सर्वेश तिवारी श्रीमुख : मैना!

तेरह वर्ष की उस बालिका को पिता ने आदेश दिया था, “युद्ध में पकड़े गए अंग्रेज बच्चों और स्त्रियों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना। सभ्यता की प्रतिष्ठा का प्रश्न है, इनपर कोई आंच न आने पाए। इन बर्बर लुटेरों के ये वंशज कभी यह न कह पाएं कि भारत के योद्धा स्त्रियों का सम्मान नहीं करते थे।”
1857 का साल था। कानपुर ही क्या, देश जल रहा था। राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के प्रण के साथ निकली क्रांतिकारियों की सेना कानपुर पर कब्जा जमा चुकी थी। अधिकांश अंग्रेज मारे गए थे और शेष भाग गए थे। भागते समय उन्हें अपनी पत्नियों बच्चों का शायद ध्यान नहीं आया था। पर क्रांतिकारियों को तो भारतीय परम्परा का ध्यान था। सो यह जिम्मेवारी उस बालिका को दी गयी।


कानपुर जीत चुके क्रांति दल को वहीं रुकना तो था नहीं। वे अपने बलिदान के मूल्य पर स्वतंत्रता की अलख जगाने निकले थे। उनकी यात्रा लम्बी थी। दल का नेतृत्व कर रहे पेशवा नाना साहेब आगे निकले।
अंग्रेजों को जैसे ही पता चला कि नाना साहब आगे बढ़ गए, वे फिर कानपुर में घुस गए। उसी समय एक टुकड़ी की दृष्टि अंग्रेज स्त्रियों और बच्चों को लेकर चल रही उस बालिका पर पड़ी। पल भर में फिर तलवारें खींच गईं। कुछ मिनटों तक चले युद्ध में बालिका का इकलौता अंगरक्षक वीरगति पा गया और बालिका पकड़ ली गई। घुड़सवार अंग्रेज ने बालिका से पूछा, “कौन है तुम?”
बालिका ने सहज भाव से उत्तर दिया- मैना! पेशवा नाना साहब की बेटी मैना!
अंग्रेजों को जैसे बड़ी निधी मिल गयी। लगा, अब तो नाना साहब भी पकड़ में आ जाएंगे। इस बच्ची को तोड़ लेना कितनी देर का काम है… उन्होंने बच्ची पर दबाव बनाना शुरू किया कि वह क्रांतिकारियों का पता बताए।
पर वह तो पेशवा की बेटी थी न! महान योद्धा बाजीराव की परम्परा से थी, वह क्या ही टूटती। अंग्रेजों ने उसे बहुत भय दिखाया, पर उसके ऊपर कोई असर नहीं हुआ।
दुनिया पर अपनी सांस्कृतिक श्रेष्ठता थोपने निकले अंग्रेज अपनी औकात पर उतर आए। उन्होंने बालिका को एक पेड़ में बांध दिया और क्रूरता से पीटने लगे। पीड़ा से तिलमिला उठी बच्ची फिर भी शांत रही। अंग्रेज ने कहा- अब से भी अपने साथियों का पता बता दो, हम तुम्हें छोड़ देंगे।
बालिका के अधरों पर मुस्कान उभरी। कहा, “एक अपने प्राण की रक्षा के लिए असंख्य योद्धाओं के प्राण सङ्कट में डालूँ, जीवन का इतना भी मोह नहीं। आप जो कर रहे हैं कीजिये, मुझे मृत्यु का भय नहीं।”
अंग्रेज कांप उठा। उसने मृत्यु के भय से धर्म छोड़ते लोगों को तो हजार बार देखा था, पर राष्ट्रधर्म के लिए मृत्यु को इतनी सहजता से स्वीकार करती बालिका को पहली बार देखा था। उसने पेड़ के आसपास सुखी लकड़ियां खड़ी करवाई और आग लगा दिया। स्वयं को सभ्य बताने वाले बर्बर लुटेरे एक नन्ही बालिका को जीवित जला रहे थे। अंग्रेज ने निकट जा कर फिर पूछा- “तुम हमारी ही स्त्रियों को सुरक्षित पहुँचाने आयी थी और अब हम ही तुम्हे जिंदा जला रहे हैं। तुम्हे नहीं लगता कि तुम मूर्ख हो?”
अग्नि अब बालिका के शरीर को छूने लगी थी। जीवित जलने की पीड़ा उसके चेहरे पर उभर रही थी। उसने साहस बटोर कर कहा- इस प्रश्न का उत्तर अपनी स्त्रियों की आँखों में ढूंढना। मेरा क्या, मेरा बलिदान मुझे और मेरे राष्ट्र दोनों को अमर कर देगा।
अंग्रेज ने देखा अपनी स्त्रियों की ओर, उन सब की आंखों से अश्रु बह रहे थे। उनके हाथ जुड़े हुए थे, और मस्तक लज्जा से झुका हुआ था।
अंग्रेज ने पूछा- लेकिन इससे मिला क्या? हमने तो तुम्हे मार ही दिया।
पीड़ा के चरम में भी मुस्कुरा उठी लड़की। कहा, “व्यक्ति की मृत्यु से राष्ट्र की मृत्यु नहीं होती। हम राष्ट्र की दीर्घायु के लिए मर रहे हैं, यही हमारा चयन है। आज तुम इसे नहीं समझ पाओगे, पर एक न एक दिन दुनिया समझेगी कि हमारा बलिदान कितना आवश्यक था।”
कुछ देर में ही उस बालिका की केवल राख बची, पर किसी ने उसकी चीख नहीं सुनी थी। वह पेशवा की बेटी थी।

Veerchhattisgarh

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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