आनंद मिश्रा : महाभारत के महानतम संवाद
1. युद्ध में विजय भी केवल शोक ही लाती है। जब शान्ति सम्भव है तो युद्ध की इच्छा क्यों करूँ? (उद्योगपर्व, श्रीकृष्ण)
2. मन मेरा है, पर मैं मन नहीं हूँ। न काम मुझमें है, न क्रोध। इन्द्रियाँ भी मैं नहीं हूँ, क्योंकि मैं उनसे परे हूँ। (शान्तिपर्व, दार्शनिका सुलभा)
3. समय अनुकूल होने पर, ऋतु आने पर, शुभ कार्य स्वतः ही घटित होता है। (उद्योगपर्व, गांधारी)
4. रुक जाइए भ्राता। महान पुरुष हीन जनों के कटु वचनों से विचलित नहीं होते। प्रत्युत्तर देने का सामर्थ्य होते हुए भी वे उन्हें महत्व नहीं देते। (सभापर्व, अर्जुन)
5. वार्ता और शान्ति से प्राप्त सफलता श्रेष्ठ है; शत्रु में फूट डाल कर पाई सफलता अल्पकालिक है; युद्ध से मिली सफलता सबसे निकृष्ट है। (भीष्मपर्व)
6. जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है वहाँ देवता प्रसन्न रहते हैं; जहाँ उनका अनादर होता है वहाँ कोई यज्ञ फल नहीं देता। (आदिपर्व)
7. जाओ और उस जुआरी से पूछो—उसने पहले किसे हारा, स्वयं को या मुझे? (सभापर्व, द्रौपदी)
8. युद्ध सबका विनाश करता है। यह पापमय है, नरक की ओर ले जाता है, और इसमें विजय-पराजय दोनों का परिणाम समान है—दुःख। (उद्योगपर्व, संजय)
9. मनुष्य जहाँ अपना स्वार्थ देखता है, वहाँ उसका विवेक नष्ट हो जाता है। (भीष्मपर्व, धृतराष्ट्र)
10. सत्ता का नशा मद्य के नशे से भी भयंकर है, क्योंकि इसके नशे में उन्मत्त व्यक्ति तब तक नहीं सँभलता जब तक उसका पूरी तरह पतन न हो जाए। (उद्योगपर्व, विदुर)
11. एक बार युद्ध आरम्भ हो जाने पर, यह मान लेने से शान्ति नहीं स्थापित हो जाएगी कि कहीं कोई युद्ध नहीं है। (उद्योगपर्व, दुर्योधन)
12. यहाँ अधर्म हुआ है। युधिष्ठिर को अपनी पत्नी को दाँव पर लगाने का अधिकार न था। भीष्म, द्रोण, विदुर—आप धर्मज्ञ हैं, फिर भी मौन क्यों हैं? दुष्टों के कटुवचनों से अधिक पीड़ादायक सज्जनों का मौन है। (सभापर्व, विकर्ण)
13. कुल की रक्षा हेतु एक व्यक्ति को त्यागो; ग्राम की रक्षा हेतु कुल को; देश की रक्षा हेतु ग्राम को; और स्वयं की रक्षा हेतु सम्पूर्ण सांसारिक विषयों का त्याग करो। (सभापर्व, विदुरनीति)
14. हे राजन्! मैं इस सभा से स्वयं चली जाउंगी क्योंकि मुझे भी किसी झूठे की पत्नी बनकर रहना स्वीकार नहीं है लेकिन आपके न चाहने पर भी मेरा यह पुत्र भरत ही इस पूरी पृथ्वी पर शासन करेगा। (आदिपर्व, शकुन्तला)
-चित्र साभार इंटरनेट से।
