पंकज झा : छठ.. तो कुलोक पर्व कौन सा होता है..?
अब कुछ बाम्बियों-रब्बीसों ने भी खुल कर छठ पर्व को स्वीकार तो कर लिया है, किंतु अपनी बुद्धिमत्ता भी झाड़नी ही है, तो तर्क अब यह देते हैं कि ..
छठ ‘लोकपर्व’ है इसलिए मनाते हैं।
अरे घोंचू। तो कुलोक पर्व कौन सा होता है बे? पर्व ‘लोक’ के ही होते हैं। पर्व वास्तव में लोक तंत्र है।
यह प्रकृति का पर्व है।
उल्लू कहीं के। विकृति का पर्व कौन सा होता है?
अरे, इसमें पंडित जी नहीं ना रहता है, इसलिए मनाते है।
अरे कुक्कुर। कौन सा पर्व पंडित जी मनाते हैं बे? इतने पंडित कहां से आयेंगे? सारे पर्व हमें स्वयं ही मनाने होते हैं। रंग खेलने होली में पंडित के पास जाते हो? कि पटाखा हम दीवाली में पंडित को दक्षिणा देने के बाद फोड़ते हैं?
इसमें जात-पात का भेद नहीं होता।
किसी में नहीं होता गधे। रंग क्या हम कास्ट सर्टिफिकेट देख कर लगाते हैं? कि दीया कभी जात देख कर अपना प्रकाश तय करता है?