डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह : संगठन सर्वोपरि है या शासन..
कोई कहता है संगठन सर्वोपरि है, कोई कहता है शासन सर्वोपरि है, कोई कहता है शासक सर्वोपरि है, तो कोई कहता है नेतृत्व सर्वोपरि है, लेकिन भारतीय चिन्तन एवं परम्परा में इनमें से कोई भी सर्वोपरि नहीं है।
अब प्रश्न उठता है कि सर्वोपरि क्या है? सर्वोपरि केवल और केवल धर्म है। भारतीय चिन्तन में संप्रभुता न शासक की हो सकती है, न शासन की हो सकती है, न संगठन की हो सकती है और न ही नेता की हो सकती है। संप्रभुता (sovereignty) केवल धर्म की है और धर्म वह है जो समग्रता में सामंजस्य की स्थापना करता है, सृष्टि की धारणीयता है, जो व्यवस्था का आधार है, जिस पर जगत प्रतिष्ठित है (धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा), जो व्यक्ति के आचारण में व्यष्टि से लेकर समाज, सृष्टि और परमेष्टि तक सामंजस्य की धारणीयता स्थापित करता है।
ईश्वर भी जगत की सृष्टि के पश्चात् ‘कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथा कर्तुम्’ की शक्ति होते हुए सृष्टि के धर्म का पालन करता है वरना करे, न करे या अन्यथा करने लगे तब स्वयं की सृष्टि को स्वयं ध्वंस कर दे, इसलिए सृष्टि की रचना के पश्चात् ईश्वर भी सृष्टि के नियमों के ही अनुसार चलता है, इसलिए जगत में कोई सर्वोपरि है तो वह धर्म है।
यदि कोई कहता है झूठ बोलो तो झूठ बोलना निष्ठा नहीं है। यदि कोई कहता है भ्रष्ट बनो तो भ्रष्ट बनना निष्ठा नहीं है, इसलिए धर्म का अनुसंधान करो, धर्म का आचार करो और धर्म का व्यवहार करो। धर्म के प्रति नितराम स्थिति ही एकमेव निष्ठा है।
धर्म एव हतो हन्ति,
धर्मो रक्षति रक्षितः।
साभार- डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह