सर्वेश तिवारी श्रीमुख : कमजोर और असमर्थ लोगों के लिए जीवन नरक

यकीन कीजिये, मैं इस मुद्दे पर कुछ नहीं कह पा रहा हूँ। मैं इसके आगे सोच ही नहीं पा रहा कि माता-पिता और छह भाई-बहनों के परिवार में से बच गए ये दो बच्चे कैसे जी सकेंगे। वह आठ साल का अनमोल, जिसके सामने उसके माता-पिता, दो बहनों और बड़े भाई को निर्ममता पूर्वक मार दिया गया, क्या वह जीवन पर्यन्त इस पीड़ा से बाहर निकल भी सकेगा? नहीं निकल सकेगा।


एक सामान्य व्यक्ति जब घर लौटता है तो उसकी आंखें अपने लोगों को ढूंढती है। खासकर स्त्रीयों को… मां, पत्नी… घर घरनी का ही होता है न! फिर ये तो बच्चे हैं… घर लौटे भी किसके पास लौटेंगे? कुछ दिनों बाद संवेदनाओं का मेला समाप्त हो ही जायेगा, कुछ दिनों में राजनैतिक लोगों का आना जाना बंद हो ही जायेगा, व्यू मिलना कम होगा तो पत्रकारों का दल भी मुँह मोड़ ही लेगा… उसके बाद? केवल वे दो अभागे भाई बचेंगे, जिनके पास अपना कहने को कोई नहीं…
माता पिता अपना पूरा जीवन जी कर जाते हैं, तब भी बच्चे उन्हें याद कर के बार बार उदास हो जाते हैं। अपना सहोदर भाई यदि बीमारी से भी चला जाय, तो भाई बहन जीवन भर उन्हें याद कर के रोते हैं… यहाँ तो एक साथ सबको मार दिया गया है। मुझे नहीं लगता कि ये दोनों बच्चे कभी उस अवसाद से निकल पाएंगे। भय से काँपते, तड़पते चेहरे हमेशा याद रहेंगे उन्हें… वे शायद ही अपने जीवन में कभी खुश हो सकें…
वे बच्चे उस आंगन में घुस ही नहीं सकेंगे, जहाँ उनके सारे अपनों का खून बिखरा हुआ है। सोच कर देखिये, कोई पत्थर ही होगा जो सोच कर न हिल जाय। बड़ा कठिन है उनका जीवन… शायद मृत्यु से भी अधिक भयावह! और वह भी तब, जब उनका कोई दोष नहीं, रत्ती भर दोष नहीं…

Veerchhattisgarh
अपने ग्रुप्स में शेयर कीजिए।

न्याय, बदला, बुलडोजर… ये सब क्षणिक सन्तोष देने की चीजें हैं। कुछ देर के लिए मन को बहलाने का सामान है सब… जो छिन गया है, उसकी भरपाई नहीं हो सकती कभी! जो चोट लगी है, वह कभी ठीक नहीं होगी।
लोग ऐसे मुद्दों में भी जाति तलाश लेते हैं। इधर से भी, उधर से भी! मैं जाति तक नहीं पहुँच पा रहा। यदि जाति के आधार पर मामला उल्टा होता, तभी मैं यही कह रहा होता… पीड़ा की कोई जाति नहीं होती…
न्याय होगा ही। कानून अपना काम करेगा ही। जब वहाँ के स्थानीय विधायक, सांसद, और मुख्यमंत्री तक बच्चों के साथ खड़े दिख रहे हैं तो अविश्वास नहीं होता… फिर भी! कुछ विशेष नहीं बदलने वाला…
आप यकीन करें न करें, कमजोर और असमर्थ लोगों के लिए जीवन नरक ही है। कोई भी सामर्थ्यवान कभी भी उनका सबकुछ छीन सकता है। लोकतंत्र भी “जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाले सामंतवादी भाव में कोई बदलाव नहीं ला सका है। लोकतंत्र भी तो अंततः जनबल से ही चलता है न!
दुखद है यह! इतना कि कुछ कहा नहीं जा रहा… उत्तर प्रदेश सरकार क्या कर पाती है, यह देखना होगा! बाकी अबतक तो कुछ दिख नहीं रहा…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *