सर्वेश तिवारी श्रीमुख : मुंडा, बोडो, संथाल, बोर्होर्स, आदि जनजातियों में भी रामकथा अत्यंत प्राचीन काल से विद्यमान

शबरी!
एक प्रश्न कभी कभी तैरता मिल जाता है कि राम कथा का प्रामाणिक स्रोत कौन सा है! और हम सब लगभग एकमत होते हैं कि आदिकवि की रामायण और बाबा की रामचरितमानस को ही आधार मान लिया जाय। इसके अतिरिक्त आध्यात्म रामायण और महाभारत का रामोपाख्यान भी है, जिसे प्रामाणिक माना जा सकता है। एक हद तक ऐसा मान लेना ठीक भी है। पर इसके अतिरिक्त लोक में कथा का जो स्वरूप है उसे पूर्णतः खारिज किया जा सकता है क्या?


पूरे संसार में रामकथा की लगभग दो हजार प्राचीन पुस्तकें हैं जो श्रद्धा से पढ़ी जाती रही हैं। इनमें से अनेक पुस्तकें भारत के बाहर की हैं जो हजारों वर्ष पहले लिखी गयी थीं। उदाहरण के लिए तिब्बती रामायण और खोतानी रामायण(तुर्किस्तान) तो सातवीं शताब्दी से भी पहले की रचनाएं हैं। अर्थात रामचरितमानस से लगभग हजार वर्ष पुरानी! इसके अलावा इंडोनेशिया का रामायण ककविन और रामकेलिन सेरतकाण्ड, सिंहली रामकथा, मलय का सेरिराम, कम्बोडिया का रामकेर्ति और रामकियेन, रामजातक आदि अत्यंत प्राचीन विदेशी रामकथाएं हैं। इसे अन्यथा न लिया जाय, पर वहाँ के रामभक्त अपने आराध्य को इन्ही रामकथाओं के माध्यम से जानते हैं।


बाहर की छोड़िये, अपने राष्ट्र के भीतर ही सुदूर देहात के लोग या वनों में रहने वाले भील आदि वनवासियों के बीच में रामकथा का स्रोत क्या महर्षि वाल्मीकि की संस्कृत में लिखी गयी पुस्तक रही होगी? नहीं! वनवासियों के हर कबीले की अपनी रामकथा थी और सबके स्वरूप में थोड़ी थोड़ी भिन्नता है।
मुंडा, बोडो, संथाल, बोर्होर्स, आदि जनजातियों में भी रामकथा अत्यंत प्राचीन काल से विद्यमान है, पर वहाँ भी स्वरूप तनिक अलग अलग है। आपको शायद पता न हो, सीता का आंगन लीपते समय शिवधनुष उठा लेना और उसी के कारण राजा जनक का धनुष के लिए प्रण ठानना बोहोर्स की लोककथाओं से आया है। इसी तरह शबरी के बेरों का जूठा होना उन्ही लोककथाओं से निकला है। लिखित स्रोत की बात करें तो शायद सबसे पहले सूरदास की पंक्तियों में शबरी के बेरों का जूठा होना आता है। शबरी आश्रम रघुबर आये…
आप इन कथाओं को मूल कथा का विकृत स्वरूप मान सकते हैं। आप यह भी कह सकते हैं कि यह प्रामाणिक नहीं है सो इसका कोई महत्व भी नहीं है। पर आपको इतना अवश्य मानना होगा कि एक बहुत बड़ी जनसंख्या हजारों वर्षों से इन्ही कथाओं के माध्यम से प्रभु श्रीराम को जानती और उनसे जुड़ी रही है। उन निरक्षर रामभक्तों के लिए अपने बीच का वह बुजुर्ग ही महर्षि बाल्मीकि और बाबा तुलसीदास था, जो दीपक जला कर नेम-टेम करने के बाद उन्हें श्रद्धा भाव से रामजी की कथा सुनाता था।
जानते हैं! सबरी के जूठे बेरों वाली कथा एक बहुत बड़े वर्ग को यह आत्मविश्वास देती रही है कि जब जगतनियन्ता हमारे घर भोजन कर सकते हैं तो हम छोटे कैसे हुए? उन्हें यह बल मिलता रहा कि क्या हुआ जो हम पढ़े लिखे नहीं है। केवल सच्ची भक्ति हो तो राम पैदल चल कर दरवाजे पर आते हैं, और भावावेश में जूठा बेर दिए जाने पर मुस्कुराते हुए खा लेते हैं। यह बात किसी को आपत्तिजनक कैसे लग सकती है दोस्त?
खैर! धर्म की जय हो।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।

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