देवांशु झा : सत्यजित रे..अपुत्रयी का अवसाद और जलसाघर का जादू जन्म दिवस पर….

सत्यजित राय की बहुधर्मा, विपुल कला पर विचार करना चुनौतीपूर्ण और श्रमसाध्य काम है। उनकी कृतियों पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं। राय के कलापक्ष पर विश्वसिनेमा के धुरंधर विमर्श करते रहे हैं। विडम्बना यह कि भारतीय सिने-संसार में बंगाल और कुछ अन्य प्रांतों के छिटपुट सिने प्रेमियों के अतिरिक्त जन सामान्य उन्हें उस तरह से देखता या जानता नहीं है जिस तरह से कि राजकपूर, गुरुदत्त और विमल राय को जानता है। सिनेमा के निर्देशकों निर्माताओं के बीच भी वे एक अप्राप्य,अलौकिक आभा लिए हुए बैठे हैं जिनसे उनकी वाबस्तगी नहीं है। जैसे कि वे उनके ढर्रे के लिए अप्रासंगिक, गैरज़रूरी हों। इसीलिए नरगिस जैसी अभिनेत्री तक पथेर पांचाली की विलक्षणता को देखने से चूक गईं और यहाँ तक कह दिया कि सत्यजित राय पश्चिम में भारत की दरिद्री बेच रहे हैं।

देवांशु झा (लेखक, इतिहासकार)

मैं एक सामान्य दर्शक की नज़र से उन्हें देखता हूँ, जिन्हें अच्छी फ़िल्में न सिर्फ़ प्रभावित करती हैं बल्कि अपने दृश्यों के साथ उसके अवचेतन में रहती हैं । समय उन्हें झकझोर कर जगाता रहता है । मैंने यदा-कदा सत्यजित राय की तीन-चार फिल्मों पर ही विचार किए हैं। उनकी अपुत्रयी और जलसाघर जैसी कालजयी फिल्मों को देखते हुए जो कुछ बातें मेरे मन में आईं, मैं उन्हें ही यहाँ रख रहा हूँ ।

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सत्यजित राय की शक्ति..भावपक्ष के उत्कृष्ट चित्रण में निहित है। फिल्म की कथा में घटनाएं तो होती ही हैं लेकिन उन घटनाओं को एक निर्देशक कैसे रचता है-यह सबसे महत्वपूर्ण है । सत्यजित राय की विशिष्टता है कि वे पात्र, वातावरण और संपूर्ण प्रकृति के साहचर्य से सिनेमा को सिरजते हैं । संगीत उन दृश्यों में यदा-कदा साथ बंधता-बहता है । वह अचानक से बज उठने वाला कोई नाटकीय आर्केस्ट्रा का अंश नहीं होता या जबरन लगातार बजने वाला कर्कश स्वर भी नहीं होता बल्कि उस क्षण, उस दृश्य का अविभाज्य अंग होता है। सत्यजित राय मानते थे कि बिना बाह्य संगीत के भी सुंदर फिल्में बनाई जा सकती हैं। वह दृश्यों को निर्जीव और सजीव दोनों ही वस्तुओं से फिल्माते हैं। उनमें केन्द्रीय पात्र के अतिरिक्त, घर, पशु-पक्षी, धरती, आकाश, खेत-पथार यहाँ तक कि मकड़ी भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । नैचुरल एम्बिएंस का वैसा प्रयोग भारतीय सिनेमा में तो नहीं ही दीखता है। विश्व सिनेमा में संभवत: आंद्रेई तारकोवस्की इस कला के मास्टर रहे हैं।

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बरसों पहले जब मैंने पथेर पांचाली देखी थी तब बूढ़ी पीसी चुनीबाला को देखकर जड़ीभूत रह गया था। उससे पहले हिन्दी सिनेमा में दिखी दादी-नानी और दूसरी वृद्धा पात्रों में चुनीबाला की अनन्य साधारणता से कोई मेल नहीं था । वह तो ऐसी थी कि जैसी गाँव की कोई बुढ़िया होती है। विस्मय तो यह कि बुढ़िया परदे पर अभिनय नहीं कर रही थी, बस सहज होकर जीवन जी रही थी। अपनी भंगिमाओं से सुपरिचित लेकिन एकदम अविश्वसनीय भी कि-आदमी कह उठे, भला यह भी सिनेमा में संभव है !
पथेर पांचाली मध्यांतर से पहले तक दुःख और दारिद्र्य के बीच भारतीय ग्राम्य जीवन के सहज चित्रण पर टिकी फ़िल्म है जिसमें दिनचर्या के सूक्ष्मतम पहलुओं पर उनकी दृष्टि जाती है। परंतु पथेर पांचाली का मूल स्वर तो हाहाकारी संताप और यंत्रणा है । मृत्यु और विछोह का अनिर्वार तम !

पथेर पांचाली में बूढ़ी पीसी की मृत्यु का क्षण उनके रचे कई चमत्कारिक दृश्यों में से एक है। बूढ़ी से बेखबर अपू और दुर्गा बाँस वन में खेल रहे हैं और खेलने के क्रम में ही पीसी को छुप कर छकाने आते हैं लेकिन तब तक मृत्यु बूढ़ी को छका चुकी होती है। बाँस का वन हवा में धीरे-धीरे काँपता है । उस करकराहट में जो कथ्य है वह बाह्य संगीत में नहीं हो सकता । कुबड़ी बूढ़ी सिर झुका कर उकड़ूं बैठी है । दुर्गा के हिलाने डुलाने पर भी थिर है। अचानक किसी वस्तु की तरह गिर जाती है। दुर्गा भांपती है, टीले से बूढ़ी का लोटा लुढ़क कर छोटे गढ़हे में गिर जाता है । लोटे का लुढ़कना सांकेतिक है। बहुत साधारण भी लेकिन ध्यान से देखें तो पता चलता है कि कितनी असाधारणता है उस लुढ़क जाने में ! कितनी सहजता से उन्होंने कह दिया है कि जीवन तो गया!

पाथेर पांचाली की केन्द्रीय और महत्वपूर्ण चरित्र अपू की माँ सर्बजया है । राय उसके चेहरे से ही अनिर्वचीय दुःख का आभास कराते हैं। अपु और दुर्गा के बाल-सुलभ क्रियाकलापों के बीच सर्बजया ही यह इंगित करती रहती है कि जीवन का अंतर्घट रीत रहा है । अनाज के अपने बरतन भांड तक बेचने को विवश सर्बजया घर का द्वार खुला छोड़ जाती है । राय दिखलाते हैं कि अब इस घर से ले जाने योग्य कुछ शेष नहीं रहा।

पथेर पांचाली के मूल में दरिद्रता का दुर्नम्य अंधकार है। यहाँ खुशियाँ जुगनू की तरह जलती-बुझती हैं। उन सब क्षणों में भी राय की अद्वितीय दृष्टि कमाल कर जाती है। अपू को नींद से जगाती दुर्गा, उसकी आँखों को उंगलियों से फैलाती, उसके बाल संवारती । खेत में बिजली के खंभे से कान लगाकर रेल के आने की आहट सुनना और दोनों भाई-बहनों का दौड़ना तो खैर क्लासिक दृश्य माना ही जाता है । परंतु मृत्यु को परदे पर उतारने और उसके पूर्वाभास को दिखलाने में राय अनुपम हैं । दुर्गा के मरण से पहले का दृश्य भी ऐसा ही है । जब रात्रि के निविड़ एकांत में सर्बजया बुखार से तपते दुर्गा के सिर पर पट्टी रखती है। आंधी का पहला झोंका धीरे से जर्जर परदे को कँपाता है। मां की आँखों में अनिष्ट की छाया लहराती है। क्लोज़ फ्रेम में कितना भयाक्रांत है उसका चेहरा !!.. प्रतिक्षण मृत्यु की आशंका में डूब-डूब जा रहा है। जो दरिद्री में बरतन भांड सबकुछ बेचकर नैराश्य के अनंत में नीला पड़ चुका है। आर्केस्ट्रा के दर्जनों वाद्ययंत्रों का समवेत जो नहीं रच पाता वह राय नैचुरल एम्बिएंस और नीली रेख सी रेंगती किसी धुन से रच डालते हैं ।

घर का पुराना दरवाजा काँप रहा है । उसकी कुंडी खुलने को है। रात के अंधकार में भय से भरी हुई सर्बजया कई जगहों से ज़र्द पर्दा बांधती है तो अंधड़ दरवाजा खोलकर भीतर घुसता है जैसे कह रहा हो कि इस घर पर प्रहार सबसे आसान है । यहाँ कोई संबल, शक्ति या सहारा नहीं है । इन सब बिंबों को रचना एक महान कल्पनाशील सर्जक के द्वारा ही संभव है । ध्यान रहे- राय विभूति बाबू की विलक्षण कथा में बिखरे बिंबों को उतारते हुए हर क्षण उसे मौलिकता से मंडित भी करते हैं।

दुर्गा की मृत्यु के बाद हरिहर राय गाँव लौटता है और उस विपदा से अनजान है । बरसात में संभल-संभल कर पाँव धरता हरिहर राय लगभग बर्बाद हो झुके अपने पुराने घर को देखता है । सर्बजया चुप है । लेकिन कब तक ! ..दुर्गा के लिए लायी हुई साड़ी को अपने होठों से दबाते हुए उसका धीरज छूटता है । हा पुत्री..! झोपड़ी के पीछे कहीं से लौट रहा छोटा अपू अपनी काँख में छाता दबाए हुए ठहर जाता है । वह जान चुका है कि पिता लौट आए हैं । उसे काठ मार गया है । कितना दारुण और कठोर है उसका एकाकीपन! इस क्षण का पार्श्वसंगीत मेरी स्मृति में पिछले पच्चीस बरस से बज रहा है। मैं उस धुन को कभी भूल ही नहीं सका । इस व्यथा को उन्होंने जिस अंधकार और शानदार कट में रचा है, वह अनन्य है।

फिल्म के अंत में एक छोटा सा दृश्य है । मैं कला के नजरिये से उसे मील का पत्थर मानता हूँ । मैं नहीं जानता उस दृश्य पर कितने लोगों की निगाह गई है । गाँव से विदा होने से पहले पिता के आदेश पर अपू ताखे पर रखी कुछ बेकार चीजों को हटाता है। इसी क्रम में एक पुरानी बेंत की छोटी सी डोलची गिरती है। डोलची का लुढ़कना सामान्य घटना है लेकिन उसमें उसी हार का मिलना अप्रत्याशित है जिसे चुराने का आरोप कभी दुर्गा पर लगा था। डोलची से मकड़ी निकल कर भागती है । अपू का चेहरा मलिन है। फ्लैशबैक में कुछ नहीं चलता बस उसकी आँखों में कोई फफोला फूट कर ठहर जाता है। अच्छा ! तो वह हार मेरी दीदी ने ही चुराया था !

बहन की मृत्यु के बाद जो निस्सारता का भाव उसके मन में आया है वह गाँव छोड़ कर जाते हुए प्रगाढ़ हो जाता है। वह जैसे सबकुछ त्याग कर जाना चाहता है । उसके चेहरे पर एक तिक्तता है । दीदी पर लगा चोरी का वह आरोप तो आत्मा में धँसा हुआ एक खंजर है । वह दौड़ कर जाते हुए हार को पोखर में फेकता है। पोखर में कुभियाँ हैं। कुंभियाँ फट जाती हैं, हार के नीचे डूबते ही पुन: वापस लौटती हैं–एक छोटा सा छिद्र रह जाता है, जो अपू के हृदय का है। उसकी दिवंगता दीदी ने ही वह हार चुराया था.! कितना प्रतीकात्मक और कितना सूक्ष्म..!

विभूति बाबू के गहन शब्द संसार और विराट जीवनानुभूतियों में सिनेमाई रूप से धंसना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है इसीलिए सत्यजित राय ने उस दारुण कथा की अंतर्वस्तु को ग्रहण किया है। वे उस उपन्यास की आत्मा में उतरे हुए हैं। वे तटस्थ रहकर फिल्म नहीं बनाते। धारस्थ हैं। विभूति भूषण के कालजयी शब्दों को मनुष्य जैसे साक्षात देखता है-वह भी रुद्ध कंठ से। वहां आम सिनेमाई भावुकता नहीं है। वह आत्मा की भट्ठी का ताप है। दर्शक तपता है।

अपुत्रयी के दूसरे खंड यानी अपराजित के एक दृश्य में अपू बनारस के मंदिर में वानरों को चने खिला रहा।‌ वहां अपू और उसका प्रफुल्लित मुखमंडल असाधारण है। वह स्वयं खा रहा है और बंदरों को उत्पात करते-खाते देख भी रहा है । उसके चेहरे पर विस्मय है, हास भी। पात्रों के चयन में उनकी नजर और पूर्णता मुझे चकित करती है। वे छोटे-छोटे दृश्यों के लिए जिन अनगढ़ चेहरों को चुनते हैं वे फिल्म के पूरक होते हैं। गोया, उऩका प्रतिस्थापन संभव ही नहीं। निर्देशन करते हुए उन्हें परिस्थिति के व्यवहार का पूरा ज्ञान होता है। घर के बाहर चटाई बिछाकर कुछ बीन रही सर्बजया खेत के उस तरफ़ से गुजर रही ट्रेन को देखकर समय भांप जाती है।

अपूत्रयी में रेलें बहुत प्रतीकात्मक हैं । एक तरह से वे समय के बीतने और किसी के आने जाने का संकेत करती हैं । रेलें उनकी इस कालजयी फिल्म में किसी अभिन्न पात्र की तरह रहती हैं । अपूर संसार में रेलें और निकट आ जाती हैं । तब अपूर्व हर दिन पटरियों को पार करता है। हर दिन रेल अपना ह्विसल बजा कर जाती है ।

अपराजित के सबसे विकट दृश्यों में से एक है हरिहर राय का मृत्युदृश्य। लोटे से गंगाजल डालते हुए अपू, उसके पिता के विस्फारित नेत्र और काशी के घाट पर मंदिरों, मुंडेरों पर बैठे सैकड़ों कपोंतों का एक साथ उड़ जाना ! प्रात के आकाश की मेघमय छाया में विकल होकर उड़ते पखेरू और रविशकंर का संगीत इस मृत्यु-दृश्य को अमर कर जाते हैं । लेकिन जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं, सत्यजित राय की महानता दुख के इन दृश्यों को रचने भर में नहीं अपितु उनके पूर्वाभास को प्रकट करने में भी है। पानी मांगते हरिहर राय को देखती सर्वजया का चेहरा एक बार फिर अनिष्ट को पढ़ता है। बाद में गाँव चले जाने के बाद जब अपू कोलकाता में पढ़ाई करने लगता है और वह उसके लिए तरसती है, तब कितना क्लांत,पराजित,अकेला हो उठता है उसका मुखमंडल!

मृत्यु से पहले उसकी साँस के स्वर में अपू अपू का राग है। बेटे की प्रतीक्षा में बैठी सर्बजया माँ-माँ सुनती है । उठकर द्वार से बाहर झाँकती है । जुगनू झिलमालाते हैं, पेड़ के बीच से थोड़ी सी रश्मि आती है । पूरा वातावरण अंधकार से व्याप्त है । वह प्राण त्याग देती है, जब अपू आता है तब उसके माँ-माँ कह कर डाक देने का क्षण अनुत्तरित रह जाता है । पुराने वटवृक्ष की सूखी हुई कठोर जड़ों के पास वह अकेला बैठा है । यह सब रचना, सिरजना सत्यजित राय की महान कला है । दृश्य को वे संपूर्ण परिवेश की आभा में रचते हैं, उसके अंधकार में सौंपते हैं । जिसमें पात्रों के साथ भीत, पशु-पक्षी, और विटप भी रोते हैं ।

अपुत्रयी के अंतिम खंड यानी अपूर संसार में पिछले दो हिस्सों के बरक्स मृत्यु, दुःख और विछोह का तिमिर ज़रा हलका है । दुःख का अंधकार तो इन तीनों ही फिल्मों में छाया हुआ है परंतु अंत में आकर अपूर्व निपट अकेला रह जाता है । उसकी परिणीता भी मर जाती है । परिणीता का निधन अपूर संसार का सबसे दुखद हिस्सा है । दर्पण में स्वयं को देखता अपूर्व और पटरियों के पास आत्मसंहार के विचार से खड़ा अपूर्व फिर अचानक एक सूअर के रेल से कट जाने की कर्कश आवाज़! परंतु पत्नी की मृत्यु की और जीवन संघर्षों के उच्चावच में भी वहाँ आशा का सुनील अनंत है । दर्शक यह अनुभव करते हैं कि पाथेर पाचांली और अपराजित की त्रासदी यहाँ शायद समाप्त हो जाएगी।

अपूर संसार के मेरे अत्यंत प्रिय दृश्यों में एक दृश्य वह है जब अपू अपनी परिणीता को गाँव से कलकत्ता लेकर आता है। गाँव की बड़ी सी हवेली में रहने वाली छोटी वधू सीलन भरे एक कमरे में प्रवेश करती है, जहाँ कुछ भी सुंदर या व्यवस्थित नहीं है। अपू उसे बिठाकर नीचे जाता है। वह उदास अकेली झरने लगती है। आँखों से आँसू बहते हैं। वह सामने खिड़की में टंगा फटा परदा हटाकर नीचे झाँकती है तो एक अबोध बच्चा हँसता हुए अपनी वृद्धा दादी के साथ दौड़ रहा है। उसके आँसू सूख जाते हैं। प्रतीकों से भाव को उभारने में राय बेजोड़ हैं।
पत्नी की मृत्यु से अपूर्व विक्षिप्त सा हो जाता है और अपने पुत्र तक को भुला बैठता है । अंत में अपने दोस्त के धिक्कारने पर वह गाँव लौटता है । अपने पुत्र को प्रेम से समझाने का प्रयास करता है कि वह उसका बाबा यानी पिता है। बच्चा जो अपने मन में बाबा की भिन्न छवि लिए बैठा है उसे ठुकरा देता है ।

अपूर्व निराश होकर कलकत्ता लौट रहा है ।‌ सत्यजित राय ऐसे क्षणों में कमाल करते हैं। दृश्यों में भाव संप्रेषण के वे अधिपति हैं । उनके द्वारा सृजित ऐसे क्षणों में पात्र, कैमरे का शाट सेलेक्शन और संगीत तीनों की स्थायी त्रयी होती है। तीनों आपस में विन्यस्त।अपूर्व सूने रास्ते पर जाते हुए पलट कर देखता है । घर के बाहर कुछ दूर खड़ा उसका पुत्र उसे पीछे से ताक रहा है। पागल हवा का स्वर है। नैचुरल एंबियंस का अद्भुत प्रयोग। सन्नाटे में एक चिड़िया रह-रहकर बोलती है। परिस्थिति में घुलता करुण संगीत। क्लोज़ शाट में अपू, लौंग शाट में उसका बेटा।पीछे खाली पड़ी हवेली है।‌जो सबसे महत्वपूर्ण आबजेक्ट यानी वस्तु है-भाव से दीप्त है। वह अपू का चेहरा है।जो उसका अभीष्ट है वह तनिक धुंधला है। कितना प्रतीकात्मक और कितना सुघड़ !!

अंततः वह बच्चा अपू के पास आता है। वह भी इस प्रत्याशा में कि दाढ़ी वाला अजनबी जो स्वयं को उसका बाबा कहता है, एक दिन उसके बाबा से उसे मिलवाएगा। बच्चे का मन द्वंद्व में है। वह उसे पिता भी समझ रहा और नहीं समझ कर भी पिता से मिलवा देने वाला भला मानुष मान रहा।
फिल्म के इस दृश्य को देखते हुए मेरे मन में डीसिका की बायसकिल थीव्स का अंत उतर आता है। दोनों की परिस्थितियाँ सर्वथा भिन्न हैं । एक में, कातर पुत्र साइकिल चुराने के आरोप में धरे गए पिता की लोक भर्त्सना और दंड से दग्ध होकर उसे अपने साथ ले जा रहा ।‌ वहाँ छोटा पुत्र ही संबल है। अपमान से पिता का चेहरा क्लान्त है और पुत्र कोई निर्मल ज्योत्सना की तरह उसे स्पर्श दे रहा। यहाँ, माँ के प्रेम से रिक्त बेटा बाबा को खोजता है और वह अपने बेटे में पत्नी की छवि देखता है। दोनों फिल्मों में दोनों साथ-साथ जाते हैं । दोनों अमिट छाप छोड़ते हैं। मैं यह मानता हूँ कि डीसिका की इस फिल्म को देखने के बाद फिल्मकार बनने को दृढ़प्रतिज्ञ सत्यजित राय के मन में इसका अंत चिरस्थायी होकर बैठ गया होगा जिसे उन्होंने अपूर संसार में सर्वथा भिन्न भावभूमि पर टंकित कर अपनी रचनात्मक प्यास को बुझाने का काम किया है।

जलसाघर की पृष्ठभूमि अपुत्रयी से विपरीत है । वहां ऐश्वर्य और उस ऐश्वर्य की रागात्मकता है। फिर धीरे से उसका बीत जाना है।जो बीता हुआ है, वही फिल्म की आत्मा है। विश्वंभर राय का अंतर्द्वंद्व दस्तक देता रहता है। एक दृश्य में विश्वंभर राय अपनी हवेली की छत पर बैठे हैं। नीचे विशाल भवन के नष्ट वैभव में एक पेट्रोमैक्स जल रही है, दूर सूदखोरी से अमीर बने माहिम गांगुली का घर रौशनी से जगमग है । अभिनेता छबि विश्वास के चेहरे पर जो द्वैत है, वह विलायत खान के संगीत में मिल कर बहुत प्रभावशाली हो जाता है ।

विश्वंभऱ राय का सबकुछ तो जा चुका है लेकिन राजसी ठाठ का श्रेष्ठताबोध रह गया है । प्रजापालक और कलामर्मज्ञ धनाढ्य होने का अभिमान उनकी निधि है । उन्हें अपने रक्त पर विश्वास है जो अंत-अंत तक अपने जलसाघर में माहिम गांगुली के पैसे लुटाते हाथों पर छड़ी बन कर गिरता है । यहाँ फिर कहता हूं, सत्यजित राय भाव-भंडार के स्वामी हैं । छबि विश्वास के चेहरे का क्लोज फ्रेम सबकुछ कह जाता है ।

जलसाघर का सबसे विशिष्ट हिस्सा उसका अंत है। शराब के नशे में धुत होकर विश्वंभऱ राय पूर्वजों के तैलचित्रों को देखकर अट्टहास करते हैं। टू यू! टू यू ! ओ माई नोबल ऐंसेस्टर्स….. में एक शेक्सपीरियन विराटता है। लेकिन जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, जलसाघर की महानता मुख्य पात्र के अंतर्द्वंद्व और उसके श्रेष्ठ निरूपण में है । यहाँ भी विशंभर राय झूमर की बातियों को बुझते हुए देखते हैं। एक-एक कर सारी बातियाँ बुझ रही हैं। जीवन जा रहा है। विलायत खान के संगीत का एक विलक्षण टुकड़ा बजता है। वह जलसाघर के समापन यानी सदा के लिए बंद हो जाने की उद्घोषणा है।‌विश्वंभर राय का पुरानी विश्वासी नौकर दिलासा देता है कि स्वामी बाती बुझ नहीं रही, सुबह हो रही है। बाहर घोड़ा हिनहिनाता है।राय उस हिनहिनाहट को उसका निमंत्रण समझते हैं। नौकरों के मना करने के बावजूद वह घोड़े की सवारी करते हैं। गिर कर मर जाते हैं। जलसाघर का झूमर अमर संगीत के साथ धीरे-धीरे डोलता रहता है।

सत्यजित राय अपनी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों में जिस ऊंचाई को छूते हैं उस ऊंचाई तक रंगीन फिल्मों में नहीं पहुंच पाते।ऐसा लगता है जैसे वहाँ उनकी वैसी गीतात्मक छुअन नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अपनी कथित कमज़ोर फिल्मों में भी बहुत ऊंचे हैं परंतु अपुत्रयी, जलसाघर और चारुलता उनकी श्रेष्ठ कृतियां हैं।

पूर्व में प्रकाशित पुस्तक से..

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