प्रसिद्ध पातकी : विष्णुसहस्रनाम-गीता में प्रपितामह _तागा तो हाथ में पर सिरा गायब
आजकल कनागत यानी पितृपक्ष चल रहा है। हम आस्तिक सनातनी लोग इन पन्द्रह दिन अपने दिवंगत परिजनों और बंधु-बाधवों का स्मरण करते हैं। उनका श्राद्ध और तर्पण करते हैं।
तर्पण करते समय मेरे मन में यह प्रश्न उठा कि इस विधि में पिता की तरफ से केवल तीन पीढ़ी को ही क्यों याद किया जाता है अर्थात पिता, पितामह और प्रपितामह। पिता को तो लगभग सभी ने देखा होता है। पितामह को देखने वाले सौभाग्यशाली लोगों की संख्या उससे कम होती है। किंतु प्रपितामह को देखने वालों की संख्या तो आज के जमाने में लगभग न के बराबर होती है क्योंकि वर्तमान में विवाह आयु बढ़ गयी है। इसने पीढ़ियों के बीच समय की दीवार को चौड़ा कर दिया।
भले ही बहुत कम लोगों ने अपने प्रपितामह को न देखा हो किंतु उनके प्रति मन में एक अज्ञात श्रद्धा, कौतुहल और विस्मय का भाव रहता है। उनके बारे में हमें जब अपने पिता या बाबा-दादी से कई बातें पता चलती हैं तो मन में कभी न कभी यह बात अवश्य उठती है कि काश हम भी अपने प्रपितामह को देख पाते।
विष्णु सहस्रनाम में भगवान का एक नाम आता है प्रपितामह:-
भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः।।
यह श्लोक बड़ा मजेदार है। इस श्लोक की पहली पंक्ति तो मानों गायत्री मन्त्र ही लगती है। हम लोग नित्य गायत्री मन्त्र का जप करते हैं। गायत्री मंत्र से पहले तीन व्याहृति आती हैं ‘भू:, भुव: और स्व:।’ भीष्म दादा ने विष्णु सहस्रनाम में इन तीन व्याहृतियों को एक बहुत सुन्दर उपमा दी है। उन्होंने कहा कि यह तीनों व्याहृति एक तरु यानी वृक्ष हैं। भगवान कैसे हैं? श्रीहरि एक ऐसे तरु हैं जो तीनों लोक में व्याप्त हैं।
उनका अगला नाम है ‘‘तार’’ यानी तारण करना। भगवान संसार से तारण करने वाले हैं। भगवद् पाद शंकराचार्य के अनुसार भगवान प्रणव यानी ‘ऊँ’ हैं, जिसके उच्चारण से संसार रूपी सागर से तरा जा सकता है।
भगवान सविता हैं। यह सारी सृष्टि महाविष्णु से ही उत्पन्न हुई है। इस कारण वे सविता है। गायत्री मन्त्र में इन्हीं सविता देवता के ‘वरेण्य भर्ग’ का स्मरण हम नित्य करते हैं।
हम लोग यह भी मानते हैं कि यह सारी सृष्टि बृह्माजी ने उत्पन्न की है। और ब्रह्माजी को किसने उत्पन्न किया? उन्हें तो भगवान श्रीहरि ने उत्पन्न किया। ब्रह्माजी भगवान के नाभि कमल से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए वह पितामह के भी पिता अर्थात प्रपितामह हैं।
देखा जाए तो गीता में , पितामह और प्रपितामह शब्द बड़े मजेदार तरीके से आते हैं। भगवान नवम अध्याय के 17 श्लोक में अपने को न मात्र पिता वरन् पितामह भी कहते हैं:-
पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च।।9.17।।
(मैं ही इस जगत्को उत्पन्न करनेवाला पिता और उसकी
जन्मदात्री माता हूँ तथा मैं ही प्राणियोंके कर्मफलका विधान करनेवाला विधाता और पितामह अर्थात् पिताका पिता हूँ तथा जाननेके योग्य? पवित्र करनेवाला? ओंकार? ऋग्वेद? सामवेद और यजुर्वेद सब कुछ मैं ही हूँ।)
पर जब भगवान केशव अपने बाल सखा अर्जुन को अपने विराट रूप का दर्शन कराते हैं तो सव्यसाची उनकी स्तुति करने लगता है। इस स्तुति में अपने बाल सखा केशव को वह ‘प्रपितामह’ कहकर संबोधित करता है:-
वायुर्यमोऽग्निर्वरुण: शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्व: पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
(आप वायु, यम, अग्नि, जल और चन्द्रमा के देवता हैं। आप ब्रह्मा के पिता और सभी जीवों के प्रपितामह हैं। अतः मैं आपको हजारों बार और बार-बार नमस्कार करता हूँ।)
पितामह शब्द की चर्चा हो और भीष्म दादा का नाम नहीं आये, यह लगभग असंभव-सी बात है। सनातन धर्म में यह सौभाग्य किसी देवी-देवता, महापुरुष, सिद्ध, संत आदि किसी को नहीं है कि हर तर्पण देने वाला उसे भी तर्पण दे। यह सम्मान केवल भीष्म पितामह को प्राप्त है। उनके सम्मान में सभी लोग उन्हें तर्पण देते हुए यह मन्त्र पढ़ते हैं:-
वैयाघ्र पादगोत्राय सांख्य प्रवराय च।
अपुत्राय ददम्येतज्जलं भीष्माय वर्मणे।।
प्रपितामह शब्द की क्या महिमा है, इसे लेकर मैं अपना अनुभव आपसे साझा करना चाहता हूं। यह भावजगत की बहुत कोमल भावनाएं हैं। मैं जब नित्य भगवान शालिग्राम को पुरुषसूक्त से स्नान करवाता हूं तो पंचपात्र में भगवान को रखते समय, उठाते समय, चंदन लगाते समय, तुलसी दल अर्पित करते समय जब भी मेरी हथेली, अंगुलियाँ भगवान से स्पर्श करती हैं तो लगता है कि मैं इनके माध्यम से अपने पितामह, अपने प्रपितामह से सीधे जुड़ रहा हूं। उन्हें स्पर्श कर रहा हूं। यह वही शालिग्राम भगवान हैं, जिनकी सेवा मेरे पितामह ने, मेरे प्रपितामह ने की थी। यह विचार आते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शालिग्राम भगवान मुझे बहुत कोमल लगने लगते हैं। जैसे मैं किसी वयोवृद्ध की कोमल त्वचा को स्पर्श कर रहा हूं।
अपने प्रपितामह के बारे में एक अन्य किस्सा भी आपके साथ साझा करना चाहता हूं। प्रयाग के दारागंज में वे जब भगवान की पूजा कर रहे होते थे तो प्राय: एक लंगूर आ जाता था। वह उनके पूजा के दौरान ठाकुरद्वारे के बाहर ही शांत होकर बैठा रहता था। बंदर प्रजाति के प्राणी का शांत होकर बैठना ही अपने आप में एक आश्चर्य है। भगवान की आरती के उपरांत मेरे प्रपितामह उसे बाल भोग का मोदक देते थे और वह उसे लेकर चुपचाप चला जाता था। प्रपितामह ने उसे ‘रामदास’ का नाम दे रखा था।
श्रीहरि मेरे, आपके और सभी के पिता, पितामह और प्रपितामह, सभी हैं। ऐसे प्रपितामह का स्मरण हम सभी के जीवन को समृद्ध और मंगलमय बनाये।
पिता धर्म: पिता स्वर्ग: पिताहि परमं तप:।।
पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवता:।।
एकादशी की राम राम।।
