विजय मनोहर तिवारी : बीस वर्ष में मध्यप्रदेश में बदला क्या है?

पहली या दूसरी बार वोट डालने जा रहे मध्यप्रदेश के युवा वोटरों को यह कल्पना में भी नहीं होगा कि अधिक नहीं, केवल 20 वर्ष पहले हम कहाँ थे और हमारा प्रदेश कैसा था?

मैं जब कॉलेज की पढ़ाई के लिए अपने गाँव से निकला तो भोपाल से मात्र डेढ़ सौ किलोमीटर दूरी सड़क से तय करने में छह-सात घंटे लगते थे। वो भी तब जब कार या जीप गड्ढों में बिना दम तोड़े ठीक-ठाक गंतव्य पर आ जाए। सड़कों की ऐसी अकल्पनीय दुर्दशा का प्रदेश था यह। मानचित्र पर मध्यप्रदेश के रूप में उभरने के 40 साल बाद भी इन्फ्रास्ट्रक्चर का कचूमर निकला हुआ था। सरकारें आती थीं, चली जाती थीं या अयोध्या के एक ढाँचे के लिए केंद्र के इशारे पर ताश के पत्तों की तरह गिरा दी जाती थीं।

1993 के ऐसे ही एक चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आई थी। मैं तब मानता था कि राजनीति में उच्च शिक्षा प्राप्त लोग ही ऊँचे पदों पर आना चाहिए। प्रदेश के सबसे प्रतिष्ठित दो शिक्षा संस्थानों इंदौर के डेली कॉलेज और एसजीएसआईटीएस से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर निकले राघोगढ़ के राजा दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बने थे। तस्वीरों में मुस्कुराते हुए वे सदा आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। एक ताजा चेहरा सत्ता के शिखर पर आया था। वे दस साल डटकर मुख्यमंत्री रहे।

पत्रकारिता में वह हमारा भी पहला दशक था और हमने देखा कि मध्यप्रदेश का हाल बहुत कुछ बदला नहीं था। अपने गाँव से भोपाल की कनेक्टिविटी केवल गिनती की ट्रेनों पर ही निर्भर थी। कोई अपनी कार या जीप से सड़क से आने की सोच भी नहीं सकता था। जर्जर सड़कों से धूल उड़ाती बसों में शरीर की हड्डी-हड्डी हिलने के कष्टप्रद अनुभवों का वह कठिन समय था। नए वोटर तो कल्पना भी नहीं कर सकते कि आठ से दस घंटे बिजली नहीं होने पर लगता कैसा है?

दस साल बाद 2003 में मैंने अपनी इस धारणा पर पुनर्विचार किया कि उच्च शिक्षित लोगों को ही राजनीति में अच्छे और ऊँचे अवसरों पर आना चाहिए। मध्यप्रदेश की स्थाई दुर्दशा ने बता दिया था कि ऊँचे संस्थानों की डिग्री से “गहरी या उथली दृष्टि’ प्राप्त नहीं होती! सड़क, पानी और बिजली 21 वीं सदी के पहले विधानसभा चुनावों का मुख्य मुद्दा बने और दो मारक शब्दों ने कांग्रेस की दिग्विजयी सत्ता को चार कंधे दे दिए थे। विज्ञापनों में सुसज्जित और आम लोगों की चर्चाओं में चिपके वे दो शब्द थे-“मिस्टर बंटाढार।’ बीजेपी के रणनीतिकारों ने यह उपाधि तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह को सादर समर्पित की थी।

उमा भारती की सभाओं में उमड़ी भीड़ वोटिंग के पहले ही निर्णय सुना रही थी, जिन्हें तीन चौथाई बहुमत की ऐतिहासिक सफलता मिली थी। भोपाल से अपने बुंदेलखंड को जोड़ने वाली सागर की खंडहर सड़क को लेकर उनके संकल्प के बारे में पुराने पत्रकारों को अच्छे से याद होगा। डॉ. हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रतिभाशाली पूर्व विद्यार्थी और प्रतिष्ठित पत्रकार राजेश सिरोठिया, दीपक तिवारी और ब्रजेश राजपूत को भलीभांति स्मरण होगा, जब वे निष्पक्ष पत्रकारिता का सपना लिए सामान बांधकर कैसी खराब सड़क से गड्ढों के भयावह आघात सहते और धूल खाते हुए भोपाल के चार इमली और शिवाजीनगर के आवासों में शिफ्ट हुए होंगे। वे अब भी सागर और करेली की यात्राएँ करते होंगे और उन्हें वह फर्क अच्छे से याद आता ही होगा।

प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना को ही लीजिए। इस अकेली योजना ने जैसे देश की रक्त शिराओं को भीतर तक मजबूत कर दिया था। वह अटलजी के समय शुरू हुई नितिन गडकरी के दिमाग की उपज एक अहम योजना थी। पहली बार सड़क पर ही साइन बोर्ड यह बताते दिखे कि यह सड़क कितनी लागत में किसने और कब बनाई है। मजा यह कि वे हाइवे खस्ताहाल पड़े हुए थे, जिनसे ये ग्रामीण सड़कें जुड़ती थीं। मध्यप्रदेश में इनके निर्माण की गति तेज ही थी।

हम इन दो दशकों में धीरे-धीरे भूल ही गए कि दस घंटा बिजली का जाना क्या होता है? पावर कट अब भूली-बिसरी हेडलाइंस हैं।

इंदौर मध्यप्रदेश के लिए एक कमाऊ शहर है। हर सरकार में मुख्यमंत्री अपने सबसे चहेते और विश्वसनीय नेताओं और अफसरों को ही इंदौर की “सेवा का पुण्य अवसर’ देते रहे हैं। उमेश त्रिवेदी और ह्दयेश दीक्षित जैसे लेखनी के धनी अनुभवी पत्रकार एक दशक से अधिक लंबे अंतराल से एक के बाद एक भोपाल आए। वे अच्छी तरह बता सकते हैं कि इंदौर लगभग नर्क में बदल चुका कैसा गंदा और बदहाल शहर हो चुका था। मध्यप्रदेश के माथे का एक मालदार कलंक, जिसकी पुरातन स्मृतियों में देवी अहिल्याबाई होलकर रची-बसी थीं।

भोपाल और इंदौर समेत सभी बड़े शहरों के वे काले रंग के जहरीला धुआं छोड़ते “भटसुअर टेंपो’ आज की पीढ़ी के वोटरों को कहाँ याद होंगे। वह हमारी शहरी परिवहन व्यवस्था की रुग्ण रीढ़ थे। आज इंदौर देश का सबसे साफ सुथरा शहर अगर लगातार बना हुआ है तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। इसका अर्थ यह है कि यह चमत्कार संभव था, यह संभव हुआ। मगर हुआ 2003 के बहुत बाद। उसके पीछे कौन है?

इंदौर के कायाकल्प में महापौर के रूप में कैलाश विजयवर्गीय का आरंभिक योगदान निर्विवाद है। ताकत से अविलंब निर्णय लेने और अधिकारियों से उस पर अमल कराने में वे बिल्कुल नितिन गडकरी की राह पर थे, जब उन्होंने मेयर बनते ही जर्जर और पुरानी संकरी सड़कों को उधेड़कर इंदौर को नए कलेवर में ढालना शुरू किया था। मगर मध्यप्रदेश की सबसे बड़ी कुर्सी के लिए नियति ने सबसे लंबे कालखंड के लिए ग्राम्य पृष्ठभूमि के सहज-सरल शिवराजसिंह चौहान को चुना, जिन्होंने अपने प्रतिस्पर्धी हर नेता के मुकाबले स्वयं को एक धरतीपकड़ सिद्ध करने में कोई कसर आज तक एक मिनट के लिए नहीं छोड़ी। मुख्यमंत्री बनने के पहले शायद ही उन्होंने कभी डेली कॉलेज के द्वार दर्शन किए होंगे!

भिंड-मुरैना से ग्वालियर शाम छह के पहले उजाले में निकलना आत्मरक्षा के लिए एक सर्वज्ञात अघोषित नियम था। वर्ना जर्जर सड़कों जैसी ही कानून व्यवस्था में कभी भी और कहीं से भी “पकड़’ आसान थी। ग्वालियर के तजुर्बेकार कलमनवीस राकेश अचल पकड़ और फिरौती के नाम से एक फिल्म की सच्ची कहानी लिख सकते हैं। उनके पास अनगिनत किस्से होंगे और वे बेहतर बता पाएँगे कि हजरत रावत और दयाराम गड़रिया जैसे कितने गैंग और गिरोहों की स्थानीय सल्तनतें किनकी शह पर कायम थीं। आज ग्वालियर होकर झांसी या शिवपुरी-गुना होकर भोपाल की फोरलेन कनेक्टिविटी ने वैसा ही कायाकल्प किया है, जैसा प्रदेश के दूसरे क्षेत्रों में। बीस साल की मध्यप्रदेश की यात्रा का यह भी एक पहलू है, जिसे दृष्टि से ओझल नहीं किया जा सकता।

सत्तर के दशक की शुरुआत में मुंबई के वुडलैंड अपार्टमेंट में भगवान रजनीश के पास जब विदेशी अनुयायी बढ़ने लगे थे तब मुंबई से बाहर एक आश्रम की योजना बनी। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि सबसे पहले मध्यप्रदेश में ही आश्रम बनाने का विचार किया गया था। उनके संन्यासियों का एक दल इंदौर होकर धार गया था, जहाँ मांडू में वे ध्यान शिविर ले चुके थे। धार में एक आश्रम के लिए जगह देखी गई। ओशो के प्रिय वरिष्ठ संन्यासी स्वामी आनंद गौतम दुखी मन से इंदौर में बताया करते थे कि केवल जर्जर इन्फ्रास्ट्रक्चर के कारण भगवान ने मध्यप्रदेश के हाथ जोड़ लिए थे और पुणे के कोरेगाँव पार्क में वह आश्रम बना, जिसने न केवल एक समय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त की, बल्कि पुणे के विकास में वह एक मील का पत्थर भी बना।

ओशो अगर आज होते तो शायद पुणे की बजाए मध्यप्रदेश में कहीं भी अपना डेरा जमाना चाहते…

( निरंतर है। बात अभी पूरी नहीं…)

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