नितिन त्रिपाठी : जिसे जो फ्री मिल जाता है उसकी वैल्यू नहीं रहती
जिसे जो फ्री मिल जाता है उसकी वैल्यू नहीं रहती. हज़ारो वर्षों पूर्व जब न बिजली थी न मशीन थीं, मनुष्य पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर था, भारत को मदर नेचर ने असीम प्रेम दिया. छः अलग अलग ऋतुवे – वह भी ऐसी कि सबका आनंद लिया जा सके. जाड़े में हिमपात नहीं होता था तो बरसात में साइक्लोन नहीं आते थे. इतना प्यारा मौसम दुनिया के किसी देश का नहीं था.
पहाड़ थे, पहाड़ों से नदियाँ थीं और यह नदियाँ सारे मैदानी क्षेत्र को अपना जल बरसाते हुवे समुद्र में विलीन होती थीं. नदियाँ अपने साथ न सिर्फ़ जल ले जाती थीं बल्कि उपजाऊ मिट्टी और खनिज भी. लगभग पूरा ही मैदानी क्षेत्र उपजाऊ था. जीवित रहने के लिए विशेष श्रम नहीं करना. उपजाऊ मिट्टी है बीज बो दो, नदी पास ही है, इसमें भी आलस्य आये तो बारिश है ही. उस समय के जीवन के हिसाब से सब कुछ उपलब्ध था.
ऐसे में भारतीय संस्कृति ने बहुत उन्नति की. जब पेट भरा होता है तो ज्ञान, दर्शन, समाज शास्त्र का गठन होता है. ऋषि मुनि मनीषी आये. वेद, पुराण, संहिताओं की रचना हुई. भारत ने सारे दुनिया की सभ्यताओं के साथ मिल कर काम किया, वसुधैव कुटुम्बुकम. गोल्डन इरा ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री.
फिर वही होता है कि जब पेट भरा होता है तो आलस्य आता है. अपनी रक्षा तक करना भूल जाते हैं. प्रकृति और संसाधनों का जैसा दोहन एक आम भारतीय करता है, सारे विश्व में ये मिशाल मुश्किल है. हम सदियों ग़ुलाम रहे. इन डेढ़ हज़ार वर्षों में शेष विश्व बहुत आगे निकल गया. आजादी के बाद भी हम में विशेष परिवर्तन न आया, हाँ एक झूठ का बोध आया. हम अभी भी डेढ़ हज़ार वर्ष पूर्व महान थे सिंड्रोम से बाहर नहीं निकले.
इकीसवीं सदी आते आते हमारा जो एडवांटेज था वह सब समाप्त हो चुका था. प्रकृति नष्ट कर दी थी. वह जनसंख्या जो कभी खेती किसानी मेहनत दर्शन समाज शास्त्र करती थी, अब सरकार से उम्मीद करने लगी कि उसका पेट भरे. देश की संपत्तियाँ / सोना तक गिरवी रखना पड़ा.
अब पुनः भारत के पास खोने को कुछ नहीं है. मेहनत नहीं करेंगे तो खाएँगे क्या. प्रगति आरंभ हुई.
पर यह हज़ारों वर्ष का आलस्य का कीड़ा इतनी आसानी से नहीं जाने वाला, तो तीन कदम आगे बढ़ते हैं और दो कदम पीछे.