साधना का सबसे बड़ा केन्द्र कैलाश आश्रम.. इनमें से कोई शंकराचार्य था क्या?
आज समस्या यह है कि हिन्दू न अपने शास्त्र से परिचित है, न साधना से, न लोक चेतना से परिचित है और न ही लोक परम्परा से। वह अपनी परम्परा, लोक व्यवस्था और हिन्दुत्व की खोज रिलिजन और मजहब के सापेक्ष करता है। जो कुछ मजहब और रिलिजन में है वह सब कुछ उसे हिन्दुत्व में भी चाहिए, क्योंकि वह उसी विचार से पढ़-लिखा है या उसी की प्रतिक्रिया में खड़ा हुआ है।
उसे भले ही यह पता न हो कि आदि शंकराचार्य कौन थे और शंकराचार्य व्यवस्था का हेतु क्या था, लेकिन उसे पोप जैसा एक कोई व्यवस्था का अनुशासक चाहिए, जो उसके और ईश्वर के बीच मध्यस्थ हो।
आदि शंकराचार्य का प्रादुर्भाव भयंकर सामाजिक विसंगतियों के बीच हुआ था, लेकिन उन्होंने सतही सामाजिक विसंगतियों को लेकर कार्य नहीं किया, बल्कि समाज की चेतना के धरातल को परिवर्तित करने के लिए कार्य किया। यदि वे केवल विधि और निषेध में फंसे होते तो किसी आचार संहिता और कर्मकाण्ड प्रदीपिका की रचना किए होते, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने मानव चेतना के धरातल के परिवर्तन के लिए कार्य किया, उन्होंने मानव के अज्ञान को दूर कर उसके सच्चिदानन्द स्वरूप के बोध के मार्ग को प्रशस्त करने का कार्य किया, जो जीवत्व को शिवत्व की अनुभूति कराने के द्वार को खोल सके।
उन्होंने यह नहीं कहा कि मैं श्रीमन्नारण का अवतार हूँ और तुम मेरी बात मानों नहीं तो अपने श्राप से भस्म कर दूंगा, बल्कि उन्होंने यह कहा कि जो मैं हूँ वही तुम हो। अन्तर बस यह है कि हमें अपने स्वरूप का बोध है और तुम्हें नहीं है। तुम्हें अपने स्वरूप का बोध करना है जिससे हमारा तुम्हारा भेद मिट जाए, जब हम रहें न तुम रहो, बस चैतन्यस्वरूप शिवत्व रहे।
उन्हें भगवान इसलिए नहीं कहा गया कि वे किसी भगवत् पीठ के उत्तराधिकारी थे और न ही उन्होंने अपने आप को किसी का अवतार घोषित किया था। उन्हें भगवान इसलिए कहा गया क्योंकि उनमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य, श्री, यश और ऐश्वर्य रूपी भगवत्ता थी। यह छः भग जिसमें भी प्रकट होंगे वह भगवान कहा जाता है।
शंकराचार्य के पीठों की स्थापना कर्मकाण्ड की संस्थापना को सुनिश्चित करने के लिए नहीं हुई थी, बल्कि समाज में उस अद्वैत चेतना के प्रचार-प्रसार के लिए हुई थी जिसका राष्ट्रव्यापी सुदृढ़ आधार उन्होंने अपनी बत्तीस वर्ष की अल्पायु में किया था। वे भगवान बनकर पूजवाने और आदेशित व श्रापित करने के लिए नहीं विचार की गंगा के प्रवाह के लिए, साधाना और अनुभूति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए किये थे। अध्ययन, मनन और निदिध्यासन की परम्परा को जन-जन तक पहुंचाने के लिए किये थे। यह आज विचार का विषय है कि क्या उनके इस कार्य को उनके द्वारा स्थापित पीठें कर पा रही हैं?
आज देश में ही नहीं विदेश में भी अद्वैत वेदान्त का प्रचार-प्रसार हो रहा है, लेकिन इसमें इन पीठों का क्या योगदान है?
अद्वैत मत के अध्ययन और साधना का सबसे बड़ा केन्द्र कैलाश आश्रम है, कोई शंकराचार्य का मठ क्यों नहीं है? स्वामी विवेकानन्द भी वहाँ जाकर ज्ञान प्राप्त किए, लेकिन वे किसी शंकराचार्य मठ गये होते तो दुत्कार कर भगा दिए गये होते।
पिछली शताब्दी में सबसे मूर्धन्य अद्वैत साधना के दीप स्तम्भ जिनके ज्ञान और साधना ने समाज को आलोकित किया उनमें कितने शंकराचार्य थे? स्वामी शिवानन्द जी, स्वामी तपोवन जी, स्वामी पुरुषोत्तमानन्द जी हों या स्वामी अखण्डानन्द जी व उड़िया बाबा इनमें कौन शंकराचार्य थे? देश-विदेश में अद्वैत दर्शन और साधना का प्रचार-प्रसार करने वाले स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी योगानन्द, स्वामी चिन्मयानन्द, बावरा जी, महेश योगी, स्वामी दयानन्द और ऐसे ही अगणित अन्य जिन्होंने न केवल भारत अपितु विदेशों में आदि शंकर के विचारों का आलोक फैलाकर साधना पथ प्रशस्त किया इनमें से कोई शंकराचार्य था क्या?
हाँ, श्राप देने का बीणा अवश्य आपने उठाया है, लेकिन जब बाबर के आदेश पर मीर बाकी ने श्रीराम मंदिर को उध्वस्त कर दिया तब भी आप जैसा कोई श्राप देने वाला रहा होगा। सब श्राप बचाकर रखे रहे कि अयोध्या में पुनः जब श्री राम का मंदिर बनेगा तब प्राण प्रतिष्ठा के समय दूंगा। क्या आपकी प्रासंगिकता बस विभेद और विवाद खड़ा करने के लिए ही रह गई है?
साभार- डाॅ. चन्द्र प्रकाश सिंह