राजीव मिश्रा : देश की सबसे बड़े अर्थशास्त्री गृहणियों ने इस कारण अधिक दृढ़ता से मोदी सरकार में अपना विश्वास व्यक्त किया
50s और 60s का दशक जापानी इकोनॉमी के लिए बहुत ही अस्थिर और संक्रमण का काल था. कुछ तो द्वितीय विश्वयुद्ध के विनाश का प्रभाव था और कुछ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उससे भी विनाशकारी वैश्विक वामपंथ का आंशिक प्रभाव था जब वहां की सरकार वहां की इकोनॉमी को टाइट कंट्रोल में रखने का प्रयास करती थी.
डॉ मिल्टन फ्रीडमैन ने सरकारों द्वारा मुद्रा के फ्लो के कंट्रोल द्वारा इकोनॉमी को नियंत्रित करने के प्रयास का इकोनॉमी पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने के लिए जापानी इकोनॉमी का अध्ययन किया और जापानी सरकारों ने उनके लिए लैब रैट का काम किया. वहां दर्जनों बार इकोनॉमी में व्यापक सरकारी परिवर्तन लाए गए और जापान लगभग दस वर्षों तक मिल्टन फ्रीडमैन की प्रयोगशाला बना रहा. अपने ऑब्जर्वेशन से डॉ फ्रीडमैन इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जब भी सरकार इकोनॉमी में कैश फ्लो बढ़ा देती है, यानि नोट छाप पर लोगों में बांट देती है तो पहला असर बहुत ही खुशफाहमी भरा होता है. लोगों के पास पैसे आते हैं, वे उसे खर्च करते हैं.. बाजार चहकने लगता है. सबको समृद्धि का भ्रम होता है. लेकिन इससे बाजार की कुल उत्पादकता नहीं बढ़ती.
उतने ही उत्पाद के लिए अधिक खरीददार होते हैं. कीमतें बढ़ने लगती हैं. फिर मुद्रा स्फीति आती है और आपके पैसे की कीमत घट जाती है. लेकिन इस बीच आप अपनी क्षमता से अधिक खर्च कर चुके होते हैं और पहले से भी गरीब हो जाते हैं.
डॉ फ्रीडमैन ने पाया कि कैश फ्लो बढ़ाने के सकारात्मक या कहें भ्रामक प्रभाव पहले 4-6 महीने रहते हैं. पर उसके नकारात्मक प्रभाव 9 महीने से दिखने शुरू होते हैं और 18 महीने में ये अपने अधिकतम स्तर तक पहुंच जाते हैं. जनसंख्या और इकोनॉमी के साइज से इस टाइम लाइन में थोड़ा अंतर आता है लेकिन यह पैटर्न हमेशा समान रहता है. यह ऑब्जर्वेशन समाजवादी सरकारों के प्रिय महान अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ा देता है जिन्होंने सरकारों द्वारा खर्च करके इकोनॉमी को बढ़ावा देने का तावीज इजाद किया था जिसे आजतक पूरी दुनिया की सरकारें फेरी लगा कर बेचती हैं.
एक माननीय मित्र ने दावा किया कि भारत की वर्तमान इकोनॉमिक समृद्धि की शुरुआत 2008 में तब हुई जब कांग्रेस सरकार ने नया पे स्केल लागू किया. तभी अन्य एक मैडम ने उनकी बात की अगली परत खोल दी… 2008 के पे रिवीजन का असर पहले एकाध साल ही रहा, 2010 से उसका असर महंगाई पर दिखने लगा था. लेकिन तबतक देश ने महान अर्थशास्त्री जी को दूसरी बार प्रधानमंत्री चुन लिया था. 2008 में जिस घर का किराया 14000 था, वह 2014 में 25000 हो गया था. लेकिन वह 2019 तक उतना ही रहा, जबकि आमदनी बढ़ गई थी.
जो बात मिल्टन फ्रीडमैन ने दस साल के रिसर्च से जानी, वह Usha Tyagi मैडम ने सहज बुद्धि से निष्कर्ष निकाल लिया. गृहणियां सबसे बड़ी इकोनॉमिस्ट होती हैं. और जब वे अपना किचन चलाने का अनुभव देश चलाने में काम में लाती हैं तो वे देश को वैसी समृद्धि देती हैं जैसा मार्गरेट थैचर ने इंग्लैंड को दिया था. पर जब उनका किचन का अनुभव शून्य होता है तो वे देश को सोनिया गांधी वाला नेतृत्व और दुर्दशा भी देती हैं. पिछले दस वर्षों के सस्टेन्ड ग्रोथ और समृद्धि ने सिद्ध कर दिया है कि देश की समृद्धि 2008 के पे रिवीजन की तरह सिर्फ एक चुनावी हथकंडा नहीं है. इसके पीछे सचमुच देश की उत्पादक ऊर्जा है जिसे मोदी सरकार ने मुक्त किया है.
और देश के सबसे बड़े अर्थशास्त्रियों ने, देश की गृहणियों ने हमेशा सबसे अधिक दृढ़ता से मोदी सरकार में अपना विश्वास व्यक्त किया है. मोदी सरकार के दस साल बेमिसाल रहे हैं, इसके लिए हमें किसी वर्ल्ड बैंक के रिपोर्ट की आवश्यकता नहीं है.. इसके लिए देश की गृहणियों का रिपोर्ट कार्ड ही काफी है.
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