देवेंद्र सिकरवार : क्यों पार्वती का ध्यान न तो असुरों की वीरता आकर्षित कर सकी और न देवों का वैभव..!

संसार में एक से बढ़कर एक दैवीय व्यक्तित्व हुये जिनके जन्मदिन जयंतियों के रूप में या उनके जीवन की घटनाओं को उत्सवों के रूप में मनाया जाता रहा है, लेकिन पूरे विश्व इतिहास में किसी दैवीय व्यक्तित्व के विवाह के दिन को इतने व्यापक उल्लास से मनाया जाता हो, मेरी अध्ययन स्मृति में नहीं।

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यों तो वृंदा अर्थात तुलसी का विवाह भी आयोजित किया जाता है परन्तु मुझे उसमें कुछ खटकता है और वह है निर्दोष तुलसी के प्रति छल का व्यवहार।

मुझे शंखचूड़ का भी स्मरण हो आता है जो निरीह भाव से मूक प्रश्न करता दिखाई देता है कि वृंदा के प्रति मेरे प्रेम और निष्ठा में क्या कमी थी जो उसे मुझसे छीन लिया गया।

लेकिन शिव पार्वती का विवाह विश्व की एक अद्भुत घटना थी, नारी प्रवृत्ति से एकदम विपरीत घटना।

नारी जो या तो धन व शक्ति की ओर आकर्षित होती है या पुरुष सौंदर्य की ओर लेकिन पार्वती नारी जाति की इन हीन प्रवृत्तियों के विरुद्ध एक ऊँचाई पर खड़ी समस्त नारी जाति के लिए एक चुनौती हैं।

पार्वती, वैभवशाली राजा की राजकन्या!
पार्वती, असाधारण दैवीय सौंदर्य की स्वामिनी!
पार्वती, नारी जाति का उस युग का सर्वश्रेष्ठ रत्न!

ऐसी पार्वती का ध्यान न तो असुरों की वीरता आकर्षित कर सकी और न देवों का वैभव, यहाँ तक कि विष्णुपद के स्वामी भी उनका ध्यान खींचने में असमर्थ रहे।

उन्हें पसंद आये तो एक ऐसे औघड़ योगी जो साहित्यिक भाषा में कहें तो विधुर भी थे और संसार से अनासक्त भी।

पर पार्वती का देवों, असुरों, गंधर्वो और विष्णु तक को ठुकराकर शिव जैसे योगी को पति रूप में स्वीकार करना असाधारण घटना नहीं है क्योंकि ऐसे उदाहरण सैकड़ों मिलेंगे लेकिन असाधारण है वह तपस्या जो एक रूपगर्विता, अभिमानिनी राजकन्या होने के उपरांत भी उन्होंने एक विरक्त, अपरूप योगी के लिए की।

शिव को पाने के लिए, शिव की उदासीनता के उपरांत भी जैसी तपस्या और जैसी प्रेमनिष्ठा उन्होंने दिखाई वह मानव इतिहास में दुर्लभ है क्योंकि स्त्री के लिए प्रयत्न करने वाले मनुष्य तो संसार में करोड़ों हुये थे और करोड़ों होंगे लेकिन निरंतर उपेक्षा और निराशा के बाद भी जैसा प्रेम और निष्ठा अपने प्रेम के प्रति पार्वती ने दिखाई वह अनन्य है।

इससे ज्यादा निष्ठा का चरम क्या होगा कि किसी निरीह व्यक्ति के प्राण बचाने के अपने मानवीय कर्त्तव्य का पालन करने के बाद, अपना शरीर त्यागने को उद्यत हो गईं कि भले ही किसी के प्राण बचाने के निमित्त हो, उनका हाथ परपुरुष के स्पर्श से अपवित्र हो गया है।

अपने प्रेम के प्रति ऐसी निष्ठा संसार ने शायद ही पहले कभी देखी हो और शायद ही कभी देखेगा।

सारा ब्रह्मांड इस कन्या के इस निरीह समर्पण से द्रवित हो उठा तो शिव भला कैसे असंपृक्त रहते?

पर पार्वती की परीक्षा अभी शेष थी।

शिव अपने सर्वाधिक वितृष्णा उत्पन्न करने वाले जुगुप्सित रूप में उतने ही विकृत स्वरूप वाले भूत, पिशाच, विनायक आदि रुद्रगणों के साथ बारात लेकर आये और माता मैना साफ अड़ गईं कि वह ऐसे औघड़ को अपनी फूल सी बेटी नहीं सौंपेंगी।

पार्वती का संघर्ष अब अपनों से था।

पार्वती की एकनिष्ठ दृढ़ता फिर विजयी हुई। मुग्ध शिव अब पार्वती के प्रेमक्रीत दास हुये।

माता मैना की संतुष्टि के लिये अपनी प्रिया के अनुरोध पर शिव अपने परमसौन्दर्यमय रूप में प्रस्तुत हुये।

वह सुवर्णवर्णी केश,
वह कर्पूर के समान श्वेत वर्ण,
वह अलसी पुष्प के समान नील नेत्र,
रक्ताभ अधरों पर वह मोहक मुस्कान,

अप्सराएं उसाँसें भरने लगीं,
कुमारियाँ पार्वती से ईर्ष्या करने लगीं,
इंद्र, अग्नि, वरुण तो दूर विष्णु का विश्वविश्रुत सौंदर्य भी फीका पड़ गया।

तारों के बीच चंद्रमा का उदय हो गया हो जैसे।

पार्वती अब ‘शिवा’ थीं और ‘शिवा’ को पाकर एक विरक्त शव समान योगी ‘शिव’ बनकर धन्य हुये।

अभिभूत संसार ने ‘शिव-शिवा’ के इस परिणय की रात्रि को ‘महाशिवरात्रि’ के रूप में अपने उत्सवकोश में संजो लिया।

पार्वती की अपने प्रेम के प्रति एकनिष्ठा और तपस्या हिंदू कन्याओं के लिए एक प्रतिमान है कि उनकी तपस्या किसी ‘विरक्त मन शव’ को ‘शिव’ में बदलने का सामर्थ्य रखती है।

जगत के प्रत्येक भग्नह्र्दय ‘शिव’ को ऐसी ही एकनिष्ठ पार्वती मिले।

जगत के प्रत्येक ‘शिव’ को उसकी ‘शिवा’ मिले।

शिव-शिवा के परिणय का यह उत्सव ह्रदयों का अमृतोत्सव बने।
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