देवांशु झा : टाइटैनिक का प्रेत-ग्लैमर की शक्ति… घृणित कुत्सित निर्माणों ने दिव्य कथाओं को विद्रूप किया

मैं सोचता हूं कि टाइटैनिक पर अगर फिल्म नहीं बनी होती तो आज लोग उसे कैसे याद कर रहे होते। क्या हम उस घटना को याद कर भी रहे होते? संभवतः दुर्घटना के सौ वर्ष बाद विश्व के कुछ समाचारपत्र उस त्रासद डूब पर कुछ लिखते। कहीं डाक्यूमेंटरी भी बन जाती। इससे अधिक तो कुछ नहीं होता।किसी व्यक्तित्व, वस्तु, स्थल, स्मारक, घटना अथवा कथा को हमने कैसे याद रखा-जीतेजी उसकी कैसी इमेज बनी। बाद में उसे कैसे रचा-गढ़ा, यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। लगभग सौ वर्ष पहले टाइटैनिक जहाज डूबा। धीरे-धीरे जहाज के डूब जाने की घटना लोकस्मृति में भी डूब ही गयी थी। वह तो भुलावे के अतल में गल रही थी। उस पर काल की निर्मम काइयां जम रहीं थीं। लेकिन टाइटैनिक का प्रेत सहसा जीवित होकर हमारे बीच लौट आया। उस पर एक भव्य फिल्म बनी। फिल्म-जिसका केन्द्रीय भाव था प्रेम। एक दुखांत प्रेमकथा।

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एक समुद्री जहाज के रूप में टाइटैनिक को हम में से किसी ने नहीं देखा था। 1912 के उस हादसे में जो लोग बच भी गए, उनमें से लगभग सभी फिल्म निर्माण के समय मर चुके थे। टाइटैनिक विगत की लहरों को चीरता हुआ भव्य रूप लेता गया। सिनेमा ने उसे त्रासदियों की मरुभूमि में खड़े अगणित रेत के ढूहों में से सबसे महत्वपूर्ण ढूह के रूप में स्थापित कर दिया। उससे विशालतर ढूह अनचीन्हे रह गए।किसी ने उन्हें एक नजर भी नहीं देखा। वह आह…आनन्द, अभीप्सा, उल्लास,विस्मय और शोक बनकर हमारी आंखों के सामने तैरने लगा। और अंत में द्विखंडित होकर हमारे हृदय में धंस गया। सिनेमा ने टाइटैनिक को ऐसा लौकिक स्वरूप दे दिया कि वह एक स्मारक बन गया। विश्व इतिहास की त्रासदियों में सबसे अधिक चर्चित, ज्ञेय और रौंगटे खड़े कर देने वाली त्रासदी! भला इस तरह से कोई जहाज डूबता है क्या? किन्तु सत्य तो यही है कि उससे विकराल और भयावह हादसों की अगणित कथाएं बिखरी पड़ी हैं। उन्हें टाइटैनिक जैसी अमरता प्रदान नहीं की जा सकी।

फिल्म रिलीज़ होने के दो दशक बाद भी लोगों में टाइटैनिक के मलबे को देखने का पागलपन सवार है। उसे धनाढ्यों की फंतासी भी कह सकते हैं। उनका एडवेंचर भी या फिर जो कह लीजिए। किन्तु इस सत्य से कौन मना करेगा कि फिल्म बनने से पहले वह कुछ अत्यंत खोजी और उत्सुक-दुस्साहसी जनों के अतिरिक्त पूरी दुनिया के लिए विस्मृत हो चुका था। वह एक विशाल महासागर के तल में पड़ा था। जेम्स कैमरून ने उसे तल से उठाकर समंदर की लहरों पर तैराया। वह संसार की अलग-अलग सभ्यताओं की नदियों, उनके सागरों पर तैर उठा। सबने अपनी दृष्टि से उसे देखा। विस्फारित और व्याकुल नयनों से लोग उसके साथ प्रशांत महासागर की लहरों पर आगे बढ़े। उसके वैभव से विस्मित हुए। उस प्रेमकथा में धंस कर अंततः डूब गए। वह टाइटैनिक का दूसरा डूब था, जिसने उसके पहले और घटित डूब से कहीं अधिक भावनात्मक उद्वेग को जन्म दे दिया। यह कैसी विचित्र बात है! त्रासदी से अधिक त्रासदी पर निर्मित फिल्म ने संसार को उद्वेलित किया। इसीलिए उस टाइटैनिक के मलबे को देखने के लिए आज तक लोग डूब-डूब जा रहे।

टाइटैनिक एक उदाहरण है। उस त्रासदी को पुनर्जीवित करने का उदाहरण। जहां एक मनुष्य ने दुख को भव्यता से मंडित कर एक बड़े वैश्विक आभासी दुख का निर्माण किया। भले ही वह दुख किसी तत्कालीन सत्य से नहीं उपजा था। भले ही वह किसी सौ वर्ष पुरानी घटना पर बने चलचित्र से पनपा था। परन्तु था तो दुख ही। दुखानुभूति ही! यही ग्लैमर की शक्ति है। हम किसी मनुष्य की निर्मिति में भी इस ग्लैमर की ताकत को पहचान सकते हैं। कितनी शक्ति से उसे गढ़ा गया है। कितने प्रचारतंत्रों ने उसे उठाया है। कितने असत्यों ने उसे महापुरुष बनाया है। और कितने सतही घृणित कुत्सित निर्माणों ने दिव्य कथाओं को विद्रूप किया है। आदिपुरुष का उदाहरण सामने हैं। फिल्म और साहित्य हमारे जीवन को-उस जीवन को देखने वाली दृष्टि को बहुत प्रभावित करते हैं।

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