कमलकांत त्रिपाठी : भाग-41 विनायक दामोदर सावरकर.. नायक बनाम प्रतिनायक

(पिछले भाग में लिंक किए गये) अखिल भारतीय हिंदू महासभा के 19वें वार्षिक अधिवेशन में दिये गये सावरकर के पूरे भाषण को तटस्थ भाव से पढ़ने पर स्पष्ट हो जाना चाहिए कि न तो वे भारत के विभाजन के पक्ष में थे, न ही भारतीय राष्ट्र-राज्य में मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की आकांक्षा रखते थे—यह तथ्यों की ग़ैर-जानकारी या किसी पूर्वाग्रह के तहत उन्हें तोड़-मरोड़कर फैलाए गये भ्रम का नतीजा प्रतीत होता है। इसके विपरीत, सावरकर आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य के समावेशी चरित्र और सभी नागरिकों के समान अधिकार के पक्षधर थे—

“भारतीय राज्य पूरी तरह भारतीय रहे। यह धर्म या नस्ल के आधार पर किसी के साथ मताधिकार, जनसेवाओं या कार्यालयों के लिए अर्हता और कर-प्रणाली के मामले में द्वेषपूर्ण भेदभाव न करे‌। किसी व्यक्ति पर हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी की पहचान न थोपी जाए। सभी भारतीय नागरिकों का, आमजन के बीच उनके धर्म या जातीय प्रतिशत के बजाय, उनकी वैयक्तिक क्षमता के आधार पर आकलन हो। भारतीय राज्य की भाषा और लिपि वह राष्ट्रीय भाषा और लिपि हो जिसे बहुसंख्यक समझते हैं, जैसा कि दुनिया के प्रत्येक देश में होता है। जाति या समुदाय, नस्ल या धर्म के बजाय ‘एक व्यक्ति–एक वोट’ का सामान्य सिद्धांत लागू हो…मैंने और मेरे जैसे हज़ारों महासभाइयों ने अपने राजनीतिक करियर के शुरू से ऐसे भारतीय राज्य को अपना राजनीतिक लक्ष्य माना है और उसकी संपूर्णता के लिए जीवन के अंत तक कार्य करते रहेंगे। क्या भारतीय राज्य का कोई विचार इससे अधिक राष्ट्रीय हो सकता है?” (बी डी सावरकर, हिंदू राष्ट्र दर्शन, एन. डी., पृ.10)

यह मात्र एक उदाहरण है कि सावरकर को लेकर बिना तथ्यों की समुचित जानकारी के कितना दुष्प्रचार हुआ है जिसका एकमात्र फलित दो समुदायों के बीच के सौहार्द की संभावना का स्खलन है। अर्द्धसत्य हमेशा प्रतिलोम अर्द्धसत्य के लिए उत्प्रेरक का काम करता है और इस तरह दुष्प्रचार के लक्ष्यसाधन के बजाय लक्ष्य-विरोधी साबित होता है।

1937 का साल इस अर्थ में महत्वपूर्ण था कि उसी साल अक्टूबर में लखनऊ में सम्पन्न हुए मुस्लिम लीग के सालाना अधिवेशन में जिन्ना ने अपना प्रसिद्ध अध्यक्षीय भाषण दिया जिसमें भारतीय मुस्लिम अस्मिता को वैश्विक इस्लामी अस्मिता से जोड़ दिया। भाषण का अधिकांश (अनुच्छेद 4 से 10 तक) कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार द्वारा मुस्लिम-हितों की अवहेलना का आक्रामक, एकपक्षीय आख़्यान है जिसमें, मेरी समझ से, 1940 के पाकिस्तान-प्रस्ताव के बीज निहित थे। नेट पर पूरा भाषण उपलब्ध है। [सामाग्री पर पहुंचने के लिए गूगल सर्च पर Presidential address by Muhammad Ali Jinnah to the Muslim League
Lucknow, October 1937 टाइप करें।]

सावरकर ने इस भाषण की आलोचना की। उन्होंने जिन्ना की माँगों को कांग्रेसी हिंदुओं की उस आशंका की उपज बताया जिसके तहत वे देश की आज़ादी को हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना असम्भव मानते थे। उनके अनुसार जब किसी देश का बहुसंख्यक वर्ग किसी अल्पसंख्यक समुदाय के सामने नतमस्तक हो जाये और उसकी मदद की गुहार लगाए तो वह समुदाय अपने सहयोग के लिए ऊँची से ऊँची बोली लगाता है और उसे बढ़ाता जाता है। मुसलमानों के देश का पूर्व शासक होने का भाव मुस्लिम लीग की इसी सोच से जुड़ गया है। सावरकर ने ऐसे हिंदुओं को, जो मानते थे कि, यदि मुसलमानों की राष्ट्र-विरोधी और कट्टर माँगे न मान ली गईं, वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लेंगे, सलाह दी कि वे अपने मुसलमान भाइयों से साफ़-साफ़ कह दें—“दोस्तों, हम एक भारतीय राज्य बनाने के लिए ऐसी एकता चाहते हैं जिसमें जाति और संप्रदाय, नस्ल और धर्म से इतर, ‘एक व्यक्ति—एक वोट’ के आधार पर सभी नागरिकों को समान समझा जाये। यद्यपि हम बहुसंख्या में हैं, हमें कोई विशेष सुविधा नहीं चाहिये, बल्कि हम अल्पसंख्यक मुसलमानों की भाषा, संस्कृति और धर्म की सुरक्षा चाहते हैं। वे अपने घरों में अपने तौर-तरीक़े अपनाएँ और हिंदुओं को नीचा दिखाने या अधीन रखने का प्रयास न करें तो उन्हें वही अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त होंगी जो अन्य नागरिकों को प्राप्त होंगी…हम इंग्लैंड से इसलिए लड़ने नहीं निकले कि उसके बाद कोई आक़ा हमारे ऊपर आ बैठे…बेइज़्ज़ती और हिंदुत्व की क़ीमत पर स्वराज्य हम हिंदुओं के लिए आत्महत्या के समान है। यदि भारत विदेशी ताक़त से आज़ाद नहीं हुआ तो मुस्लिम ख़ुद भी ग़ुलाम रहेंगे…यदि आप साथ आते हैं तो आपके साथ, नहीं आते तो आपके बिना, और विरोध करते हैं तो आपके बावजूद हम राष्ट्रीय एकता के लिए पूरी क्षमता से लड़ते रहेंगे।“ (वही, पृ. 12-13)

देश के कई हिस्सों की यात्रा के दौरान सावरकर 6 फ़रवरी 1938 को राजधानी दिल्ली पहुँचे। उनके स्वागत में वहाँ भव्य आयोजन हुआ। उनकी विशाल शोभायात्रा में हिंदू महासभा के भाई परमानन्द, डॉ. वी एस मूंजे, लाला नारायण दत्त, राम सिंह, डॉ. एम आर जयकर, एम एस अणे जैसे प्रतिष्ठित नेता शामिल हुए। कई जन-सभाओं को सम्बोधित करने और कई बैठकों में भाग लेने के बाद वहाँ से वे भोपल निकल गये।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन एक राजनीतिक पार्टी के रूप में नहीं, जनता की आवाज़ उठानेवाले एक मंच की तरह हुआ था। धीरे-धीरे इसने स्वतंत्रता आंदोलन के एक समावेशी प्लैटफ़ॉर्म का रूप ग्रहण कर लिया जिसमें विभिन्न विचारों की राजनीतिक इकाइयाँ या पार्टियाँ आज़ादी के सामान्य उद्देश्य से कांग्रेस के झंडे तले कार्य कर रही थीं। 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस की भारी जीत के बाद जब युक्त प्रांत में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच साझा सरकार बनाने के लिए वार्ता चल रही थी, नेहरू ने एक जगह अपने भाषण में कह दिया—अब वह ज़माना लद गया जब लोग कांग्रेस और साम्प्रदायिक पार्टियों में एक साथ रह लेते थे, उन्हें अब हमेशा के लिए तय करना होगा कि कांग्रेस में रहना है या साम्प्रदायिक पार्टी में। इसी विचार के अनुरूप उपरोक्त वार्ता में कांग्रेस ने साझा सरकार के लिए मुस्लीम लीग के विधायी दल के कांग्रेस में विलय होने की शर्त रख दी। वार्ता में ख़लीक़ुज़्ज़मा मुस्लिम लीग का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, वे 1934 तक कांग्रेस में ही थे। नेहरू के उक्त भाषण से ख़लीक़ुज़्ज़मा को लगा होगा कि कांग्रेस के भारी बहुमत से जीतने के बाद नेहरू बदल गये हैं। लिहाज़ा, वार्ता असफल हो गई।

1938 में सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष मनोनीत हुए थे। उसी वर्ष सुभाषचंद्र बोस ने बंबई की यात्रा की। डेमॉक्रैटिक स्वराज पार्टी के जमनादास मेहता के घर उनका रात्रिभोज था जिसमें डेमॉक्रैटिक स्वराज पार्टी के एल बी भोपटकर भी मौजूद थे। दोनों ने, नीतियों और कार्यक्रमों की समानता के आधार पर अपने दल को कांग्रेस में मिलाने की उत्सुकता ज़ाहिर की। बोस ने उन्हें आश्वस्त किया कि इस मुद्दे को कांग्रेस कार्यसमिति तथा गांधी जी के सामने रखेंगे। साथ ही बोस ने जोड़ दिया कि सावरकर जी का भी अपने और अपनी पार्टी के हाथ मज़बूत करने के लिए कांग्रेस से जुड़ना बेहतर होगा। जब बात सावरकर के संज्ञान में लाई गई तो उन्होंने सुभाष को एक लम्बा पत्र लिखकर अपनी स्थिति स्पष्ट की। उन्होंने लिखा—

“कांग्रेस के वर्तमान मानकों के अनुसार उसका कोई सदस्य किसी साम्प्रदायिक संगठन का सदस्य नहीं हो सकता। लेकिन कांग्रेस के इस मानक का आशय केवल हिंदू महासभा से है। कांग्रेस में ऐसे लोग हैं जो खुलकर अपने को मुस्लिम लीग का समर्थक मानते हैं। कांग्रेस पार्टी में उन्हें नेतृत्व तक का ज़िम्मा दिया गया है (?)। लेकिन नेतृत्व के स्तर पर मौजूद किसी कांग्रेस सदस्य को हिंदू महासभा से जुड़ने या उसके किसी आयोजन में शामिल होने पर मनाही है। ऐसे में मेरा कांग्रेस से जुड़ने का अर्थ होगा कि मैं बस नाम मात्र का हिंदूमहासभाई रह जाऊँगा। यह मेरे लिए हिंदू हितों के साथ धोखाधड़ी होगी। यह जानते हुए भी कि भारतीय हित वस्तुत: हिंदू हित ही है, कांग्रेस इसे स्वीकार नहीं करती जब कि मुसलमानों की हर माँग के आगे झुक जाती है, भले ही वह राष्ट्रहित या सार्वभौम नैतिकता के ख़िलाफ़ हो। जब तक कांग्रेस की यह सोच और प्रक्रिया जारी रहती है, मैं ऐसे संगठन में काम करना असंभव मानता हूँ। हिंदू महासभा अपने किसी सदस्य को कांग्रेस का सदस्य बनने से नहीं रोकती। मैं तो यही उम्मीद रख सकता हूँ कि कांग्रेस भी ऐसा ही उदार रवैया अपनाये…कांग्रेस का सदस्य हुए बिना भी राष्ट्र के मुद्दे पर काम किया जा सकता है, इसलिए हम कांग्रेस और उसके आदर्शों से बँधने के बजाय पूरे उत्साह और प्रेरणा के साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर काम कर रहे हैं।“ (बालाराव सावरकर, हिंदू महासभा पर्व, पृ. 86)

और सुभाष की कांग्रेस-अध्यक्षता के सबसे माक़ूल दौर में सावरकर की कांग्रेस की मुख्य धारा से जुड़ने की संभावना यहीं समाप्त हो गई।
…………….
(क्रमश:)

[नोट—विषय जनमानस में विवादास्पद है। यथासंभव श्रम और निष्ठा से अर्जित तथ्यों में त्रुटि हो सकती है। साक्ष्य के साथ इंगित करें तो कृपा होगी।]

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