प्रसिद्ध पातकी : विष्णुसहस्रनाम में पूतात्मा..एकादशी की राम राम

माई री मैंने गोविन्द लीनो मोल

बात करीब 30-35 साल पुरानी होगी। पिताजी से स्वामी राम की भेंट हुई और उन्होंने अपनी तमाम पुस्तकें उन्हें भेंट की। इनमें से एक थी उनकी आत्मकथा ‘लिविंग विद द हिमालयन मास्टर्स’ का हिंदी अनुवाद….‘पूतात्मा हिमालय में महात्माओं के साथ’। इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद अब भी बाजार में उपलब्ध है किंतु इसका नाम बदल दिया गया है। बहरहाल, इस नाम में मुझे एक शब्द ने बहुत अपील किया, ‘‘पूतात्मा’’।

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बाद में देखा तो पता चला कि यह तो भगवान विष्णु का एक नाम भी है। ‘पूतात्मा’ उस व्यक्ति या आत्मा को कहा जाना चाहिए जिसका अंतकरण शुद्ध हो। पवित्र हो। विष्णुसहस्रनाम में आता है :-
पूतात्मा परमात्मा च मु्क्तानां परमा गति:।

अव्यय: पुरुष: साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च।।

भगवान के बारे में वेदांत केसरी का स्पष्ट घोष है… ‘‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्।।’’ श्रीहरि कैसे हैं? वे आदित्य वर्ण के हैं और तम से कोसों दूर हैं। वैसे भी जहां भगवान होंगे वहां भला तम कैसे रह सकता है। आदित्य के आगे भला अंधकार का क्या काम?

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आज गीता जयंती है। भगवान ने इसमें अर्जुन के माध्यम से पूरी मनुजता को सही सही ढंग से कर्म करने का ज्ञान दिया है। कर्म से आप नहीं बच सकते। कर्म करना ही है। किंतु कर्म ऐसा करना है कि उसके कोई संस्कार या वासना हमारे अंतकरण में न बने। यही मार्ग आपके भीतर पवित्रता का विस्तार करेगा। भगवान वासुदेव ने अपने बारे में कहा है कि न तो उन्हें कर्म दूषित करते हैं और न ही उनमें कर्मफल की कोई स्पृहा बोले तो इच्छा है।

‘‘न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ।।’’

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वैसे मजेदार बात है कि पूतात्मा जिस शब्द पूत से बना है, उसका एक अर्थ है कपड़े से छानना। टकसाली भाषा में कहे तो कपड़ छन्न करना। शिवपरिवार की एक तस्वीर बहुत अच्छी लगती है। महादेव बाबा और माता पार्वती एक वस्त्र को विपरीत सिरों से पकड़े हुए हैं और विजया छानी जा रही है। अब जरा विचार करके देखिए कि ईश्वर इतने महीन हैं कि कितना भी बारीक कपड़ा बना लो, वे उसमें शत-प्रतिशत छनकर बाहर आ जाएंगे क्योंकि वे पूतात्मा है। सर्वांगीण पवित्र हैं। फिर उन्हें चाहे तो छान कर देख लो या तोल कर देख लो। अंदर-बाहर, ऊपर-नीच, हर जगह बस वही एक पवित्र आत्मा। वही पूतात्मा।

तो राजन्, अब प्रश्न उठता है कि हमारा अंत:करण किस प्रकार पवित्र हो, शुद्ध हो। इसका सबसे सरल और निरापद तरीका है श्रीहरि के नाम का स्मरण, जप, कीर्तन। यह इतना बलशाली तरीका है कि इसमें आपका सर्वस्व उसी प्रकार विलीन हो जाएगा जैसे पानी में नमक की ढेली। विष्णु सहस्रनाम भी भगवान के नामों का कीर्तन ही है।

अज्ञानतो ज्ञानतो वा वासुदेवस्य कीर्तनात्।।
तत् सर्वं विलय याति तोयस्थं लवणं यथा।।
(जाने-अनजाने में भगवान वासुदेव का कीर्तन करने से सब (कलुष) उसी प्रकार से विलय हो जाते हैं जैसे जल में नमक घुल जाता है)

एकादशी की राम-राम

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