पंकज झा : चुनाव.. देवासुर संग्राम में आप कहां खड़े हैं.. स्वर्णमृग की आकांक्षा त्याग देंगे तो इतिहास बदल जाएगा

असम्भवं हेममृगस्य जन्म, तथापि रामो लुलुभे मृगाय।
आपने रामायण में देखा होगा, वहां शूपनखा सुंदरी बन कर आती है, मारीच साधु बन कर आता है, कालनेमि तपस्वी बन कर आता है, रावण भिक्षुक बन कर आता है…. किंतु,

किंतु अंत समय सभी अपने असली वीभत्स रूप में आ जाते हैं और अपनी पूरी शक्ति से देवों-साधुओं-आदिवासियों-वनवासियों का सामना करते हैं, अंततः पराजय को प्राप्त हो जाते हैं। है न? किंतु,
किंतु, अपनी असली हैसियत में आ जाने के बाद भी हर बार वे बुरी शक्तियां पराजित ही हो जायें, ऐसा नहीं है। तात्कालिक रूप से वे विजयी भी हो जाती हैं अगर स्वतंत्रता सीता किसी स्वर्ण मृग की कामना कर बैठती हैं तो। तब सर्वशक्तिमान ईश्वर भी रोते-कलपते खग-मृग और मधुकर श्रेणी से स्वतंत्रता सीता का पता पूछते हुए भटकने लगते हैं।

इस प्रसंग का आज क्या अर्थ है? आपने वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों से इसकी तुलना की है? कीजिये कृपया! कांग्रेस नीत I.N.D.I. गठबंधन ने स्पष्ट घोषणा कर दिया है कि उसका निर्माण ही हिंदुओं का, सनातन का विनाश करने के लिए हुआ है। इसके निहितार्थ को समझिये। यह युद्ध की समाप्ति के पास आ कर अपने असली रूप में आ जाने के अलावा कुछ है क्या?

इससे पहले विपक्षी दलों के नेताओं ने कैसा-कैसा वेश धरा था स्मरण है न? एक-एक कर उन चेहरों का स्मरण कीजिये और ‘मानस’ में वर्णित उपरोक्त खलपात्रों से उनका मिलान कीजिये। एक-एक सर पर आपको सिंग उगा हुआ दिख जाएगा।


हर चेहरा आपको बड़ी-बड़ी दांतों और लंबे-लंबे नाखूनों से विकृत दिखेगा। तनिक रुक कर, जरा ठहर कर उन चेहरों का मिलान कीजिये कृपया। शूर्पणखा, कालनेमि, मारीच, रावण, लंकिनी, सुरसा….


आपको दिखेगा कि ऐसे पात्र आपके सामने है, जो भले ही ऐसे कुल में उत्पन्न हुआ हो जिसने जीवन भर ‘ब्राह्मण कुमार रावण को जीवित रखने’ प्रयत्न किया है, जिसने सनातन को नस्तनाबूत करने का प्रण लिया हुआ है, उस खानदान का व्यक्ति भी आपको अगर ‘राम पथ’ पर चलने का पाखंड करता दिखे… तो इसे आप क्या उपरोक्त प्रसंगों से जोड़ना नहीं चाहेंगे?

क्योंकि मैं कोसल प्रदेश में ही बैठ कर यह लिख रहा तो यहीं के पात्र हमें सबसे पहले ध्यान में आ रहे, किंतुआप इसी प्रकार आप राष्ट्र भर की ऐसी शक्तियों के कुछ वर्षों के कथन/करण का स्मरण कीजिये तो अरण्य कांड से लेकर लंका कांड तक स्पष्ट तौर पर उन पात्रों के रूप में दिखेगा।

महाकोसल में तो एक संत विभीषण भी आपको दिख जायेंगे जो हमें माओ-मायनों के दूई ‘पाटन’ से पिसने से बचाने को तत्पर हैं। अस्तु।
आगे बढ़ते हैं और मूल प्रसंग पर आते हैं। क्या यह अंततः इनके अंतिम पराजय का संकेत है कि गिरोह अब असली रूप में आ गया है? काफी सीमा तक हां, किंतु नहीं भी। नहीं इसलिए क्योंकि अंतिम निर्णय आपका होगा।
इस नये देवासुर संग्राम में निर्णय इस पर होगा कि आप किसी स्वर्ण मृग की कामना में धोखा खायेंगे या नहीं? अगर खायेंगे तो संघर्ष तनिक और लंबा हो जाएगा। आप हार जायेंगे। ‘रावण कुमार’ आपकी सनातन सीता को हर ले जाएगा।

जानते हैं ये स्वर्ण मृग क्या है? क्या है यह मृग तृष्णा? यह वही है जिसे ‘राजर्षि मोदी’ ने रेवड़ी कहा है। ऐसे-ऐसे असंभव से वचन आपको दिये जायेंगे जिसे पूरा होना संभव ही नहीं। असम्भवं हेममृगस्य जन्म तथापि रामो लुलुभे मृगाय…


पुराने वचन पत्रों की स्थिति आपने देखा ही है। फिर से वैसी-वैसी घोषणायें होंगी मानो सोने की लंका बना देंगे! सन्दर्भवश स्मरण भी कराना चाहूंगा कि पुराने मारीच, ‘नकली वनवासी’ ने ऐसा आश्वासन दिया भी था कि चांदी का राजमार्ग बनाया जायेगा, स्मरण तो होगा आपको? तो …

तो, रणभूमि तैयार है, बिगुल बज चुका है। रणभेड़ी का नाद होने को ही है। पाञ्चजन्य नाद में अधिक विलंब नहीं है। रावण की पराजय भी तय ही है। बस निर्भर आप पर करता है कि इस संघर्ष को आप कितना लंबा करना चाहते हैं।
अगर स्वर्णमृग की आकांक्षा त्याग देंगे तो इतिहास बदल जाएगा। सनातन सुरक्षित रहेगा। अगर नहीं त्यागा तो प्रतीक्षा और बढ़ जायेगी। अंत तय है। आप इस देवासुर संग्राम में कहां खड़े हैं, प्रश्न इतिहास का मात्र इतना है।
कहते हैं – इतिहास से प्रेरणा नहीं लेना, इतिहास को दुहराना होता है। शेष प्रभु इच्छा।
जय सियाराम।

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