देवांशु झा : राम की शक्तिपूजा.. एक विचार
मैं नहीं जानता, रामकाव्य को रचते हुए निराला के मन में कौन से महाकवि सर्वाधिक कौंध रहे थे। वाल्मीकि? या भवभूति-कालिदास या फिर तुलसीदास?यों कथा का एक अंश तो उन्होंने बंगाल के मध्यकालीन कवि कृतिवास से ग्रहण किया है। किन्तु राम की शक्तिपूजा किस महाकवि की काव्य-प्रकृति से मेल खाती है? इसमें रत्तीभर संदेह नहीं कि उनके प्रिय कवि तुलसीदास ही थे लेकिन उनकी बड़ी कविता, राम की शक्तिपूजा अपनी आंतरिक लय और बाह्य संरचना में वाल्मीकीय काव्य के ही निकट मालूम पड़ती है। अपने भाषा-शिल्प, छन्दविधान, भाव और ध्वनि सौन्दर्य के साथ वे संस्कृत के महाकवियों की परम्परा को ही आगे बढ़ाते दीखते हैं। एक तरह से वे अपनी शक्ति को तौलते हुए भी नजर आते हैं—उद्वेल हो उठा शक्ति खेल सागर अपार ! इस चुनौती को स्वीकार कर कविता लिखना कोई साधारण कर्म तो नहीं था। राम की शक्तिपूजा अपनी शक्ति को प्रमाणित करती हुई चलती है-छंद-प्रतिछंद। बड़े आलोचकों विद्वानों की अपनी विवेचना है। मैं एक पाठक के रूप में राम की शक्तिपूजा को संपूर्ण भारतीय साहित्य की निधि मानता हूँ। उसे भारतीय साहित्य की निधि कहते हुए मैं केवल आधुनिक काव्य की ही बात नहीं करता बल्कि संस्कृत के उत्कृष्ट काव्यों को भी समाहित करता हूँ। उस कविता की न जाने कितनी ही भव्य पंक्तियाँ हमारी चेतना में रहती हैं–शतशेलसम्वरणशील नील नभगर्ज्जित—स्वर ! प्रतिपल-परिवर्तित-व्यूह-भेद-कौशल समूह….विच्छुरित वह्नि-राजीवनयन-हतलक्ष्य-बाण..विद्धांग-बद्ध-कोदण्ड-मुष्टि—खर-रुधिर-स्राव !
प्रारम्भिक अठारह पंक्तियाँ युद्धभूमि का विराट चित्र खींचती हैं। वह वर्णन संभवत: संपूर्ण आधुनिक हिन्दी काव्य में अनूठा है। हिन्दी काव्य ही क्यों? संपूर्ण आधुनिक भारतीय साहित्य में लगभग अद्वितीय। वैसा जटिल और अर्थगर्भ समास तो कहीं और पढ़ने को नहीं मिला। और वह केवल शाब्दिक छटा भर नहीं बल्कि अर्थ के कई स्तरों को संभाले हुए, उन्हें छुपाते-उद्धाटित करते चलता है। कमाल की बात है कि युद्धभूमि को चित्रित करते हुए वे केवल जय-पराजय के क्षणों को ही चिन्हित नहीं करते बल्कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्थापनाएं भी करते चलते हैं। वे स्थापनाएं महानायकों की हैं। हमारे आराध्य पुरुषों की। किन्तु उनका मानवीकरण हो चुका है। मानव रहते हुए मानवोत्तर छवि का निर्माण। उदारणार्थ, कविता के प्रारम्भ में हनुमान की शक्ति की स्थापना है। राम की शक्तिपूजा में हनुमान की शक्ति सतत प्रवहमान है। प्रारम्भ में ही वे कहते हैं कि रावण के प्रहार से सभी ध्वस्त हैं—रावण-प्रहार-दुर्वार-विकल वानर-दल-बल ! जहाँ सौमित्र और भल्लपति जाम्बवान समेत अनेकानेक मल्ल छितरा गए हैं वहाँ केवल हनुमान में ही प्रबोधिनी शक्ति रह गई है:
वारित-सौमित्र-भल्लपति-अगणित-मल्ल-रोध
गर्ज्जित-प्रलयाब्धि-क्षुब्ध-हनुमत्-केवल प्रबोध
राम की शक्तिपूजा कविता में राम के साथ-साथ हनुमान किसी द्युति की तरह चमकते रहते हैं। आगे भी इसका साक्षात होता है। बल्कि वहाँ तो उनके प्रचण्ड वेग और बल की ही स्थापना हो जाती है। निराला ने अपनी कविता में संपूर्ण रामायण को नहीं उठाया। राम-रावण युद्ध का प्रसंग चुना। लोकमानस में विराजमान राम के मानवीय उद्वेगों को प्रधानता दी। राम के अंतर्द्वंद्व का गहन चित्रण किया। पृष्ठभूमि में प्रकृति और संपूर्ण परिवेश का भी समुचित ध्यान रखा। यों भारतीय परम्परा में हर बड़ा कवि अपने उपमान प्रकृति में ही ढूंढता है—शतशेलसम्वरणशील नीलनभगर्ज्जित स्वर। सौ-सौ शेल—नुकीले अस्त्रों के चलने से नीलाकाश गरज उठा है। युद्ध के प्रारंभ में जब रावण प्रबल होता है और संध्या नैराश्य के साथ युद्धभूमि में उतरती है, तब राक्षसों के महोल्लास से आकाश तक विकल हो जाता है। उनके पदतल पृथ्वी टलमल होती है!
लौटे युग-दल-राक्षस-पदतल पृथ्वी टलमल..
बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल
है अमानिशा उगलता गगन घन अंधकार
खो रहा दिशा का ज्ञान स्तब्ध है पवन-चार
विरुद्धों का सामंजस्य भी क्या खूब दीख पड़ता है। राम को उन्होंने किसी सुपर हीरो की तरह चित्रित नहीं किया है। कमल जैसा उनका मुख है और चरण नवनीत की तरह कोमल हैं। लेकिन दृढ़ जटा जो मुकुट की तरह सिर पर शोभित है, उसकी लटें-प्रतिलटें खुलकर जब उनके पीठ, वक्ष और बाहु पर बिखर जाती हैं तब दुर्गम पर्वत पर अंधकार के उतर आने जैसा प्रतीत होता है। दिन के युद्ध के पश्चात राम का सैन्य दल कुछ टूटा हुआ है। वानर वाहिनी खिन्न चल रही। लक्ष्मण चिन्ता में डूबे हैं। सभी वानर वीरों की मनोदशा कुछ वैसी ही है। स्वयं राम गहरे उद्वेग में हैं। धीरज उनका आभूषण हैं। वे धीरोदात्त नायक हैं किन्तु उनकी स्थिरता हिल रही है। ऐसे विकट समय में निराला के राघवेन्द्र की स्थिरता बार-बार एक संशय से टूट रही है–रावण की विजय का भय उन्हें कँपा रहा है।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह-रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय
निराला के राम रावण से लड़ने को उद्यत हैं कि जैसे उनका धैर्य जा रहा है और वह बार-बार पराजय की आशंका से विकल भी हो उठते हैं। किन्तु वह राम, राम ही क्या जो हार मान ले..इसलिए निराला के राम का पौरुष जागता है। हार जाने का विचार जानकी के स्मरण मात्र से भंग हो जाता है। जिस शक्ति की आराधना वे काव्य के अंत में राम से करवाते हैं, वही शक्ति सतत उनके साथ रहती है। वह शक्ति जानकी ही है। हाँ, वही जानकी जिसे रावण ने घसीटा था और वाल्मीकि के शब्दों में वह कुररी की तरह रो पड़ी थी। किन्तु वह जानकी कोई साधारण स्त्री तो नही ! वह पृथ्वी तनया है..जिसकी अच्युत छवि राम के हृदय में बसी हुई है। वही जानकी उनके उर में आशा का संचार करती हैं। वे अंधकार में विद्युत की तरह कौंध उठती हैं।
ऐसे क्षण अंधकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
पृथ्वीपुत्री सीता की वह छवि जो आज तक गिरी नहीं–अच्युत!
जानकी का ध्यान आया तो राम विदेह तक जा पहुँचे। प्रथम प्रेम की स्मृति विरह की इस वेला में चमक उठी। विदेह का प्रथम मिलन। नयनों का नयनों से गोपन प्रिय सम्भाषण ! अपनी प्रिया से दूर चिन्ताओं से घिरा मनुष्य उसे याद करते हुए आरम्भ पर जाता है। जब वह पहली बार उससे मिला था। यह राम जैसे महानायक के साथ भी होता है। यहाँ राम एक मानव हैं। प्रियाहीन मानव। उनका मन क्लान्त है। वह क्लान्त मन उस सुकोमल क्षण को याद कर विह्वल हो उठता है, जब प्रिया पहली बार मिली थी। वह स्मृति उन्हें तुरीयावस्था तक ले जाती है।
ज्योति:प्रपात स्वर्गीय-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय
जानकी-नयन कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय..
कमनीय जानकी के नयनों का कम्पन राम के हृदय में प्रेम के साथ पौरुष भर गया। सीता ध्यानलीन राम स्वयंवर के भूत में जा पहुँचे। जहाँ उन्होंने हँसते हुए शिव धनुष को भंग कर डाला था। शिव धनुष का राम के द्वारा भंग किया जाना उनके महान पौरुष का प्रमाण है। वह एक स्थापना है उनके शौर्य की। वहाँ से राम एक महानायक की तरह सामने आते हैं। इसीलिए स्वयं राम को अपना वह पौरुष याद आता है, जो श्रेष्ठ है–
सिहरा तन क्षण भर भूला मन लहरा समस्त
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त
यह कितना सूक्ष्म वर्णन है! मनुष्य जब किसी उद्वेग में रहता है। कोई एक क्षण..एक काँटा उसे बेधता रहता है। वह जो करना चाहता है–वह जो पाना चाहता है–उसी के विचार में डूबा-डूबा वर्तमान को भूल कर पूर्व में चमक उठता है। अनायास ही उसके हाथ उठ जाते हैं या वह कुछ बोल पड़ता है। बड़बड़ा उठता है।
इस कविता में राम महानायक, महापुरुष तो हैं ही..अंत में साधक-धीर धर्म-धन धन्य राम और पुरुषोत्तम भी होते हैं, किन्तु युद्ध के इन क्षणों में उनके भीतर का ऊहापोह इतना जटिल, मानवीय और विकराल है कि प्रतिक्षण वे माया का खेल देखते हैं। अभी जिन राम के हाथ धनुर्भंग को उठ गए थे। वही राम अगले क्षण हताश हो जाते हैं क्योंकि आज युद्ध में उन्हें महाशक्ति रावण के साथ दिखाई देती हैं..
फिर देखी भीमामूर्ति आज रण देखी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ-बुझ कर हुए क्षींण
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन
लख शंकाकुल हो गए अतुल बल शेषशयन
खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खल खल
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल
ये पंक्तियाँ उस गूढ़ रहस्य का उद्घाटन करती हैं, जो कविता की आत्मा है। राम शक्ति की आराधना क्यों करते हैं? इसलिए करते हैं कि वे युद्ध में परम शक्ति की भीमामूर्ति को रावण के साथ देखते हैं। महाशक्ति पूरे आकाश में छाई हुई हैं, जो उनके समस्त दिव्यास्त्रों को सोख ले रहीं। वे निष्प्रभावी होकर उस भीमामूर्ति में विलीन हो जा रहे। इस विचित्र खेल पर रावण हँस रहा। राम के नयन भावित हो जाते हैं।वहाँ से दो मुक्तादल गिरते हैं।
मुक्तादल को सबसे पहले किसने देखा? हनुमान ने। ध्यान देने वाली बात यह है कि एक महाशक्ति राम को आकाश से निष्प्रभावी कर रही हैं। दूसरी एक अनन्य शक्ति हनुमान की है, जो राम के अश्रु देखकर उद्वेलित हो उठती है। धरती पर उस क्षण दूसरी महाशक्ति हनुमान की ही है। एक प्रबोधिनी शक्ति हैं। सतत जाग्रत..सतत चिन्तनशील। सतत स्वयं को राम को सौंपे हुए हनुमान : टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल, संदिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल। फिर तो हनुमान प्रचंड वेग से उमड़ पड़े। वह उनचास पवनों को एकत्र अपने वक्ष पर बहाते हुए उड़ चले। समुद्र को जैसे उन्होंने मथ डाला। शत-शत तरंगें उठने गिरने लगीं। जलराशि का पहाड़ उठ खड़ा हुआ। हनुमान के वेग से देश-भाव अतल में डूबने लगा। वे तो आकाश को ही ग्रसने चले। तभी उनकी माता आकाश में अवतरित हुईं। उन्होंने हनुमान को अनर्थ करने से रोका। क्यों रोका? क्योंकि उस महाकाश में स्वयं शिव का वास है। हनुमान तत्क्षण लौट आए। दासत्व और दीनभाव से राम के चरणों में बैठ गए। कविता की आत्मा इन्हीं विविध मनोवेगों की स्थापना में है। वह इतना सघन, इतना अप्रत्याशित लोमहर्षक है कि पाठक डूबता चला जाता है। निराला के राम का नैराश्य इतना गाढ़ा हो जाता है कि वह सुग्रीव और हनुमान के तेज, प्रचण्ड वेग और विभीषण के आश्वासनों से भी शांत नहीं पड़ता। राम हताश हैं। नतनयन कहते हैं, मित्रवर, विजय होगी न समर..
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण
अन्याय जिधर हैं उधर शक्ति। कहते छल-छल
हो गए नयन, कुछ बूँद पुन: ढलके दृगजल
पुन: राम कहते हैं
आया न समझ में यह दैवी विधान
रावण अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर
यह रहा, शक्ति का खेल, समर, शंकर शंकर..
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित
वे शर हो गए आज रण में, श्रीहत खण्डित
राम का धर्मसंकट यह कि…
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध युद्ध को मैं ज्यों ज्यों
झक झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों त्यों
किन्तु क्या यह धर्मसंकट मात्र है? यह उस विराट माया का खेल नहीं जो राम जैसे धीर को क्षण-क्षण विचलित करती चलती है। यह माया इस कविता का प्राण है। वह छायी हुई है कुहरे की तरह, जो सरोवर के ऊपर छाया रहता है। धूप उसे काटती है। सरोवर अपना रूप खोलता है। कविता का रूप अंत में खुलता है। निराला संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ देसी शब्दों का कितना सुन्दर मेल..अपूर्व सामंजस्य स्थापित करते हैं। मानो, महानद के साथ छोटी-छोटी सलिलाएं चल रही हों। राम कपिदल को विचलित देख कर युद्ध को उमड़ रहे हैं किन्तु आकाश में वामा के दृग अग्नि के समान झक-झक कर रहे..
फिर खिंचा न धनु मुक्त ज्यों बंधा मैं, हुआ त्रस्त..
इस कविता में शक्ति मायारूप में विराजमान हैं। वह शक्ति कभी सीता है, कभी साक्षात देवी की भीमामूर्ति तो कभी वामा। इन सबसे परे एक शक्ति हनुमान की है। जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। कविता में अंत तक राम यह अनुभव करते चलते हैं कि देवी रावण के साथ हैं। अंतत: में वे देवी का आराधन करते हैं। रावण के आराधन का उत्तर राम का दृढ़ आराधन है..!
निराला के राम देवी को एक सौ आठ इन्दीवर चढाने को तैयार होते हैं।
अब राम समाधिस्थ हैं। शरासन नहीं हैं। तूणीर नहीं हैं। कस कर बंधी हुई जटा नहीं है। रण का कोलाहल अपार सुनाई पड़ता है लेकिन उस रण की ओर नहीं उमड़ते। वे ध्यानस्थ हैं अन्य शक्ति के आराधन में।
है नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़ जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध
सुन पड़ता सिंहनाद, रण कोलाहल अपार
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार
आठवें दिवस तक राम की साधना से….
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध..
केवल एक इन्दीवर रह गया। एक सौ आठवाँ। राम ने बंद नेत्रों से हाथ फेरा तो पुष्प गायब था। विकल राम के नेत्र खुल गए। देखा अंतिम नीलकमल तो है नहीं। राम को लगा कि साधना विफल हो गई। स्वयं को ही धिक्कार उठे–
धिक..जीवन को जो पाता ही आया विरोध
धिक साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका
वह एक और मन रहा राम का जो न थका
राम स्वयं को धिक्कार कर ही चुप नहीं रहे। अपना सर्वस्व देने को तैयार हो गए। जो मन इस माया के खेल से भी पराजित नहीं हुआ वह जानकी के उद्धार के लिए पुन: उपाय खोज लाया। राम को अपनी माता का ध्यान आया, जो उन्हें सदा राजीव नयन कहती रहीं। तो.. एक नयन, जो कमल जैसा है, वही देवी को अर्पित कर प्रसन्न करेंगे राघव। वैसे भी जिस नयन से जानकी को देखते रहे, वे नयन जानकी के बिना बेकार ही हैं!!
दो नीलकमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात: एक नयन
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गए सुमन
जिस क्षण बंध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय
काँपा ब्रह्माण्ड हुआ देवी का त्वरित उदय
साधु साधु साधक धीर धर्म-धन धन्य राम
कह लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम..
देवी राम को यह आशीष देकर उनके ही बदन में अन्तर्धान हो गईं–हे पुरुषोत्तम नवीन, तुम्हारी ही जय होगी। निराला के राम पुरुषोत्तम हैं। धीरे-धीरे पुरुषोत्तम पद को पाते हैं। स्वयं देवी उन्हें पुरुषोत्तम कहती हैं। निराला के राम नवीन भी हैं। जिन्होंने अपनी साधना से देवी को प्रसन्न किया है, जो जानकी के उद्धार के लिए अपना एक नेत्र ही चढ़ाने को उद्यत हो गए हैं। निराला के राम अपने रामत्व के साथ उनके भीतर भी दमकते हैं । उनके राम कहते हैं, जानकी ! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका ! और स्वयं निराला कहते हैं; धन्ये ! मैं पिता निरर्थक था…हो इसी कर्म पर वज्रपात…यदि धर्म रहे नत सदा माथ।
वहाँ निराला के राम जानकी के उद्धार के लिए रोते हैं। यहाँ निराला के भीतर के राम अपनी पुत्री की अकालमृत्यु पर अपने कविकर्म को ही कोसते हैं:
इस पथ पर मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के से शतदल!!
यह ऐसी विराट कविता है कि इसे समझने-बूझने का क्रम अनवरत जारी है। लगभग सौ वर्ष होने को हैं लेकिन समालोचनाएं लिखी जा रहीं। बड़े-बड़े आलोचक, आचार्य, विद्वान नतमस्तक हुए। अनेकानेक पुस्तकें, समीक्षाएं लिखी गईं। मैं पूरी सत्यनिष्ठा से कह सकता हूँ कि समालोचक नहीं हूँ। कोई समालोचना लिखी भी नहीं। जो कुछ समझ में आया, वह लिख गया। ये समीक्षा के शतदल नहीं, स्वयं झरे हुए हरसिंगार हैं। मैंने चुने हैं। वही अर्पित कर रहा हूँ।
यह आलेख मेरी पुस्तक,जिस पथ गए राम में संकलित है।
