डॉ. पवन विजय : संघर्ष व्यवस्था की स्थापना के लिए होता है..
सनातन कहते हो तो जानों भी, आचरण में उतारो भी अन्यथा सनातनी होने का कोई अर्थ नहीं। सनातन शब्द के गहरे अर्थ में निरंतरता है, माने एक दूसरे से जोड़ने वाला धागा या तंतु।
उस तंतु से मनुष्य, सुअर, अमीबा, कुत्ता सभी जुड़े है, पहाड़, चंद्रमा, मंगल, नदी, सूर्य, गैलेक्सी, फूल, परमाणु, ब्रह्मांड सभी जुड़े हैं। शराबी, हत्यारा, साधु, संत सभी जुड़े हैं। सहमति असहमति उसी निरंतरता के स्नैपशॉट हैं। निरंतर प्रवाहमान धारा में ‘सभी’ शामिल है, वे ‘सभी’ सनातन नहीं हैं वे ‘सभी’ क्षणभंगुर हैं, सनातन तो केवल निरंतर बहने वाली धारा है।
धारा को पकड़ो, उसके नाद को समझो, उसकी दिशा और गति को जानो, सनातन का भाव रस वहीं छिपा है।
लड़ाई केवल व्यवस्था और अव्यवस्था की है। जब एक व्यक्ति दूसरे का स्पेस अन्यायपूर्ण तरीके से हथियाने लगता है तब संघर्ष व्यवस्था की स्थापना के लिए होता है।
कुंभ में चोर, साधु, ठग, डाकू, अनपढ़, पढ़े लिखे, कुरूप सुरूप सब आए हैं। आने का धागा गंगा माई हैं। उसी में डूबने उतराने सब आए हैं। आपकी दृष्टि कहां अटकती है यह आपके चेतना के उच्च या निम्न होने का परिणाम है।
किसी के लिए कुंभ एक लड़की के नयन हैं, कोई किसी नवके बाबा की स्तुति या निंदा में इसे देख रहा है। किसी के लिए कुंभ जगमग है, कोई अव्यवस्था को रो रहा है, कहीं वाह वाह तो कहीं कोसोवाद चल रहा है। जिसके जैसे भाव वैसे ही वह देखना सोचना करेगा।
कुंभ के आनंद की निरंतरता अपने में समाहित करके आओ तो अमृत का अनुभव कर सकोगे। मन की मलिनता धो पोंछ कर आओगे तो पवित्रता का अनुभव कर सकोगे।