देवेंद्र सिकरवार : कुंभ.. जब वह बौद्ध सम्राट एक वस्त्र अपनी कमर में लपेटकर जनसमुदाय के समक्ष विनीत भाव से करबद्ध खड़ा हो जाता था..
कुम्भ
कुम्भ भारत का ऐसा अद्भुत आयोजन है जिसके ढेरों अद्भुत आयाम हैं, यहां तक कि मेरे जैसा भीड़ से दूर भागने वाला व्यक्ति भी इस अद्भुत उन्माद का हिस्सा बनना चाहता है, मानसिक रूप से तो जुडा हुआ ही हूँ।
अतीत में चक्रवर्ती सम्राटों द्वारा राजसूय यज्ञ के आयोजन पर ही अखिल जम्बूद्वीप के ऋषि, महात्मा, आचार्य, ब्राह्मण आदि के समागम का मौका उत्पन्न होता था जिससे जड़ताएं टूटती थीं और ज्ञान-विज्ञान का विकास होता था।
पर न तो चक्रवर्ती बनने की क्षमता वाले सम्राट रोज पैदा होते थे और न राजसूय का अनुष्ठान रोज हो सकता था अतः ऋषियों ने ऐसे आयोजनों का जिम्मा स्वयं उठाया।।
ऐसा आयोजन हुआ नैमिषारण्य में जहाँ अठासी हजार ऋषि, ब्राह्मण, श्रमण आदि एकत्रित हुए।
पौराणिक युग में उल्लेखित नैमिषारण्य में ऋषियों के सम्मेलण के आयोजनों के बाद हिंदुओं की ऐतिहासिक स्मृति में कुम्भ ऐसा दूसरा आयोजन है जिसकी भव्यता व प्राचीनता की झलक सकलोत्तरापथनाथ महाराज हर्षवर्धन के सर्वस्व दान के उल्लेख से मिलती है।
क्या ही अद्भुत दृश्य रहता होगा जब एक सम्राट बौद्ध होने पर भी अपने कुलदेव सूर्य, शिव सहित पंचदेवों की पूजा कर तथागत को भी अपनी श्रद्धा निवेदित कर ब्राह्मणों, बौद्ध व जैन श्रमणों को अपना सर्वस्व लुटाकर अपनी बहन राज्यश्री द्वारा दिया एक वस्त्र अपनी कमर में लपेटकर जनसमुदाय के समक्ष विनीत भाव से करबद्ध खड़ा हो जाता था।
ऐसे अद्भुत दृश्य भारत में ही संभव थे।
अस्तु!
लेकिन आज कुम्भ की उपलब्धि क्या है?
कुम्भ के किन बिंदुओं की चर्चा हो रही है?
ज्ञान की?
वैराग्य की??
अध्यात्म की???
हिंदुत्व के उत्थान की????
नहीं, चर्चा हो रही है,
चिमटे वाले बाबा की,
नागाओं की अद्भुत वेशभूषा की,
हर्षा जैसी रीली छिछोरियों की,
इंदौर की लड़की की आँखों की,
शाही स्नान की ‘शाही’ महत्ता की।
कुम्भ यह तो नहीं था।
स्वच्छ, सुंदर, भव्य परंतु फलविहीन आयोजन।
अगर कुम्भ सार्थक है तो बस आर्थिक हलचल और इस नजरिये से कि कम से कम हिंदू धर्माधीश इस बात पर एकमत तो हुए कि कुम्भ आयोजन से विधर्मियों को बाहर रखा जाये।