कमलकांत त्रिपाठी : तुलसी का योगदान भाग-13.. तुलसी का काव्य-सौष्ठव
तुलसी का योगदान-तेरह
तुलसी का काव्य-सौष्ठव
एक-रामचरितमानस का लोक-रूपक: धान (चावल) रूपी सत्कर्म का फलित
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलकारी॥
लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई।।
सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥…..
(बालकाण्ड, 35:2-5, 36:1-8, 37:1,2)
[सन्मति रूपी भूतल पर हृदय रूपी गहराई है। वेद-पुराण रूपी समूद्र से साधुपुरुष रूपी बादल बनते हैं और भूतल के ऊपर आकर राम के सुयश रूपी शुद्ध जल की वर्षा करते हैं, जल जो मधुर है, मनोहर है और है मंगलकारी। इस (रामचरितमानस) में ब्रह्म की (राम के रूप में) जिस सगुण लीला का वर्णन है वह (भूतल पर पड़ने से) मटमैले हुए पानी को स्वच्छ करती है। इसमें निहित जो अवर्णनीय प्रेमपूर्ण भक्ति है वही जल में शीतलता और मधुरता लाती है। वही जल सत्कर्म रूपी धान की फ़सल के लिए हितकारी है। वही सत्कर्म रूपी धान राम के भक्तजनों का जीवन है (सत्कर्म और धान दोनों जनजीवन के लिए अनिवार्य हैं)। वही (राम का सुयश रूपी शुद्ध, स्वच्छ, मधुर, मनोहर, मंगलकारी) जल सिमटकर शोभन कानों के मार्ग से पृथ्वी रूपी बुद्धि के भीतर प्रविष्ट हुआ और सुंदर चित्त (खेत) में भरकर समतल और थिर हो गया। इससे सत्कर्म रूपी धान (चावल) पुराना होकर सुखद (सुस्वादु), शीतल (सुपाच्य) रुचिकर और (देखने में) सुंदर हो गया।]
{रामचरितमानस का लोकजीवन वस्तुत: कृषि जीवन है। कृषि कर्म से जुड़े लोग ही समझ सकते हैं कि सत्कर्मों की तरह ही चावल पुराना होनेपर किस तरह सुस्वादु, सुपाच्य, रुचिकर और देखने में भी सुंदर हो जाता है (घर में कुटे चावल पर जो भूसी की महीन भीतरी परत लगी रह जाती है, उसे (अवध में) ‘पई’ नाम से अभिहित लघुकीट चाटकर पॉलिश जैसी कर देते हैं।}
दो-रामचरितमानस में लोकमत और वेदमत के दो तटों वाली सरिता का रूपक
अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि विमल अवगाही॥
भयउँ हृदयँ आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥
चली सुभग कविता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरिता सो॥
सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥
(बालकाण्ड, 38:5-6)
[रामचरितमानस रूपी सरोवर (के जल) को चित्त से चखकर और उसमें स्नान कर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई। उसका हृदय आनंद और उत्साह से भर गया और उसमें प्रेम एवं सृजनात्मक सुख का प्रवाह उमड़ पड़ा। उससे वह कवितारूपी नदी बह निकली जिसमें राम का निर्मल यश-रूपी जल भरा है। उस नदी का नाम है सरयू। वह जन-कल्याण का मूलाधार है। इसके दो सुंदर तट हैं—लोकमत और वेदमत।]
तीन–तुलसी काव्य में वात्सल्य रस की छटा
काव्यशास्त्र के आचार्य विश्वनाथ (साहित्यदर्पण) वात्सल्य को एक स्वतंत्र रस मानते हैं जिसका स्थायी भाव है स्नेह। कृष्ण की बाललीला के चित्रण में वात्सल्य रस की उत्कृष्ट निष्पत्ति सूरदास को इस क्षेत्र में अग्रणी बनाती है। किंतु तुलसी के वात्सल्य रस का अलग ही रंग है।
बर दंत की पंगति कुंदकली अधराधर पल्लव खोलन की।
चपला चमकैं घन बीच जगै छवि मोतिन माल अमोलन की॥
घुँघुरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलन की।
नेवछावरि प्रान करै तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलन की।
(कवितावली, बालकाण्ड, 5)
[(बालक राम) के ऊपर और नीचे के अधरपुटों के खुलने पर श्वेत कमलिनी की कलियों जैसी उज्ज्वल दंतपक्ति और गले में पड़ी अमूल्य मोतियों की माला ऐसे शोभायमान होती हैं जैसे श्याम रंग के बादलों के बीच विद्युत् चमक उठी हो। मुखमंडल पर लटकती घुँघराली लटों और लालिमा-युक्त गालों पर झूलते कुंडल की शोभा तथा उनकी कर्णमधुर अमूल्य वाणी पर मैं प्राण न्योछावर करता हूँ।]
चार-तुलसी में मर्यादित शृंगार का सूक्ष्म सौंदर्य
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्हीं। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सियमुख ससि भए नयन चकोरा।
भये बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥
(रामचरितमानस, बालकाण्ड, 229: 1-4)
[जनकपुर। पुष्पवाटिका में सीता और राम का प्रथम मिलन। अनुप्रास की अद्भुत् ध्वनि से शुरू होती है चौपाई। (सीता के हाथों के) कंगन, (कमर की) करधनी, और (पैरों के) नूपुर की मिली-जुली ध्वनि सुनकर राम हृदय में विचार करने के बाद लक्ष्मण से कहते हैं—मानो कामदेव विश्वविजय के संकल्प से दुंदुभी बजा रहे हों। ऐसा कहकर राम ने पुन: सीता की ओर देखा। फिर तो सीता का मुख चंद्रमा बन गया और राम की दृष्टि उसे निहारने वाला चकोर। सीता को देखते हुए राम के सुंदर नेत्र स्थिर हो गये। मानो निमि (जनक के पूर्वज, जिनका निवास पलकों में माना जाता है) ने सकुचाकर राम की पलकों को त्याग दिया जिससे झपने-खुलने का उनका गुणधर्म जाता रहा।]
दूलह श्री रधुनाथु बने दुलहीं सिय सुंदर मंदिर माहीं। गावति गीत सबै मिलि सुंदरि बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।।
रामको रूप निहारति जानकी कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं।
(कवितावली, बालकाण्ड:17)
[जनकपुर। सुंदर राजमहल में बना विवाहमंडप। राम बने हैं दूल्हा और दुल्हन हैं जनकदुलारी सीता। सुंदरी स्त्रियाँ मिलकर विवाह के मंगलगीत गा रही हैं। युवा ब्राह्मणों की एक टोली समवेत स्वर में वेदपाठ कर रही है। और सीता? वे अपने कंगन के नग में पड़ती राम की परछाईं में उनका रूप निहार रही हैं। इसमें इस क़दर तल्लीन हो गई हैं कि शेष सब कुछ भूल गया है। न उनका हाथ हटता है, न पलकें झपकती हैं।]
पांच—दाम्पत्य का आदर्श—पति का असमंजस दूर करने की तत्परता
उतरि ढाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामु गुह लखन समेता।
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुचि एहि नहिं कछु दीन्हा॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥
(अयोध्या कांड, 101:1-2)
[राम वनगमन। निषादराज गुह की नाव से गंगा पारकर राम, लक्ष्मण और सीता नाव से उतरे और बालुका-तट पर खड़े हो गये। नाव से उतरकर केवट ने दंडवत किया। प्रभु राम यह सोचकर संकुचित हो गये कि केवट को उतराई नहीं दी–उसके लिए कुछ था ही नहीं। पति के मन की बात, उसका संकोच, उसका द्वंद्व तुरंत भाँप लेनेवाली सीता ने ख़ुश-ख़ुश अपनी रत्नजटित अँगूठी निकाली और राम की ओर बढ़ा दिया। किंतु राम जब केवट को उतराई देने लगे, उसे स्वीकार करने के बजाय उसने राम के पैर पकड़ लिये।]
छह—लोकमन के अंतरंग चित्र
अयोध्याकांड। गंगा पार कर, संगम पर स्नान करने और भरद्वाज आश्रम में ठहरने के बाद राम, लक्ष्मण और सीता निषादराज गुह के साथ यमुना पार करते हैं और अनुनय करके निषादराज को वापस भेज देते हैं। अब वे चित्रकूट की ओर बढ़ रहे हैं। रास्ते के एक गाँव में ग्राम-वधुयें सहज जिज्ञासा में सीता से पूछती हैं—
स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी। बिलगु न मानब जानि गँवारी॥
राजकुअँर दोउ सहज सलोने। इन्ह तें लही दुति मरकत सोने॥
[मरकत मणि (पन्ना) की हरिताभनील (राम की) और सुनहरी (लक्ष्मण की) कांति]
श्यामल गौर किशोर बर सुंदर सुषमा ऐन। सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद ससोरुह नैन॥
[सर्बरी=शर्वरी—रात]
कोटि मनोज लजावनहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे॥
(रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड, 115:3-4, 116, 116:1)
[सीता को संबोधित—मालकिन, हमारी धृष्टता क्षमा कीजिएगा। हमें गँवार समझकर बुरा न मानियेगा। ये दोनों राजकुमार बहुत सीधे और सुंदर हैं। लगता है, पन्ना (हरा) और सोना (सुनहरा) ने अपनी चमक इन्हीं से ली है। क्रमश: साँवला और गोरा रंग, किशोरावस्था, परम सुंदर, जैसे सुंदरता के धाम हों। शरद ऋतु की पूर्णिमा के चाँद की तरह इनका मुखड़ा है और शरद् ऋतु के कमल की तरह इनकी आँखें। अपनी सुंदरता से करोड़ों कामदेवों को लज्जित करनेवाले ये आपके क्या लगते हैं?]
सीता की प्रतिक्रिया
तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ संकोच सकुचति बरबरनी॥
सकुचि सप्रेम बाल मृगनयनी। बोली मधुर बचन पिकबयनी॥
सहज सुभाय सुभग तन गोरे। नामु लखन लघु देवर मोरे॥
बहुरि बदन बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी।
खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निज पति कहेउ तिन्हहि सिय सैननि॥
(अयोध्याकाण्ड, 116: 3-7)
[दोनों की ओर देखकर गौरांगी सीता अपनी निगाह धरती में गड़ा लेती हैं। दोहरे संकोच से संकुचित—न बताने पर ग्राम्य-वधुओं को बुरा लगेगा और बतायें तो राम के बारे में कैसे बतायें! आख़िर हिरणशावक-जैसे सुंदर नेत्रोंवाली और कोयल-जैसी मधुर वाणीवाली सीता ने संकोच और प्रेम से विगलित स्वर में कहा—जो सहज स्वभाव और सुंदर, गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है, वे मेरे छोटे देवर हैं। फिर उन्होंने अपने चंद्र-मुख को आँचल से ढक लिया और राम के शरीर पर एक नज़र डालकर भौंहों को टेढ़ी किया। खंजन पक्षी-जैसी अपनी आँखो को तिरछी किया और इशारे से उन्हें अपना पति बता दिया।]
सात–नीतिवचन और नैतिक-बोध
काम-विकल शूर्पणखा का राम से प्रणय-निवेदन निष्फल जाने पर उन्हीं की कौतुकपूर्ण सलाह पर वह लक्ष्मण के पास पहुँच जाती है। लक्ष्मण स्वयं को राम का सेवक बताते हुए उससे जो कहते हैं उच्च कोटि का नीतिवचन है—
सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी।
लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी॥
(रामचरितमानस, अरण्यकाण्ड, 16:8)
[सेवक सुख की कामना करे, भिखारी स्वाभिमान की, जुआ, मद्यपान वगैरह का व्यसन पालनेवाला धन की, व्यभिचारी उत्तम गति की, लोभी यश की और अभिमानी धर्म, अर्थ काम, मोक्ष रूप चार पुरुषार्थों की, तो ये सभी आकाश को दुहकर दूध निकालने की कामना कर रहे हैं।]
खर, दूषण और त्रिशिरा तीनों भाइयों के मारे जाने पर राक्षसी होने के बावजूद शूर्पणखा ने रावण को जो उलाहना दिया, राजनीति और व्यवहार-नीति का मेरुदण्ड है—
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥
विद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रमफल पढें कियेँ अरु पायें॥
संग ते जती कुमंत्र ते राजा मान ते ज्ञान पान ते लाजा॥
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥ (अरण्यकांड, 20:4-5)
रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि विविध विलाप करि लागी रोदन करन॥ (अरण्यकाण्ड, सोरठा-21)
[नीति के बिना राजपद, धर्म के बिना धन, ईश्वर को समर्पित किये बिना उत्तम कर्म और विवेकशून्य विद्या के अर्जन में लगा श्रम व्यर्थ जाता है। विषयों के सम्पर्क से सन्यासी, ग़लत सलाह से राजा, अभिमान से ज्ञान और मद्यपान से लज्जा नष्ट हो जाती है। नम्रता से विमुख प्रेम और अहंकार से युक्त गुणवान शीघ्र नष्ट हो जाते हैं—ऐसा नीतिवचन मैंने सुना है।
आठ-पारिवारिक मर्यादा
राम द्वारा बालि-वध। मरणासन्न बालि ने राम से छिपकर उसे मारने का कारण पूछा–मैं बैरी सुग्रीव पियारा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा।। (किष्किन्धाकाण्ड, 8:3)
राम का उत्तर पारिवारिक सम्बंधों में भारतीय नैतिक परम्परा का निकष है—
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ ये कन्या सम चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥
[छोटे भाई की पत्नी, बहन, पुत्रबधू और कन्या चारों समान हैं। इन्हें बुरी नज़र से देखनेवालों की हत्या में कोई दोष नहीं।]
नौ–वर्षा व शरद ऋतु-वर्णन के ब्याज से मानव-व्यवहार की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति—रामचरितमानस का विलक्षण काव्यांश
वाल्मीकीय रामायण में भी सीता-विरह से विकल राम द्वारा पहले पम्पा सरोवर और फिर सुग्रीव के राज्यारोहण के बाद वनवास की मर्यादानुसार किष्किंधापुरी के बजाय प्रस्रवण पर्वत की कंदरा में रहते हुए वर्षा और शरद ऋतु का मनोहारी वर्णन आता है। किंतु ऋतुवर्णन की इस परम्परा में तुलसी द्वारा उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकार के अद्भुत प्रयोग से अध्यात्म के गूढ़ तत्वों के साथ व्यवहार-नीति एवं राजनीति का जो अप्रतिम निदर्शन हुआ है वह साहित्य-जगत् को तुलसी की मौलिक देन है। लगता है, यहाँ ऋतु-वर्णन गौण है, यह निदर्शन ही प्रधान है। तुलसी ने भारतीय साहित्य परम्परा में एक नवीन मार्ग प्रशस्त किया जिसका अनुगमन शायद ही किसी परवर्ती ने किया हो।
कालिदास के ऋतुसंहारम् का उपजीव्य ही भिन्न-भिन्न ऋतुओं का शृंगारिक आख्यान है। भारवि के महाकाव्य किरातार्जुनीयम् एवं माघ के शिशुपालवधम् में छहों ऋतुओं के संयुक्त विलास का जो सौंदर्यांकन हुआ है वह रससिक्त करने के बावजूद तुलसी की इस ऊँचाई से बहुत दूर है। मेरी अल्प समझ में रामचरितमानस का यह सर्वोत्कृष्ट अंश है–
वर्षा ऋतु
लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पेखि।
गृही* बिरति रत+ हरष जस विष्णुभगत कहुँ देख॥13॥ (*गृहस्थ,+वैरागी)
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रियाहीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रही घन माँही। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।
बरषहिं जलद भूमि नियराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाए॥
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसें। खल के बचन संत सह जैसें॥
छुद्र नदी भरि चलीं तोराई*। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥ (किनारों को तोड़ती)
भूमि परत भा ढाबर* पानी। जनु जीवहिं माया लिपटानी॥ (*मटमैला)
सिमिटि-सिमिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥
(किष्किंधाकाण्ड, 13:1-4)
हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।
जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥14।।
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥
अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी॥
ससि* सम्पन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी॥ (*फ़सल)
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥
महावृष्टि चलि फूटि कियारीं। जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारी॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध* तजहिं मोह मद माना॥ (*विद्वान)
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कालिहि* पाइ जिमि धर्म पराहीं॥ (*कलियुग)
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपजि न कामा॥
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन* उपजें ग्याना॥(*शिथिल इंद्रियाँ)
कबहुं प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥ (15-क)
कबहुँ दिवस महँ निविड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग*। (15-ख) (*सूर्य)
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥15॥
शरद ऋतु
बरषा बिगत सरद रितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढाई॥
उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहि सोषइ संतोषा॥
सरिता रस निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा।
रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खंजन आये। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥
पंक न रेनु सोह अस धरनी। नीति निपुन नृप कै जस करनी॥
जल संकोच बिकल भइ मीना। अबुध* कुटुंबी जिमि धनहीना॥ (*मूर्ख)
बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन* इव परिहरि सब आसा॥ (*भगवद्भक्त)
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक पाव भगति जिमि जोरी*॥ (*कोई बिरला ही मेरी भक्ति पाता है) (15:1-5)
चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥16॥
सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकउ बाधा।
फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भयें जैसा॥
गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नानारूपा॥
चक्रवाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी॥
चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकरद्रोही॥
सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥
देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुलनाशा॥ (16:1-4)
भूमि जीव* संकुल रहे गए सरद रितु पाइ। (*कीट-पतंगे)
सदगुरु मिलें जाहि जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥17॥
………….
(क्रमश:)