प्रसिद्ध पातकी : एक अद्भुत व्याख्या विष्णु सहस्रनाम के एक अंश की
कानों में जरा कह दे कि आएं कौन दिशा से हम?
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विष्णु सहस्रनाम में वैसे तो भगवान श्रीमन्नारायण के सहस्र से अधिक नाम आते हैं किंतु वैष्णव संतो ने इसके कई श्लोकों को भगवान के अवतार विशेष पर केंद्रित माना हैं। अब चूंकि इस समय समूचा भारत वर्ष अयोध्या के प्राणधन भगवान राम की सुवास से महक रहा है, हम देखते हैं कि सहस्रनाम में रघुनन्दन के लिए कौन-कौन से नाम आते हैं।
परद्धिर् परमस्पष्टसंतुष्ट: पुष्ट: शुभेक्षण:।।
रामो विरामो विरतो मार्गो नेयोsनय:।
वीर: शक्तिमतां श्रेष्णो धर्मो धर्मविदुत्तम:।।
भगवान राम हर बात की सीमा हैं। उनसे परे कुछ है ही नहीं। ‘विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत् प्रियदर्शन:।’ वे विष्णु भगवान जैसे साहसी और चंद्रमा के समान प्रियदर्शन है। भगवान रामभद्र ‘परम स्पष्ट’ है क्योंकि वे ब्रह्म हैं। किसी प्रकार की दुविधा आप उनमें कभी नहीं पाएंगे। राम की तरफ जाने अर्थ ही है कि आपकी भी दुविधा मिटती जाती है। स्पष्टता बढ़ती जाती है। इष्ट के गुण चिन्तन से उनका आविर्भाव भक्त के भीतर भी होता है।
भीष्म दादा ने भगवान राम को ‘तुष्ट’ कहा है। ऐसे प्रभु जो अतुलनीय हो और अनिर्वचनीय हो, पर वे भला किस बात से तुष्ट रहते हैं? क्या रोचक बात है कि वे अपने मनुज स्वरूप से तुष्ट रहते हैं। ‘आत्मानां मानुषं मन्ये रामं दशरात्मजम्।’ अर्थात ‘मैं दशरथ पुत्र राम अपने को मनुष्य मानता हूँ।’ राभभद्र छह गुणों से संपन्न होने के कारण ‘पुष्ट’ हैं।
भगवान कौशल्यानन्दन ‘शुभेक्षण’ हैं। इस पर मैं पहले भी लिख चुका हूँ। शास्त्रों में भगवान को देखने और भगवान द्वारा देखने के बारे में इतनी बड़ी बात कही गयी है कि उसके आगे कुछ भी कहना असंभव है :-
यश्च रामं न पश्येत्तु यं च रामो न पश्यति।
निन्दित: स वस्सेलोके स्वात्म अपि एवं विगर्हते।।
जो भगवान राम को नहीं देखता या भगवान राम की दृष्टि जिस पर नहीं पड़ी हो उसकी पूर संसार ही निंदा नहीं करता वरन् उसकी आत्मा तक उसे धिक्कारती है। दशरथ नन्दन के विष्णु सहस्रनाम में आये शेष नामों पर फिर चर्चा करेंगे।
अभी तो बस एक ही प्रतीक्षा है। भगवान राम के मुख चंद्र के दर्शन की। वैसे भगवान विष्णु जन्म नहीं लेते हैं। उनका अवतार होता है। उन्हें बुलाना पड़ता है। उन्हें उठाना पड़ता है। उन्हें सुलाना पड़ता है। मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूँ कि मुझे रामायण में मुख्य रामकथा के साथ-साथ जो उपकथाएं हैं, वे भी बहुत प्रिय लगती हैं। ऐसे ही एक कथा आती है मनु-शतरूपा की। मनु से ही मनुष्य बने। इन्हीं राजा मनु ने भगवान श्रीहरि को पृथ्वी पर लाने के लिए अपनी धर्मपत्नी महारानी शतरूपा के साथ वनों में तपस्या की थी। इनकी तपस्या से रीझ कर भगवान विष्णु ने आकर उन्हें वरदान दिया था कि वह स्वयं उनके परिवार में जन्म लेंगे। ‘तत्कुले पुत्रो जायते श्रीपति: स्वयम्।’ बाद में यही महाराज मनु एवं महारानी शतरूपा राजा दशरथ और माता कौशल्या के रूप में जन्में और इनके आँगन में वेदों का सार श्रीपति घुटनों चले थे।
पर इतिहास गवाह है कि कभी-कभी श्रीराघवेन्द्र को बुलाने के लिए अकेले मनु महाराज की तपस्या से काम नहीं चलता है। मनु की सहस्रों संतानों को रघुनन्दन को बुलाने के लिए तपस्या और तितिक्षा करनी होती है। एक-दो नहीं पांच शताब्दी तक। तपस्या वन प्रांत में हो आवश्यक नहीं है। मनु महाराज की सहस्रों संतानों ने खुली जेल में मौसम की मार झेलते हुए भूखे-प्यासे रहकर तपस्या की। महारानी शतरूपा ने अपने नाम को चरितार्थ करते हुए माँ के अपने सैकड़ों रूप प्रकट किए और जिनकी संतानों ने रामजी को लाने के लिए की जाने वाली तपस्या में आततायी शासन की गोलियों का हँसते हुए सामना किया। इन सब का एक ही लक्ष्य था कि श्रीराघव की ससम्मान अपने जन्मस्थल पर वापसी हो। और अंतत: प्रभु श्रीराम अपने जन्मस्थल पर विराजमान होने जा रहे हैं। एक-एक पल भारी लग रहा है क्योंकि कौसल्यानन्द का कल अपनी जन्मस्थली में नेत्रोन्मीलन होने जा रहा है और सहस्रो मनु एवं शतरूपा की तपस्या चरितार्थ हो रही है। परम रामभक्त किंकर जी महाराज ने एक बार कहा था, ‘‘मेरा राघव तो फूलों से भी सुकुमार है।’’ अब हर भक्त की यही अभिलाषा कि वे इस ‘फूलों से भी सुकुमार राधव’ को अपनी नहीं मनु-शतरूपा की आँखों से निहारे। और उस सुकुमार की रस माधुरी की सरिता को आँखों से दिल में उतार लें। हर भक्त को लग रहा है कि वह कैसे जल्द से जल्द रामलला की ड्योढ़ी को जाकर चूमे और भगवान का चरणमृत पान करे। सभी मन ही मन गुरु विश्वामित्र के इन शब्दों को याद करके कह रहे हैं कि हे कौशल्या नन्दन आप जागिए ताकि भारत के भाग्योदय का सुप्रभात हो सके।
कौसल्यासुप्रजा राम पूर्वा सन्ध्या प्रवर्तते ।
उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैवमाह्निकम् ॥
एकादशी की राम राम
लेख साभार प्रसिद्ध पातकी जी