शिवराज की शख्सियत का राज ! ..आँकलन /जयराम शुक्ल

नेता कुम्हार के घड़े की तरह ठोक-पीटकर गढ़े जाते हैं या फिर नेतृत्व का गुण लिए हुए पैदा होते हैं, यह बहस बहुत पुरानी है लेकिन जब मैं शिवराज सिंह चौहान का आंकलन  करने बैठता हूं  तो तीसरी बात निकलकर आती है जो ऊपर की दोनों बातों को फेंटकर निकलती है।

लेखक : जयराज शुक्ल (वरिष्ठ पत्रकार)
बिना किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले जैत के एक साधारण किसान प्रेम सिंह के घर शिवराज नेतृत्व का गुण लेकर पैदा हुए और राजनीति के कुशल कुम्हारों कुशाभाऊ ठाकरे व सुंदरलाल पटवा जैसों के हाथों घड़े की तरह गढ़े भी गए। यही वजह है कि मध्यप्रदेश में जब भाजपा सरकार के नेतृत्व का सवाल उठता है तो शिवराज सिंह चौहान के मुकाबले कोई भी दूर-दूर तक नजर नहीं आता।
इस बार भी ऐसा ही हुआ। कमलनाथ सरकार के कुनबे  के बिखरने के बाद जब संगठन ने किसी ‘सर्वस्पर्शी-सर्वसमावेशी’ चेहरे की खोजबीन शुरू की तो शेष सभी चेहरे ब्लर नजर आए सिवाय शिवराज के। 24 मार्च 2020 को करोना के साए के बीच जब वे शपथ ले रहे थे तो एक तरह से सचिन तेंदुलकर की तरह डान ब्रेडमैन के कई रेकार्ड तोड़ रहे थे..सबसे ज्यादा बार, सबसे लंबे कार्यकाल वाले मुख्यमंत्री के तौर पर।
कमलनाथ की सरकार कैसे गिरी, इसकी व्यूहरचना में कौन-कौन था। सबसे ज्यादा पराक्रम किसने किया यह किसी अलग किस्से का विषय है। यहां विषय यह कि आम आदमी से चेहरे-मोहरे वाले इस  ‘डेढ़ पसली’ के शख्स में ऐसा क्या है कि इसके सामने बड़े-बड़े दिग्गजों के धुर्रे विकेट की गिल्लियों की तरह बिखर जाते हैं। वे दिग्गज चाहे बाहर वाले हों या फिर भीतर वाले।
आइए इसकी शुरू से पड़ताल करते हैं।
        सियासत की डगर पर एक स्कूली लड़का
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भला सोलह सत्रह साल की कोई उमर होती है जेल जाने की। खासकर तब जब लड़का पहले ही साल कालेज में दाखिला ले। यह उमर तो सिनेमाबाजी और सुट्टा बार में यारों के साथ चाय सुड़कने की है। पर शिवराज सिंह नामक इस लड़के को पुलिस ने पकड़ा और इटारसी जेल में बंद कर दिया। गुनाह..? सरकार के खिलाफ नेतागिरी करना। सरकार इंदिरा गांधी की थी और आपातकाल लगा था। ये वर्ष 76-77 की बात है। जैत से पँचवी तक पढ़कर भोपाल आए इस दुबले पतले ग्रामीण लड़के में ‘कुछ तो’ रहा होगा कि उन दिनों भोपाल की सर्वश्रेष्ठ मॉडल  स्कूल में इसे छात्रसंघ अध्यक्ष चुन लिया गया। न जाने कितने आला अफसरों, बड़े नेताओं और धन्नासेठों के बच्चों की जमात के बीच से।
इमरजेंसी हटने और कथित दूसरी गुलामी की लंबी रात के बाद पौ फटने पर शिवराज सिंह चौहान जब जेल के फाटक से निकले तब ‘पूर-पार’ नेता बन चुके थे। कंधे पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रांत महासचिव की जिम्मेदारी डाल दी गई। पढ़ो और व्यवस्था के खिलाफ लड़ो। बस यहीं से पतंग चंग पर चढ़नी शुरू हुई। लेकिन राजनीति के धुंधले आसमान में इसकी चमक तब और बढ़ी जब 1988 में इन्हें संगठन के हरावल दस्ते भारतीय जनता युवा मोर्चे की कमान दे दी गई, शिवराज मेनस्ट्रीम की पालटिक्स में आ गए।
सुर्खरू होता है इंसा ठोकरे खाने के बाद
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पद पाकर शिवराज घाट में बैठकर लहरें गिनने वालों मे से नहीं थे वरन पत्थर फेंककर हलचल पैदा करने वालों में थे। सूबे में कांग्रेस की सरकार थी। अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा अदल-बदलकर मुख्यमंत्री बन रहे थे।  इसी बीच शिवराज ने भाजयुमो की मशाल क्रांति का आह्वान कर दिया। ले मशालें चल पड़े हैं लोग अपने गांव के, अब अंधेरा  जीत लेंगे लोग अपने गांव के.. था तो यह साक्षरता का प्रयाणगीत लेकिन मोर्चे के कार्यकर्ताओं के बीच खूब चला।
मैं तब सतना से निकलने वाले यशस्वी अखबार देशबंधु का हिस्सा था। मोर्चे के संभागीय और जिले के पदाधिकारी सभी परिचित क्या मित्र थे। शिवराज की टीम के उपाध्यक्ष कमलेश्वर सिंह ने बताया कि मशाल क्रांति यात्रा लेकर शिवराज जी आ रहे हैं, उनकी प्रेस कांफ्रेंस करा दो। वे रीवा में शिवराज जी को लेकर मेरे दफ्तर आए और बगल के काफी हाउस में उनकी पीसी हुई। शिवराज के जूते के तल्ले घिस क्या फट चुके थे। एक कार्यकर्ता नया जूता लेकर आया। शिवराज फिर वही ताजगी ककार्यकर्ताओं के साथ अगले मुकाम की ओर बढ़ लिए।
पांव में चक्कर, मुँह में शक्कर और सिर पर बर्फ.. शिवराज के मुंह से समय-बेसमय निकले वाली इस उक्ति का असली मतलब मैं भोपाल में आने के बाद समझा तब तक वे बुधनी में पांव -पांव  वाले भैय्या के तौर पर सरनाम हो चुके थे। अब कोई एक लाइन में शिवराज की शख्सियत को जानना चाहे तो बड़े लेख की जरूरत नहीं ऊपर की उक्ति पढ़ ले।
इस मुकाम तक पहुंचने के बाद शिवराज सुंदरलाल पटवा के पटु शिष्य बन चुके थे। तब पटवा जी का रुआब विपक्ष में रहते हुए भी मुख्यमंत्री से कमतर नहीं था। वे अपनी धारदार भाषण शैली और सरकार पर गुप्ती की भाँति प्रहार करने के लिए जाने जाते थे। वे शिवराज के व्यक्तित्व की धार वैसे ही दे रहे थे जैसे नए
उस्तरे को पत्थर की बट्टी में घिसकर दी जाती है।  देश में तब बोफोर्स की नाल से धुंआ  गुगुआ रहा था इसी बीच 89 में लोकसभा के चुनाव हुए।
 प्रदेश के मोर्चा अध्यक्ष बनने का असली फायदा अब मिला। विदिशा से अटलजी मैंदान पर थे(लखनऊ से भी)। राष्ट्रीय नेता की सीट के प्रचार की कमान संभाली  शिवराज ने। उन्हें अटलजी का दुर्लभ सानिध्य मिला। इसके बाद तो शिवराज तब तक टिकटाकांक्षी नहीं अपितु टिकट बाँटने वालों की पंक्ति में जा बैठे। वे खुद के लिए बुधनी की सीट चुनी और मोर्चा कोटे से पच्चीस से तीस सीटें दिलवाईं भी।  वे प्रायः जीते भी।
पटवा जी प्रदेश के मुख्यमंत्री चुन लिए गए। शिवराज कैसे शांत बैठते उन्होंने मोर्चे से आए विधायकों का एक क्लब भी बना लिया। मीडिया में खबर उड़ी कि शिवराज के नेतृत्व में युवा विधायक बगावत के मूड में हैं.(जबकि ऐसा कुछ नहीं था)। अगले दिन ही पटवा जी नव विधायक क्लब जा धमके। मीडिया की सुर्खियां फुस्स हो गईं।
उन्हीं युवा विधायकों की क्वांटम एनर्जी पटवा जी ने विधानसभा में श्यामाचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा, कृष्णपाल सिंह जैसे दिग्गजों से निपटने में लगाई। मैं इसे ‘लकी 90 बैच’ कहता हूँ जिसमें शिवराज के अलावा कैलाश विजयवर्गीय, नरोत्तम मिश्र, ब्रजमोहन अग्रवाल, रमन सिंह, प्रेमप्रकाश पांडेय आदि थे। छत्तीसगढ़ की गणित जमाने की गरज से पटवा जी ने ब्रजमोहन और प्रेमप्रकाश को मंत्रिपरिषद का सदस्य बना लिया। पटवा के खास शिवराज का मंत्रिपरिषद में न लिया जाना सभी को चौंकाया..पर कौन जाने पटवा जी की योजना में शिवराज को लेकर क्या है।
मैं हूँ न..शाहरुख और शिवराज
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यह बात उस दिन की है जिस दिन  पटवा के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के खिलाफ विधानसभा में विपक्षी दल यानी कि कांग्रेस  अविश्वास प्रस्ताव लाया। विपक्ष की बेंच पर एक से एक दिग्गज थे। तीन तो पूर्व मुख्यमंत्री। पटवा सरकार पर तीखा हमला बोला गया। मोतीलाल वोरा, फिर अर्जुन सिंह और अंततः नेता प्रतिपक्ष श्यामाचरण शुक्ल बोले। तब मिंटो हाल में लगने वाली विधानसभा परिसर में तल्खी और रौनक दोनों घुली हुई थी। दर्शक दीर्घाएं खचाखच भरी हुई। मार्शल चौकन्ने, उसदिन अपन पत्रकार दीर्घा में थे। पटवा जी ने सरकार की ओर से जवाब देने वाली विधायकों की आर्टलरी का कमांडर शिवराज को बनाया। वह कोई पौने दो घंटे का धाराप्रवाह भाषण था। शिवराज ने तथ्यों, तर्कों और आँकड़ों के साथ वैसे ही मोर्चा लिया जैसे महारथियों के सामने अभिमन्यु। और भाषण का समापन पहले श्यामाचरण और फिर अर्जुन सिंह को लक्ष्य करते हुए आखिरी तीर छोड़ा-  सूपा बोले तो बोले चलनी क्या बोले जिसमें छत्तीस सौ छेद हैं। विपक्ष में सन्नाटा और इधर ट्रेजरी बेंच में थपथपाहट की गूंज ।  85 से विधानसभा की बहसें देखने को मिलीं लेकिन 90 की विधानसभा के उस अविश्वास प्रस्ताव के बहस के क्लाइमेक्स को आज तक की कोई बहस वैसे नजदीक फटक पाई जैसे कि फिल्मों में शोले के निकट कोई अन्य फिल्म..। नेतृत्व तो देखा था पर शिवराज के वक्तृत्व से पहली बार साबिका पड़ा..।
हम कुछ मित्र रात को क्वालिटी रेस्टोरेन्ट में डिनर कर रहे थे। सामने लगे टीवी पर दूरदर्शन का सीरियल फौजी आ रहा था। एक पत्रकार मित्र ने टिप्पणी की यह छोरा भी शिवराज की तरह बहुत आगे जाएगा। वह छोरा शाहरुख खान था जो अपने जीवन के संभवतः पहले सीरियल में डेव्यू टर रहा था। किसी उभरते नेता के पराक्रमी व्यक्तित्व से किसी अभिनेता की ऐसी तुलना पहली और आखिरी बार सुनी..। लेकिन जो सुनी वह सच निकली। बताने की जरूरत नहीं इन दोनों का करियर एक साथ शुरू होता है..उधर वह किंग खान और इधर ये…मामाजान!
और हाँ.. ‘मैं हूँ ना, यह डायलॉग जो शिवराज के चरित्र में फेवीकोल की तरह चिपक गया है वह भी शाहरुख की चर्चित फिल्म का एक मुखड़ा भी है। ‘मैं हूँ ना’ जातिधर्म से ऊपर एक भरोसे का संवाद है जो शिवराज को भाजपा के अन्य नेताओं से अलग करता है।
बालपन से ही भगवा ध्वज को नमन करने वाले शिवराज मुसलमानों के बीच सबसे भरोसेमंद नेता हैं। न उन्हें नमाज की जालीदार टोपी पहनने से परहेज़ है और न रोजाइफ्तार में जाने से। क्रिसमस पर घर रोशन करना भी उन्हें भाता है। याद करिए धार की भोजशाला में 2006 व 2013 में ऐसी स्थितियां बनी जब शुक्रवार और वसंतपंचमी साथ पड़ी। भले ही मालवा को प्रदेश भर की पुलिस से भर दिया हो पर वहां सरस्वती पूजा भी हुई और नमाज भी। लेकिन जब वे सिर पर गणेश जी की प्रतिमा धरकर बंगले की चौकी में बिराजने निकलते हैं और भजन प्रार्थनाओं में तल्लीन होते हैं तो बड़े-बड़े धरमधुरंधरों को भी पीछे छोड़ देते हैं। यही अदा उन्हें आम आदमी के बीच ले जाकर खड़ा कर देती है।
बहरहाल..अभी सुनिए कुछ बातें और किस्से 1990 से  29 नवंबर 2005 तक की जिस दिन शिवराजसिंह चौहान ने पहली बार मुख्यमंत्री की शपथ ली.। यानि
कि बीच के पूरे पंद्रह साल।
लंबी रेस का घोड़ा अस्तबल में क्यों बंधे
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अविश्वास प्रस्ताव वाले सत्रावसान की रात मुख्यमंत्री पटवा जी ने विधायकों और पत्रकारों को विधानसभा परिसर में डिनर दिया। भोजन का आनंद लेते हुए हम कुछ पत्रकार पटवा जी के पास जा पहुंचे। एक मित्र ने पटवा जी से कहा- भाई साहब आपने शिवराज जी के साथ अन्याय किया। कैसा धुँआधार बोलते हैं आपको उन्हें मंत्रिपरिषद में लेना चाहिए..। पटवाजी मेरी ओर मुखातिब होकर चिरपरिचित शैली में बोले- शुकल जी(वो मुझे यही कहते थे) इन्हें बताइए कि शिवराज लंबी रेस का घोड़ा है उसे अभी से अस्तबल में क्यों बंधवाना  चाहते हैं।
यह बात तब समझ में आई जब विदिशा सीट अटलजी ने खाली कर दी(लखनऊ अपने पास रखी) और उपचुनाव के लिए उम्मीदवार की तलाश होने लगी। दिग्गजों से भरी टिकट कमेटी में कई नाम आए और सहमति नहीं बनी। ज्यादातर सदस्य किसी विधायक को इस्तीफा देकर लड़ाने के पक्ष में नहीं थे। उस बैठक के एक चश्मदीद बताते हैं कि लंबे मंथन के बाद जब कोई सहमति नहीं बनी तब पटवाजी ने अपने तुरुप का इक्का फेकते हुए कहा- अरे अपना शिवराज है न। बस सहमति बन गई। शिवराज, ठाकरेजी,  सारंगजी सभी के चहेते बन चुके थे और अटलजी के चुनाव में घर-घर प्रचार का अनुभव था ही। अटलजी शिवराज को जानने ही नहीं मानने भी लगे थे।
शिवराज विदिशा की लोकसभा सीट से उतर गए और मुख्यमंत्री बनने तक लगातार वहां के सांसद रहे। उनका आबोदाना तो दिल्ली का लिखा था अब भोपाल में क्या ठिकाना। दिल्ली में उनकी उम्मीदों के पर लगे। भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष, भाजपा के महामंत्री, भाजपा संसदीय बोर्ड के सचिव से लेकर इन पंद्रह वर्षों में लोकसभा की कई महत्वपूर्ण समितियों के अध्यक्ष। आपदा को अवसर बना लेने में महारत हाँसिल कर चुके शिवराज अटलजी के अलावा आडवाणी जी के भी चहेते बन गए। प्रमोद महाजन तो एक तरह से उनके मेंटर ही बन गए। इस तरह वे मध्यप्रदेश के शीर्ष नेताओं में सुस्थापित हो चले।
मुख्यमंत्री और नेताप्रतिपक्ष.. दोनों से दो-दो हाथ
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 इन पंद्रह वर्षों में  शिवराज के करियर में दो टविस्ट  भी आए.. वे संगठन चुनाव में जहां विक्रम वर्मा से लड़े वहीं आम चुनाव में दिग्विजय सिंह से ताल ठोकने राघौगढ़ पहुंच गए। हुआ यह कि मध्यप्रदेश की राजनीति में पटवा और कैलाश जोशी के विकल्प की तलाश शुरू हुई। नजरें टिक गईं विक्रम वर्मा जी पर। पटवा, जोशी, गौर की मौजूदगी में उन्हें 1993 में विपक्ष का नेता बनाया गया। पाँच साल तो ठीक चला लेकिन 1998 का चुनाव विक्रम वर्मा हार गए। फिर भी ठाकरे जी चाहते थे कि प्रदेश में संगठन के नेतृत्व की कमान विक्रमजी ही संभालें । उन्हें राज्यसभा भेजा गया। केंद्र में खेलकूद मंत्री भी बने। इस बीच प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाने की बात आई। पटवा जी का विक्रम वर्मा को यह अतिरिक्त वेटेज देना नहीं सुहाया। लिहाजा ठाकरेजी की इच्छा के विरुद्ध पटवाजी ने शिवराज को संगठन के चुनाव में उतार दिया यह बात कोई सन् 2000 के पहले की है। शिवराज जमकर लड़े। भाजपा के हर प्रतिनिधि तक पहुंचे.. हार गए पर कद बढ़ गया।
इसी तरह जब 2003 का चुनाव आया तो शिवराज सिंह को कहा गया कि वे राघौगढ़ जाकर दिग्विजय सिंह से लड़े। शिवराज ने वहां भी जाकर ताल ठोक दी। दिग्विजय सिंह के लिए राघौगढ़ तो आंगन  में परसी थाल है। वे पच्चीस हजार मतों से जीत गए ..लेकिन इस मुकाबले ने शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री मटेरियल बना ही दिया। यद्यपि यह चुनाव उमाभारती की अगुवाई में लड़ा जा रहा था। हारकर शिवराज दिल्ली पहुंच गए।
इधर 10 साल की दिग्विजय सरकार को धूलधूसरित करते हुए उमा भारती शक्तिमयी बनकर उभरीं। उन्हें गुमान था कि जनता ने उन्हें देखकर भाजपा को सत्ता सौंपी है। अपनी आदत के मुताबिक वे संगठन की अवहेलना भी करने लगीं। सत्ता में गाय-गोबर का रंग चढ़ने लगा। पांच  महीने नहीं बीते कि कर्नाटक की एक अदालत से किसी पुराने मामले का गिरफ्तारी वारंट निकल आया..। सो इधर संगठन को मौका मिला उधर शक्तिमयी उमाभारती अपनी तैश में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उन्हें अपना उत्तराधिकारी चुनने का विशेषाधिकार मिला तो वे बाबूलाल गौर को इस पद के काबिल समझा। राजनीति की सागामीती का सबक उन्होंने लालू यादव से नहीं लिया जिन्होंने जेलयात्रा से पहले पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की कुर्सी में बैठा दिया था।
बाबूलाल गौर किशन-कन्हैया निकले। पंद्रह महीने के भीतर ही कई अप्रिय चर्चाओं में घिर गए। वैसे भी उनकी छवि खड़ाऊ मुख्यमंत्री की थी। यद्यपि मैं उन्हें एक विजनरी और परिणाम देयक मुख्यमंत्री के तौर पर याद करता हूँ ..। पर तब तक दिल्ली में पटकथा लिखी जा चुकी थी। शिवराज सांसद रहते हुए प्रदेश संगठन के अध्यक्ष बनाए जा चुके थे। यह संकेत था पर शक्तिमयी उमा भारती समझने को तैय्यार नहीं थी। उनकी वापसी के डर से जो विधायक मंत्री मिलते उन्हें वे अपना पक्का मान रहीं थी..जबकि उनकी भजन में डफली बजाने वाले कैलाश विजयवर्गीय तक उनके नहीं संगठन किरदार थे। यही हुआ। प्रमोद महाजन, अरुण जेटली, संजय जोशी शिवराज जी की ताजपोशी कराने आए तो उस बैठक में उमाजी के तेवर झाँसी की रानीवाले थे। शिवराज को मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया। झाँसी की रानी को नब्बे फीसद विधायक झाँसा दे गए। उधर 29 नवंबर 2005 को जंबूरी मैदान में शिवराज जी ने ईश्वर के नामपर मुख्यमंत्री की शपथ ली इधर शक्तिमयी ने जनशक्ति बनाकर भाजपा की ताबूत पर कीलें ठोकने का ऐलान कर दिया। जिसकी परणति यह हुई कि कालान्तर में वे स्वयं ही बड़ामलहरा से विधानसभा का चुनाव हार गईं।
 डंपर का बंकर, ऐसे हुआ ध्वस्त
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 कुछेक को छोड़कर बाबूलाल गौर व उनके सभी मंत्री शिवराज की कैबिनेट में समा गए। एक नया दौर शुरू हुआ। दिग्विजय सिंह 10 साल तक चुनाव न लड़ने की कसम खा चुके थे लेकिन थे तो विधानसभा के सदस्य ही। शुरू में ही हमले पर हमले।.. लल्ला खेले आन को नाम आन खो होय..जैसी बुंदेली कहावतों के साथ शिवराज पर रोज तंज कसते। केंद्र में कांग्रेस की सरकार और छह महीने के भीतर शिवराज का फिर से चुनकर आना जरूरी। बुधनी की सीट खाली की गई। कांग्रेस ने वहां धनबल-जनबल-केंद्र के सत्ता बल पर घेरा। ऐन वक्त वहां के कलेक्टर को बदलवाया। मतदान की तारीख भी खिसकी लेकिन शिवराज की किस्मत नहीं। चुनाव परिणाम आए तो भारी अंतर से वे चुनाव जीते क्योंकि जनता ने इस बार विधायक नहीं सीधे मुख्यमंत्री चुना था।
शिवराज ने प्रदेश को समझना शुरू ही किया था मुश्किल से डेढ़ साल बीते होंगे कि विपक्ष डंपर लेकर प्रकट हो गया। माफ करिए अपने से ही टूटा पक्ष। महाकौशल के कद्दावर नेता और कभी शिवराज के गाढ़े मित्र रहे प्रहलाद पटेल ने सबसे पसले डंपर को लेकर सार्वजनिक पत्र जारी किया। फिर इसे कांग्रेस ले उड़ी हाईकोर्ट में याचिका दायर हुई। लोकायुक्त ने जांच  शुरू की। लोकायुक्त ने क्लोजर रिपोर्ट पेश की, अदालत में सबूतों के अभाव व तकनीकी कारणों से इसे स्वीकृति कर लिया। मामला हाई कोर्ट गया वहां से भी खारिज होकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। और अंततः 2018 में सुप्रीमकोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए याचिकाकर्ता कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्र पर तल्ख टिप्पणी करते हुए पूरे प्रकरण का पटाक्षेप कर दिया।
अब दिलचस्प मामला ये कि यह शुरू कैसे हुआ। इसका भी एक गजब किस्सा है। चूंकि कि इसके सूत्र रीवा से शुरू होते हैं इसलिए मेरे और भी कौतुक का विषय था। बात दरअसल यह थी कि यहां के तत्कालीन आरटीओ से कमाऊ चौकी के फेर में एक आरटीआई की अदावत हो गई। आरटीआई शातिर दिमाग था, दफ्तर में कुर्सी तोड़ते हुए उसके हाथ कोई कागजात लगा कि चार डंपर किसी साधना सिंह के नाम हैं..उसने गौर किया तो पति का नाम शिवराजसिंह लिखा मिला, सो उसने इसे लीक कर दिया वही भोपाल पहुंच कर बबंडर में बदल गया।
शिवराज के घिरने व घेरे जाने का यह पहला मौका था। दिग्विजय सिंह रोज अपने साथ प्लास्टिक का खिलौने वाला डंपर लेकर विधानसभा जाते थे। लेकिन इसी बीच बाबूलाल गौर जो मुख्यमंत्री से गृहमंत्री में बदल चुके थे उनका बड़े मार्के का बयान आया- हाँ हमारे पास भी हैं डंपर जो फैक्ट्रियों के माल ढ़ोते हैं..उन्होंने पूछा- क्या राजनीति में आने का मतलब यह कि हमारे बच्चे या परिजन आजीवका के लिए कोई व्यवसाय न करें। इसका असर यह हुआ कि शिवराज सिंह ने स्वीकार किया कि वे हमारे ही डंपर हैं..किसान का बेटा हूँ क्या जीविका के लिए कर्ज लेकर डंपर भी नहीं खरीद सकता।
जल्दी ही डंपर कांड विपक्ष की मसखरी का निमित्त बन गया। 2008 के चुनाव में मतदाता डंपर भूल गए। दिग्विजय काल के आखिरी दिनों के कष्टकारी हालात ध्यान दिलाए गए। और तब तक शिवराज प्रदेश भर की बहनों के भाई और बेटे बेटियों के मामा बनने की यात्रा का एक दौर पूरा कर चुके थे। लाड़ली लक्ष्मी, बेटी पढ़ाओ योजना बल्लभभवन से निकलकर गाँवों में पहुँच चुकीं थी। बाणसागर जैसी बड़ी परियोजनाओं के बचे काम पूरा होने साथ नहरें किसानों के खेतों में खुल चुकीं थी। भाजपा से टूटकर निकली जनशक्ति सामने थी लेकिन सबकुछ संगठन ने साध लिया। मतदान तक आधे से ज्यादा जनशक्ति का बाड़ा लाँघकर पुनः भाजपा में आ चुके थे। चुनाव परिणाम निकला और फिर भाजपा फिर शिवराज।
व्यापमं का भी तारा रम पमपम
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गैस त्रासदी के बाद भोपाल जिस दूसरी वजह से दुनियाभर की मीडियों में सुर्खियों पर छाया वह था व्यापम घोटाला। दूसरे कार्यकाल यानी कि 2008-13 के बीच यही छाया रहा। कोई सड़क में गिरकर मरे या हार्ट अटैक आए उसकी मौत व्यापमं घोटाले के साथ जोड़ दी जाती। दिल्ली के एक चैनल के रिपोर्टर व्यापमं से जुड़ी इन कथित मौतों की ग्राउंड रिपोर्ट कवर करने चिलचिलाती गर्मी में झाबुआ पहुंचे। यहां व्यापमं से जुड़ी एक अभ्यर्थी की संदिग्ध मौत हो गई थी उसी का सुराग लगाने। इत्तेफाक से उन रिपोर्टर महोदय की भी मौत हो जाती है। मीडिया ने इसे भी संदिग्ध घोषित कर व्यापमं की साजिश के साथ जोड़ दिया। इस घटना ने व्यापमं की ख्याति दुनिया तक पहुँचा दी। लंदन, न्यूयॉर्क में बैठे पत्रकार भी इस घोटाले की एनालिसिस करने लगे। पूरा व्यापमं प्रकरण एक ऐसी थ्रिलर फिल्म की भाँति परोस दिया गया और विपक्ष ने उसके रहस्यमयी विलेन के तौर पर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को पेश किया। ‘बिलो द बेल्ट’ की पालटिक्स भी शुरू हो गई। विपक्ष ने एक सूची जारी करके बताया कि परिवहन विभाग में नौकरी पाने वाले ये लाभार्थी शिवराज की ससुराल के हैं और इनकी सिफारिश के पीछे उनकी पत्नी हैं। राज्यपाल रामनरेश गुप्त के ओएसडी व बेटे का नाम आया। किसी ने जानकारी लीक की कि एक्सल सीट में उमा भारती और कुछ संघ के लोगों का नाम है। एक्सल सीट, हार्डवेयर, साफ्टवेयर सब घोटाले की शब्दावली हो गए। जैसे पुरातात्विक महत्व के स्थलों में कुछ ठग ताँबे के सिक्के बनवाकर जमीन में गाड देते हैं और पर्यटकों को गुप्तकालीन का बताकर बेंचते हैं वैसे ही कंप्यूटर से निकलीं एक्सल सीटें इंदौर से दिल्ली तक के वायुमंडल में उड़ने लगीं। इस बीच न जाने कितने व्हिसिल ब्लोअर, आरटीआई एक्टविस्ट, याचिका विशेषज्ञ उभर कर सामने आए। सरकार ने विधानसभा में स्वीकार किया कि व्यापमं की परीक्षाओं में कुछ गड़बड़ हुई है और इसके दोषियों को सजा मिलेगी। इसके पहले बड़े शिकार ताकतवर मंत्री रहे लक्ष्मीकांत शर्मा बने। उनके जेल जाने के बाद तड़ातड़ गिरफ्तारियां हुईं। विधानसभा के सभी सत्र व्यापमं में स्वाहा हुए..। और कमाल देखिए घोटाले के घटाघोप के नीचे हुए  2013 के चुनाव में भाजपा पिछले चुनाव के मुकाबले और भी बड़े संख्याबल में लौटी। विपक्ष का अभियान औंधे मुँह गिरा।
यह एक करिश्मा ही था। केंद्र में कांग्रेस की सरकार होते हुए भी उसके सूबेदार भाजपा सरकार और शिवराजसिंह का बालबाका तक नहीं कर पाए। वजह सिर्फ़ और सिर्फ शिवराज और उनका कमाल का आत्मबल। ‘परिश्रम की पराकाष्ठा’ इसी कार्यकाल का फलित है। शिवराज ने खुद को प्रदेश में झोक दिया। सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की झड़ी लग गई। श्रमिक कमजोर वर्ग को राशन के साथ रोजगार की गारंटी मुफ्त इलाज,बच्चों को वजीफा। इस कार्यकाल में मामा शब्द ही शिवराज का पर्याय बन गया। आधी आबादी(महिला वर्ग) के तीन चौथाई वोटों के अकेले स्टेक होल्डर बन गए शिवराज। बसपा का वोटवर्ग सामाजिक योजनाओं के चुग्गे में फँसकर भाजपा के पाले आ खड़ा हुआ। गड्ढेदार सड़कें समतल और चिकनी हो गई। शिवराज अमेरिका में कह आए मध्यप्रदेश की सड़कें यहां से उम्दा है। चौबीस घंटे बिजली का अटल ज्योति अभियान शुरू हुआ। हर सभाओं में सड़क और बिजली को लेकर दिग्विजय कालीन हाहाकारी दृश्य खीचें जाने लगे। बड़े उद्यमियों के लिए रेड कारपेट बिछ गया। सिंचाई का रकबा 2013 में 2003 के मुकाबले चौगुना छह गुना पहुंच गया। किसानों को उपज का बोनस, शून्य ब्याज पर कर्ज, किसान क्रेडिट कार्ड। हर प्राकृतिक आपदा में भरपूर मुआवजा। शिवराज ने किसानों के दिल को छुआ। एक तरफ व्यापमं लिए विपक्ष तो दूसरी तरफ दम ठोकते हुए एक अकेले शिवराज। यह दृश्य मेरा नहीं उस समय की मीडिया का रचा हुआ है। इसी दृश्यावली के कैनवस में चुनाव हुए। चुनाव में व्यापमं का तरा रम पमपम हो गया। भारी बहुमत के साथ फिर भाजपा फिर शिवराज। जिस देश की जनता बोफोर्स के बकवादी मामले में केंद्र की कांग्रेस सरकार को उड़ा दिया। उसी देश के हिस्से मध्यप्रदेश के मतदाताओं ने भोपाल गैस त्रासदी की बराबरी खड़ा किए गए एक मामले को वैसे ही उड़ा दिया जैसे कि फूंक से गर्द उड़ा रहा हो।
जो शिवराज 90 में बतौर विधायक अभिमन्यु की तरह विपक्षी महारथियों से मोर्चा ले रहे थे वही वही 2013 तक आते आते  स्वयं द्रोणाचार्य सा महारथी बन गए। जो विपक्ष के चक्रव्यूह के भीतर अपना चक्रव्यूह रचकर साफ निकल आने की कला जानने लगे। इस काल में विधानसभा का वह दृश्य शायद ही कोई भूला हो जब.. विधानसभा में बीच अविश्वास बहस में..चौधरी राकेश सिंह विपक्ष की बेंच से जंपकर ट्रैजरी बैंच में आ बैठे। 2008 से 2013 निःसंदेह शिवराज की परिश्रम की पराकाष्ठा का काल था..जिसमें वे एक के बाद एक शिखर फतह करते गए और विपक्ष चौराहे पर व्यापमं की बीन ही बजाता खड़ा रह गया।
नौकरशाही के झाँसे में ‘माई का लाल’
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शिवराज को गीता और रामचरितमानस बहुत प्रिय है..। कठिन श्लोक कंठस्थ हैं और कभी कभी तो भाषणों में ऐसी चौपाइयां झरने लगती हैं कि तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि ये संबोधन है कि प्रवचन। एक दोहा उनकी जुबान से कई बार सुना- सचिव बैद गुरु तीन जो प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीन का होहिं बेगही नास। दूसरे एक चौपाई- प्रभुता पाई काहि मद नाहीं।
2013 से 2018 के बीच का कार्यकाल इन पौराणिक उक्तियों के काफी कुछ उलट रहा। सीएम हाउस में- स्तुति करहिं सुनाय सुनाई’ टाइप के ब्यूरोक्रेट्स, पत्रकार और राजनीति के चंपुओं का बोलबाला हो गया। पिछले कार्यकाल तक शिवराज स्वयं जनता के बीच चौपालों में जाते थे। इस बार शामला हिल्स के बंगले में ही परमानेंट चौपालें तन गई। आयोजन चाहे सत्ता के हों या संगठन के सबके सब इवेंट्स में बदल गए। जो पंडाल और इवेंट मैनेजर सरकारी कार्यक्रमों के लिए वही संगठन के कार्यक्रमों के लिए। कार्यक्रमों का संयोजन और संचालन दिल्ली से उड़कर आने वाले एंकरों और एंकरानियों के हाथ चला गया। दरी जाजम की प्रथा कब की जा चुकी थी कार्यकर्ताओं का हक माइक चोंगे से भी जाता रहा। कई दफे तो ऐसे दृश्य भी देखने को मिले कि बड़े नेता महज नाम का उल्लेख और बोलने वालों की सूची में आने के लिए इवेंट्स मैनेजर और एंकर को पटा रहे हैं। लेकिन इनकी डोर किसी ब्यूरोक्रेट्स के हाथ होती। ब्यूरोक्रेट्स मंत्रियों, विधायकों, नेताओं के सीआर लिखने लगे। यह सब होता रहा शिवराज देखते रहे, नजरअंदाज करते रहे। किस योजना को किस नौकरशाह ने डिजाइन की है ये बातें वे स्वयं मीडिया को लीक करते। वे आँख-नाक-कान बन चुके थे। वे जो कहते वही सच दिखता। नौकरशाहों ने शिवराज की दरियादिली का फायदा अपने प्रतिद्वंद्वियों को निपटाने में भी उठाया। संगठन सत्ता के साथ एकाकार हो चुका था। और एक दिन वह भी आया जब किसी एक नौकरशाह की राय पर बिना बुलाए ही शिवराज टीटी नगर के रामलीला मैदान में अजाक्स के पंडाल पर जा पहुँचे और भुज उठाय प्रण कीन्ह – ‘मेरे रहते कोई माई का लाल प्रमोशन में आरक्षण नहीं रोक सकता’। पहले ऐसी घोषणाओं के लिए संगठन में विमर्श चलता था..अब वही काम नौकरशाही की स्क्रिप्ट करने लगी।
भावावेश में की गई इस एक घोषणा में शिवराज की वह सब पुण्याई ढंक  गई जो उन्होंने इस कार्यकाल में किया। अब तक क्या नहीं किया था। खेती-किसानी में कमाल हुआ। कृषि कर्मण अवार्ड लगातार प्रदेश की झोली में आ रहे थे। मुख्यमंत्री ग्राम सड़क योजना मेंं वो सब दूर दराज के गांव जुड़ गए जो प्रधानमंत्री सड़क में रह गए थे। नेशनल और स्टेट हाइवे चमचमाने लगीं। इंदौर जैसे शहर का रुआब भारत के पेरिस जैसे हो चला। दीनदयाल उपचार योजना को आयुष्मान का संबल मिल गया। सामाजिक सुरक्षा की केंद्र की हर योजनाओं में बजट की बारिश सी होने लगी। यह पुण्याई भी प्रदेश के खाते गई। इन पाँच सालों में काफी कुछ हुआ और उसकी ब्रांडिंग भी हुई पर शिवराज की छवि में नौकरशाही और इवेंट्स मैनेजरों के हाथों खेलने का डेंट लगा वह जिला और ब्लाक स्तर पर महसूस होने लगा।
माई के लाल का एक प्रकरण तो था ही। दूसरा मंदसौर के किसानों का आ पड़ा। चुनाव के ठीक एक साल पहले 7 जून 2017 को मंदसौर के किसानों के एक हिंसक मोर्चे पर पुलिस ने गोलीचालन किया। इसमें 6 किसानों की मौत हो गए। यह दुबरे पर दो आषाढ़ जैसी बात थी। लगा कि किसानों का गुस्सा प्रदेश भर में फैल जाएगा। कहते हैं कि व्यक्ति का मूल स्वभाव ही उसके चरित्र की थाती होती है। शिवराज जैत के एक साधारण किसान के बेटे के अवतार में आ गए। चौबीस घंटे घर में प्रायाश्चित करने के बाद जब उन्होंने इस घटना को लेकर उपवास- अनशन की घोषणा कर दी तो सभी चकित रह गए। इस तरह के अस्त्र का प्रयोग गांधी जी अक्सर करते थे। शिवराज जी ने गांधी को कितना पढ़ा यह तो मुझे नहीं पता लेकिन जनता से जुड़ने के हर फार्मूले उन्होंने गांधी वांगमय से ही खोज निकाला’ चाहे वह मामा वाली छवि हो या जैत के किसान के बेटे की।
शिवराज इस कार्यकाल के आखिरी छह महीने में समझ पाए कि नौकरशाही और मीडिया कै चंपुओं ने उन्हें अबतक ‘फूल्स पैराडाइज’ में ही रखा था। मंदसौर वाले मामले को तो उन्होंने साध लिया लेकिन काफी कुछ हालात हाथ से निकल चुके थे। इसी बीच 2018 के चुनाव की घोषणा हो गई पर इस बार भोपाल के छः नंबर स्थित दीनदयाल परिसर में भी संदेह था कि  क्या इस बार भी फिर भाजपा फिर शिवराज..! नया नारा गढ़ा गया- माफ करो महाराज, हमारा नेता शिवराज।
संगठन के पास पुख्ता खबर थी कि इस बार कम से कम चंबल और मध्यप्रान्त में ज्योतिरादित्य सिंधिया का तिलस्म चलेगा। भाजपा ने चुनाव में कमलनाथ को गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि उसके रणनीतिकार कमलनाथ के कारपोरेटी चरित्र को समझते थे। 2018 के चुनाव में कांग्रेस को बढत मिली वह चंबल और मालवा में मिली। कमलनाथ का महाकोशल फिफ्टी-फिफ्टी रहा। चुनाव परिणाम में त्रिशंकु विधानसभा बनी। कम वोट प्रतिशत के बावजूद भी कांग्रेस कुछ आगे। लेकिन जब ज्योतिरादित्य की जगह कमलनाथ की ताजपोशी हुई इसी दिन से भाजपा को सरकार बनाने की छीनीं सी गुंजाइश दिखने लगी..।
मध्यप्रदेश मेरा मंदिर है और जनता उनकी भगवान, यह ऐलान कर बता दिया कि शिवराज लोकसभा चुनाव में उतर कर फिर दिल्ली जाने से रहे। वे कामनमैन आफ मध्यप्रदेश बन गए। कांग्रेस की सरकार क्यों गिरी यह उसका ही कमाया हुआ पाप था या भाजपा का पुण्य यह अलग विषय है पर शिवराज सिर्फ विधायक रहते हुए ही अपनी ताकत को मोर्चे के जमाने की तरह झोंक दिया।
पीछे बँधे हैं हाथ मगर शर्त है सफर..।
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पंद्रह महीने के भीतर ही कमलनाथ सरकार को लगभग वैसा ही झटका मिला जैसा का दादी राजमाता सिंधिया ने कांग्रेस के डीपी मिश्र को 67 में दिया था। दलबदल कानून न होता ज्योतिरादित्य सिंधिया उन बीसों विधायक को वैसे ही भाजपा में मिला देते जैसे राजमाता ने अपने समर्थकों को तोड़कर संयुक्त विधायक दल (संविद) नाम का विलयन बनाया था।
कमलनाथ सरकार को लेकर शिवराज कहते थे कि यह फोर डी फैक्टर की वजह से गिरेगी डी- फोर मतलब दलाल-दंभ-दुर्भावना और दिग्विजय सिंह। कमलनाथ सरकार को गिराने में अमित शाह का क्या ब्लूप्रिंट था उसपर जफर इस्लाम, नरेन्द्र तोमर ने कैसे अमल दिखाया। इसमें नरोत्तम मिश्रा की मैनेजरी का कितना योगदान है यह अलग विषय है। मूल विषय यह कि चौथी बार शिवराज सिंह की क्यों..? यहां हम फिर घूमकर ऊपर चलते हैं कि कुछ लोग नेतृत्व डीएनए में लिए पैदा होते हैं और यदि चतुर कुम्हार ने उसे  सुगढ बना दिया तो फिर उसकी जोड़ का कोई नहीं रहता।
ज्योतिरादित्य मुख्यमंत्री बने कि नरेन्द्र तोमर पहला विमर्श इसपर चला। नरोत्तम की महत्वाकांक्षा ने उछाल मारा तो उसे ज्यादा समर्थन नहीं मिला। कैलाश विजयवर्गीय मिशन बंगाल पर थे। आठ बार के विधायक गोपाल भार्गव अभी भी राजनीति के सुदामा ही हैं..गढ़ाकोटा से भोपाल बाया सागर ज्यादा कुछ चाहा नहीं या चाहने के लिए प्रयत्न नहीं किया। और आज के गलाकाट युग में बैठे ठाले कुछ मिलता भी नहीं। सुई नरेन्द्र तोमर पर अटकी तो उन्होंने उसे घुमाकर अपने मित्र शिवराज की ओर मोड़ दिया। शिवराज चौथी बार के लिए  मुख्यमंत्री तय। अब यहां एक ट्विस्ट यह आया कि वे भले मुख्यमंत्री रहें पर फ्रीहैंड नहीं लिहाजा मुश्कें कश दी गई। वे अपने मन का मंत्रिमण्डल बना नहीं पाए। एक मात्र भूपेन्द्र सिंह भी सिंधिया के कहने पर लिए गए क्योंकि सुर्खी से गोविंद राजपूत को जिताना था। कुल मिलाकर हालात वैसे ही जैसे कि किसी भोपाली शायर ने कहा- पीछे बँधे हैं हाथ मगर शर्त है सफर, किससे कहें कि पाँव के काँटे निकाल दो।
संगठन भी नंदकुमार चौहान के जमाने का नहीं रहा। वीडी शर्मा का अपना अलग अंदाज है। लेकिन फिर भी शिवराज के एक शुभचिंतक कहते हैं- अन्य नेता जो काम शातिराना भरी कुटिलता से करते हैं वही काम शिवराज शांति और शालीनता से। पेड़ का धड़ गिरने के बाद पता चलता है कि तलवार कब की चल चुकी है।
शिवराज, शिवराज हैं पाँव में चक्कर मुँह में शक्कर और सिर पर बर्फ धरे हुए। यही उनकी शख्सियत का असली राज भी है और अंदाज भी।
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