देवांशु झा : हमारा भारत महान.. हम कहीं भी…

यह ग्वालियर स्टेशन का एक नंबर प्लैटफॉर्म है। दशक भर पहले ये स्टेशन और प्लैटफॉर्म जैसे होते थे, अब वैसे नहीं रहे। भारी भीड़ के बावजूद साफ-सुथरे रहते हैं। लेकिन जो काम्य है, वह नहीं मिला। आप देख सकते हैं कि यहां पटरियों पर खाने-पीने की वस्तुएं, चिप्स बिस्कुट के पैकेट, खाली दोने, ठोंगे पड़े हुए हैं। गुटकों की फुहार से पटरियां रंग गईं हैं।

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एक व्यक्ति हाथ में पालीथिन पहनकर उन्हें समेट रहा। हम कितनी शिकायतों से भरे रहते हैं। अपनी हर यात्रा पर मैं सहयात्रियों की बातें सुनता हूॅं। उनकी आशाएं अनंत हैं। और उनके नागरिक दायित्व, कर्तव्य नगण्य। यह एकतरफा व्यापार रहा है। जहां रेलवे इस्तेमाल और फिर बाय बाय कहने का साधन है। अब थोड़ी जागृति आयी है परन्तु आज भी हम उसी मानसिकता के साथ चलते हैं कि हम क्यों करें? हम क्यों न कूड़ा फेकें? हमने पैसे भरे हैं इसलिए हम गंदगी फैलाने के लिए अधिकृत हैं। अगर एक बार में फ्लश नहीं चला तो हम दुबारा प्रयास नहीं करते। भला क्यों करें? हमारा सिरदर्द नहीं है! हमारा घर नहीं है रेलवे! हमने हग-मूत दिया! हमारी निवृत्ति हो गई। जिम्मेदारी रेलवे की!

 

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जब मैं इस स्वच्छताकर्मी को देखकर कुछ वितृष्णा और उदासी से भर उठा था तब उसके ठीक सामने प्लैटफॉर्म पर खड़े युवा अपनी धुन में डूबे थे। उनके लिए भी यह दृश्य सामान्य ही था–अत्यंत भारतीय! तो क्या हुआ, अगर वह आपकी फैलाई हुई गंदगी साफ कर रहा? रेलवे ने उसे काम दिया है भाई! हमारी यही मनोवृत्ति है। हम एक नागरिक के रूप में अपने आसपास की धरती, सड़क, रेल की पटरियों, सार्वजनिक स्थलों को एक विशाल कूड़ेदान की तरह देखते हैं। हम कहीं भी थूक सकते हैं। साफ और सुंदर सड़कों पर चलती हुई गाड़ी के शीशे उतार कर पालीथिन और पैकेट्स फेक सकते हैं।हमें कोई कचोट नहीं होती। हम कहीं भी मूत सकते हैं। ये हमारे मौलिक अधिकार हैं। मैं कई बार परम आश्चर्य से भर उठता हूॅं कि घर से बाहर निकलते ही हमारे व्यवहार में ऐसा बदलाव क्यों आ जाता है। जहां हम मानते हैं कि ईंट गारे का वह घेरा हुआ भवन मात्र ही उसका भुवन है। उस रेखा के पार स्वच्छता का सारा बोध मर जाता है। सारा दायित्व अस्तित्वहीन हो जाता है।

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