदिक गणित आज भी सामयिक है। इसी प्रकार आर्य सभ्यता के बारे में आज एनसीईआरटी की किताबों में एक भी लाइन नहीं पढ़ाई जाती है। एक तरफ सरकार ने ऋग्वेद को यूनेस्को के विश्व धरोहरों में शामिल कराया है तथा दूसरी तरफ इस वेद के बारे में एनसीईआरटी की इतिहास की किताबों में एक भी लाइन दर्ज नहीं है। आखिर यह काम किसके दबाव में हुआ? तब की तत्कालीन सरकार ने यह फैसला क्यों लिया और आज मौजूदा सरकार इस पर मौन क्यों है? भारत दुनिया का शायद अकेला ऐसा देश है, जहां के आधिकारिक इतिहास की शुरुआत में ही यह बताया जाता है कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं हैं भारत में रहने वाले अधिकांश लोग भारत के हैं ही नहीं. ये सब विदेश से आए हैं.
वामपंथी इतिहासकारों ने बताया कि हम आर्य हैं. हम बाहर से आए हैं. कहां से आए? इसका कोई सटीक जवाब नहीं है. फिर भी बाहर से आए. आर्य कहां से आए, इसका जवाब ढूंढने के लिए कोई इतिहास के पन्नों को पलटे, तो पता चलेगा कि कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया. आर्य धरती के किस हिस्से के मूल निवासी थे, यह इतिहासकारों के लिए आज भी मिथक है.
मतलब यह कि किसी के पास आर्यों का सुबूत नहीं है, फिर भी साइबेरिया से लेकर स्कैंडेनेविया तक, हर कोई अपने-अपने हिसाब
से आर्यों का पता बता देता है. भारत में आर्य अगर बाहर से आए, तो कहां से आए और कब आए, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है. यह भारत के लोगों की पहचान का सवाल है. भारतीय इतिहासकारों ने इन्हीं अंग्रेजों के लिखे इतिहास पर आर्यों और द्रविड़ों का भेद किया. बताया कि सिंधु घाटी में रहने वाले लोग द्रविड़ थे, जो यहां से पलायन कर दक्षिण भारत चले गए. अब यह सवाल भी उठता है कि सिंधु घाटी से जब वे पलायन कर दक्षिण भारत पहुंच गए, तो क्या उनकी बुद्धि और ज्ञान सब ख़त्म हो गया. वे शहर बनाना भूल गए, स्वीमिंग पूल बनाना भूल गए,नालियां बनाना भूल गए. और, बाहर से आने वाले आर्य, जो मूल रूप से खानाबदोश थे, कबीलाई थे, वे वेदों और आयुर्वेद का निर्माण कर रहे थे. दरअसल, वामपंथी इतिहासकारों ने देश के इतिहास को मजाक बना दिया.
देश के प्रधानमन्त्री ने भारत की खोज पुस्तक लिखी. क्या भारत कोई मेले में खोया हुआ बच्चा था जिसे खोजना था.


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