सुरेंद्र किशोर : लोस चुनाव-1977 और 2024 का अंतर
जन समर्थन रहे तो कोई दल आर्थिक
रूप से पंगु नहीं बन सकता
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तब आपातकाल (1975-77) में क्रूर शासन का दौर था।
इंदिरा गांधी सरकार ने तब लोगों के बोलने का कौन कहे, जीने तक का अधिकार भी छीन लिया था।
उस ‘‘लंबी अंधेरी रात’’ में मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर को छोड़कर शायद ही किसी को
इस बात का भरोसा था कि प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी अब
कभी चुनाव भी कराएंगी।
1977 के प्रारंभ में नैयर को कहीं से संकेत मिला कि लोक सभा चुनाव होने वाला है।
नैयर साहब ने इंदिरा गांधी परिवार के ‘‘तीसरे बेटे’’ कमलनाथ
से इसकी पुष्टि करा ली।
इस सिलसिले में कमलनाथ को भी पता नहीं चल सका और कुलदीप नैयर ने अपने वाक् कौशल से उनसे इस बात की पुष्टि करा ली कि चुनाव होने जा रहा है।
नैयर का न्यूज बे्रक आइटम ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपा कि लोक सभा का चुनाव होने ही वाला है।
उससे पहले इंदिरा गांधी चुनाव कराने की अपनी इस योजना को अंत -अंत तक गुप्त रखना चाहती थीं।
इंदिरा गांधी ,विरोधी दलों को,जिनके अधिकतर नेताओं और कार्यकर्ताओं को किसी अपराध के बिना ही 19 महीनों से जेलों में बंद कर रखा था , औचक चुनाव में उतारना चाहती थीं ताकि उनकी तैयारी न हो सके और कांग्रेस चुनाव जीत कर फिर सत्ता में आ जाए।
इंदिरा गांधी ने लोस चुनाव कराने के अपने निर्णय को 18 जनवरी, 1977 को सार्वजनिक कर दिया।
नेताओं की रिहाई शुरू हो गयी।
पर, प्रतिपक्ष की ओर से चुनाव की कोई तैयारी नहीं थी –न संगठनात्मक ढंग से और न ही आर्थिक दृष्टि से।
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इस पृष्ठभूमि में जयप्रकाश नारायण का वह बयान पढ़िए जो उनके प्रेस कांफं्रेस के बाद
अखबारों में छपा था–
(इंदिरा गांधी) ‘‘सरकार सोचती है कि उसे बहुमत मिलेगा क्योंकि विरोधी दलों को चुनाव की तैयारी करने के लिए कोई समय नहीं दिया गया है।
सत्तारूढ़ दल ने आपातस्थिति को पूर्ण रूप से समाप्त न करने और हजारों बंदियों को न छोड़ने से अपना इरादा स्पष्ट कर दिया है।
इसलिए यदि कांग्रेस जीत जाती है तो आगे क्या होगा, यह बात भी लोगों के सामने स्पष्ट हो जानी चाहिए।’’
जयप्रकाश नारायण ने कहा कि ‘‘लोगों को इतनी आसानी से धोखा नहीं दिया जा सकता।
उन्होंने कठिन रास्ते से यह सीख लिया है कि केवल प्रजातांत्रिक तरीके से ही गरीब लोगों के अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं।’’
जेपी ने कहा कि ‘‘अधिकारों के दुरुपयोग से लोगों के मन में विरोध की भावना पैदा हो गयी है।इसी कारण उनकी सहानुभूति विरोधी दलों के साथ है।’’
साथ ही, जेपी ने जनता से अनुरोध किया कि ‘‘चुनाव व्यय को पूरा करने के लिए दिल खोल कर दान दें।’’
चूंकि तब इमर्जेंसी पीड़ित आम जनता, जनता पार्टी और जेपी के साथ थी,इसलिए चुनाव खर्चे के लिए पैसे की कमी 1977 की जपा की चुनावी जीत में बाधक नहीं बनी।
अधिकतर जगहों में खुद आम जनता ने चुनाव का खर्च उठाया।
जनता पार्टी को लोक सभा की 295 सीटें मिलीं।मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने।इंदिरा व संजय दोनों लोस चुनाव हार गये।
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इसके विपरीत आज कांग्रेस यह रोना रो रही है कि हमारे बैंक खातों को फ्रीज करके हमें आर्थिक रूप से पंगु बना देने का नरेंद्र मोदी सरकार प्रयास कर रही है।
जब आप लंबे समय तक आयकर रिटर्न
दाखिल नहीं करिएगा तो बैंक खाता फ्रीज होगा ही जैसा कि नियम है।
बैंक खाते फ्रीज होने के बावजूद यदि कांग्रेस के ‘‘जन समर्थन का खाता’’फ्रीज नहीं हुआ होता तो कांग्रेस को आम लोग चुनाव लड़ने के लिए आगे बढ़कर चंदा दे देते,जिस तरह 1977 में नव गठित जनता पार्टी को मिला।
पर,कांग्रेस का जन समर्थन घट जाने के कारण देश भर के अनेक प्रमुख नेता गण बारी -बारी से कांग्रेस छोड़ रहे हैं।
वे कांग्रेस में अब अपना राजनीतिक व चुनावी भविष्य नहीं देख रहे हैं।
हर दल में नेताओं के बीच कुछ ‘‘मौसम वैज्ञानिक’’ होते ही हैं।
जब देखते हैं कि फलां दल के साथ बने रहने पर चुनाव नहीं जीतेंगे तो वे अपना पुराना दल छोड़ देते हैं।उसी तरह पैसे वाले लोगों को भी हवा के रुख की अच्छी पहचान रहती है।वे भी जन समर्थन खोने वाले दलों पर पूंजी नहीं लगाते।
याद रहे कि 1977 में चुनाव की घोषणा के तत्काल बाद हवा का रुख देखकर ही जगजीवन राम तथा कुछ अन्य ने कांग्रेस छोड़ दी थी।
यदि उन्होंने इंदिरा गांधी का साथ ऐन मौके पर नहीं छोड़ा होता तो कभी चुनाव न हारने वाले जगजीवन बाबू भी सन 1977 में अपनी लोक सभा की सीट नहीं बचा पाते।
उसका प्रमाण यह है कि जनता पार्टी से टिकट नंहीं मिलने पर जगजीवन राम ने अपनी समधिन सुमित्रा देवी को बलिया(बेगूसराय)से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में खड़ा करवा दिया था।पर,उन्हें जितवाने की जगजीवन बाबू की कोशिश के बावजूद देवी जी की जमानत जब्त हो गयी।
