सर्वेश तिवारी श्रीमुख : अभिव्यक्ति के ये नए तरीके संस्कारहीनता के परिचायक नहीं है
पिछले दिनों एक प्रसिद्ध मंदिर गए थे। साथ में परिवार था। सब लोग इधर उधर घूमने-देखने लगे तो हम यूँ ही मन्दिर के सामने भूमि पर बैठ गए। उस बड़े परिसर में हजारों की भीड़ थी। बूढ़े, जवान, बच्चे… स्कूलों के बच्चे, लड़कियां… एक एक विग्रह के आगे माथा टेकते बच्चे, पुजारी जी से श्रद्धा भाव के साथ तिलक कराती बच्चियां… नई पीढ़ी को आस्थावान और श्रद्धा भरा हुआ देखना भी कम सुखद नहीं है। सच कहें तो अधिक प्रसन्नता यही देख कर हुई।
उस भीड़ में मोबाइल से तस्वीर खींचने/ वालों की संख्या भी कमी नहीं थी। एक व्यक्ति की सौ सौ तस्वीरें, कभी सीढ़ी पर बैठ कर तो कभी नन्दी महाराज के साथ, तो कभी यूँ ही मन्दिर के आगे… पर इसमें एक बात विशेष थी, मोबाइल से दनादन फोटो खींचने वाले सभी युवक युवतियां ही थे, बुजुर्गों की इसमें कोई रुचि नहीं थी। वे शांत भाव से देव दर्शन में लगे हुए थे। तो क्या यह मान लिया जाय कि नई पीढ़ी केवल फोटोबाजी करने मन्दिर जा रही है? नहीं! मुझे लगता है, ईश्वर के प्रति श्रद्धा अलग अलग आयु में अलग अलग रूपों में व्यक्त होती है।
पर्व, तीर्थाटन या अन्य कोई धार्मिक आययोजन हो, बुजुर्गों के लिए यह ईश्वर का सानिध्य पाने का अवसर होता है, पर युवा पीढ़ी के लिए यह उत्सव ही/भी होता है। इसमें कुछ नया नहीं। मोबाइल आने के पहले भी यही होता था। युवक दीवाली की प्रतीक्षा करते थे पहलवानी और तरह तरह की प्रतियोगिताओं के लिए… युवा पहले भी होली की प्रतीक्षा महीने भर दरवाजे दरवाजे होने वाले फगुआ और चैत चइता गाने के लिए करते थे… छठ पर्व माताओं, बुजुर्गों के लिए छठी मइया को श्रद्धा अर्पित करने और कुछ मांगने का दिन है, पर युवकों युवतियों बच्चों का ध्यान सदैव नए कपड़ों, सजावट, पटाखे आदि पर ही रहा है। हर रोज उत्सव का बहाना ढूंढना तरुणाई का गुण है, यह हर युवा में होगा ही… आज के समय में नई पीढ़ी का हर जगह तस्वीर सहेजना, हल्ला मचाना, उछल कूद करना बस वही उत्सव मानना ही है, और कुछ नहीं…
यह सनातन व्यवस्था की वैज्ञानिकता है कि वह अपनी युवा पीढ़ी के आनन्द के लिए त्योहारों के सात्विक उत्सव का सृजन करती है। जिस देश, जिस संस्कृति में यह पारंपरिक व्यवस्था नहीं है, वहाँ के युवा अंततः हिंसा, लूट, अत्याचार में आनन्द तलाशते हैं।
पूजा पाठ या अन्य धार्मिक आध्यात्मिक गतिविधियों में ही आनन्द मिलने लगे, ऐसा सामान्य के बुढ़ापे में ही हो पाता है। वह श्रद्धा, चरित्र में वह कोमलता उसी आयु में आ पाती है। ईश्वरीय कृपा से किसी में यह गुण युवावस्था में ही आ जाय, तो अलग बात है।
हां तो बात यह है कि युवा पीढ़ी बहुत असंस्कारी हो रही हो, ऐसा अब मुझे नहीं लगता। पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बदले संसार में इस नई पीढ़ी की अभिव्यक्ति के तरीके बिल्कुल ही नए हो गए हैं, जिससे हमें लगता है कि वे संस्कारहीन हो रहे हैं। पर ऐसा है नहीं… मूल नहीं मरता! बांस की जड़ से रेंड़ नहीं उगता दोस्त, बांस ही उगता है।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।