प्रसिद्ध पातकी : पितृ पक्ष और विष्णु सहस्रनाम
‘‘आया कनागत बंधी आस, बामन उछलें नौ-नौ बांस’’….लोक में यह कहावत पितृ पक्ष को लेकर आम है। यह पक्ष आने से स्वाभाविक बात है कि बामन देवता की पूछ-परख बढ़ जाती है। अपने पितरों को याद करने का यह पखवाड़ा सूर्य राशि के कन्या में आने पर पड़ता है। ‘‘कन्या-आगत’’ शब्द को लोक ने अपने वाक् सुभीते के लिए घिस-घिस कर ‘‘कनागत’’ बना दिया।
‘फूले कास सकल मही छाई, जनु बरसा कृत प्रकट बुढ़ाई’ । गोस्वामी जी के शब्दों में जब वर्षा ऋतु ‘बुढ़ाने’’ लगती है। ऐसे में घर के बड़े-बूढ़ों की याद की जाती है।
याद करने के इस सिलसिले को यदि थोड़ा बढ़ा दिया जाए तो बात निश्चित ही भगवान तक पहुंचनी तय है। गीता में अपने प्रिय मित्र अर्जुन के अनुरोध पर भगवान केशव ने अपनी जो विभूतियां बतायी हैं, उनमें एक ‘अर्यमा’ भी है।
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥
भगवान ने अपने को यह जो ‘अर्यमा’ बताया है, दरअसल वे अदिति के पुत्र हैं और भुवन भास्कर के द्वादश नामों में से एक है। अर्यमा को एक प्रमुख पितर माना जाता है।
विष्णु सहस्रनाम में भी भगवान का एक नाम ‘प्रपितामह’ आता है।
भूर्भुव:स्वस्तरुस्ताराः सविता प्रपितामहाः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्ययज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनाः ॥
ब्रह्मजी के जनक होने के कारण भगवान विष्णु ‘प्रपितामह’ हैं। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि हमें पूर्वजों को स्मरण क्यों करना चाहिए? क्या लोक मान्यता है, इसलिए? क्या शास्त्र वचन है, इसलिए?
विज्ञान भी अब धीमे धीमे इस निष्कर्ष पर पहुंच रहा है कि आप के शरीर में जो रुधिर बह रहा है, आपके चित्त में जो वृत्तियां उठ रही हैं, आपकी जो कद-काठी है, आपका जो मन-मिजाज है, आपकी जो इच्छाएं और रुझान हैं, आपका जो डीएनए है, आदि आदि यह सब मात्र आपके माता-पिता की देन नहीं है। इसके पीछे एक लंबी सूक्ष्म परंपरा है, आपके पूर्वजों की।
मेरे पिताजी के एक मित्र थे, श्रीविद्या के गंभीर उपासक। उन्होंने मुझसे एक बार एक बड़ी विचित्र बात कही थी, ‘मनुष्य को अपना देवता ही नहीं नशा भी वही चुनना चाहिए जिसका सेवन उसके पूर्वज करते रहे हों। आपके शरीर को ऐसा नशा अधिक नुकसान नहीं पहुंचाएगा।’
पितृपक्ष में तर्पण करिए। ब्राह्मण भोज कराइये। पितरों के नाम पर दरिद्र नारायण सेवा करिए। यह सब बहुत अच्छी बात हैं। पर एक बात और ध्यान में रखिए कि इस पखवाड़े में आप जो भी पूजा-पाठ करते हो, उसे प्रारंभ करने या पूर्ण होने पर अपने पूर्वजों एवं दिवंगत स्वजनों का स्मरण अवश्य करिए। मैं अपने अनुभव से बता सकता हूं कि ऐसा करने से यदि आपके पूर्वज प्रसन्न हुए तो आपको इतने आनन्द की अनुभूति होगी जिसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं। यह काम गायत्री मन्त्र के जप से और तीव्र गति से होता है। महर्षि नारद के ‘भक्ति सूत्र’ में आता है, ‘मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवता: सनाथा चेयं भूर्भवति।’(भक्त के आविर्भाव से पितर प्रसन्न हो जाते हैं, देवता नृत्य करने लगते हैं और पृथ्वी सनाथ हो जाती है)। अत: पितृ पक्ष में अपने स्वजनों की तिथि आने पर श्राद्ध एवं तर्पण के साथ साथ भक्ति भाव से विष्णुसहस्रनाम का पाठ भी किया जा सकता है। यह अपने ही नहीं पितरों को भी मुदित कर देता है।
आदरणीय श्रीकृष्ण जुगनू जी ने बातचीत के क्रम में भागवत का एक हृदयस्पर्शी प्रसंग सुनाया। पूतना प्रसंग के बाद पूरा नन्दगाँव डर और सन्देह के बादलों में घिरा था। ‘‘लाला को कुछ हो ना जाए? कोई अलाय-बलाय न लग जाए?’’ पर नन्द्र बाबा ठहरे परम गोभक्त। ‘बाबू’ को उठाकर अपनी सबसे प्रिय गाय के समीप ले गये। उसकी पूंछ को ‘बाबू’ के चारों ओर घुमाकर सारी अलाय-बलाय को दूर कर दिया। नजर, टोटके, जंतर-मंतर सब गाय की पूंछ को मयूर पंख की तरह शरीर के चारों ओर घुमा देने से कट गये। यह हमारे गोपालक समाज की एक दृण मान्यता थी। गाय में यूं ही देवताओं का वास नहीं कहा गया है।
तो फिर भजे कक्का, श्रीहरि तो हमारे “प्रपितामह” हैं। वह न जाने कितने संकटों, अलाय-बलाय और दीठ-कुदीठ से हमारी रक्षा करते हैं। कब अदृश्य रूप से हमारे ऊपर नन्दिनी की पूंछ फेर जाते हैं, उनके सिवाय भला कौन जान सकता है। ऐसी ज्ञात और अज्ञात बलाओं को बिना कहे काटने और टालने वाले नारायण का स्मरण हर दृष्टि से श्रेयस्कर है।
एकादशी की राम राम