पंकज कुमार झा : मुफ्त चावल वितरण.. मनमोहनी अर्थशास्त्र से नहीं समझा जा सकता
आलोचकों को अब जब कुछ भी नहीं मिल रहा है कहने के लिये तो यह कहते कि देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देना पड़ रहा है, इतनी बुरी हालत है। जबकि सच्चाई इसके उलट है। इतनी अच्छी हालत है कि दोनों हाथ से बांट रहे हैं, फिर भी कोई समस्या नहीं है।
वस्तुतः चावल बाँटने का ग़रीबी से कोई सीधा संबंध नहीं है। इसे बताने के लिए पूरा लेख लिखना होगा।
देश में करोड़ों टन चावल का उत्पादन होता है। उसे 81.35 करोड़ लोगों में बांटने से किसानों के उपजाए धान-गेहूं का उचित मूल्य देने में सरकार को सहूलियत होती है। जनता का चावल जनता के पास वापस चला जाता है।
अगर नहीं खरीदे सरकार, तो किसान परेशान होंगे, खरीद के तो उतना रखना भी एक संकट है। इसी मुफ्त चावल वितरण के कारण आज केवल छत्तीसगढ़ से किसानों का 3100 रुपये क्विंटल की क़ीमत पर डेढ़ करोड़ टन धान सरकार द्वारा खरीदना संभव हुआ है और कहीं अनाज की बर्बादी भी नहीं हुई।
ऐसे अनेक तर्क है जिसे मनमोहनी अर्थशास्त्र से नहीं समझा जा सकता है। पता है? सुप्रीम कोर्ट को पहले फैसला देना पड़ता था कि अनाज समुद्र में फेक दो।
ऐसी दर्जनों चीज मुफ़्त चावल योजना से जुड़ी हुई है। मेरा देश आज इतना सक्षम है कि अपने लोगों को मुक्त हस्त से बांट सकता है। तमाम विकसित और अमीर देशों में सामाजिक सुरक्षा के एक से एक प्रावधान होते हैं। इसमें कोई समस्या नहीं है।