सर्वेश तिवारी श्रीमुख : गीता प्रेस.. सम्मान से सम्मान धन्य होता है……
समूचे उत्तर भारत का शायद ही कोई हिन्दू घर हो जिसमें गीता प्रेस से छपी कोई पुस्तक न पहुँची हो। श्रीमद्भगवद्गीता, रामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण, समस्त पुराण, उनपनिषद… पिछले सौ वर्षों से चौथाई से भी कम मूल्य में सनातन ग्रन्थों को घर घर तक पहुँचा रहे गीता प्रेस के संस्थापकों या वर्तमान मालिकों का नाम पूछूं तो अधिकांश लोगों को गूगल की सहायता लेनी पड़ेगी।
सच पूछिये तो धर्मकाज यूँ ही किया जाना चाहिये, किसी को भनक तक न लगे कि कर कौन रहा है। समाज को बदल कर रख देने वाली क्रान्ति यूँ ही चुपचाप होती है।
सन 1923 में जयदयाल गोयनका जी और घनश्याम दास जालौन जी ने गीताप्रेस की स्थापना की। धर्म अपनी सेवा के लिए योग्य व्यक्ति स्वयं ढूंढ लेता है, और समय उसे कभी अकेला नहीं छोड़ता। राजस्थान के एक व्यवसायी परिवार में जन्में गोयनका जी की बचपन से ही गीता और रामचरितमानस में रुचि थी। युवा अवस्था में ही वे कथा-प्रवचन के लिए प्रसिद्ध हो गए। पर ईश्वर को उनसे कुछ और कराना था। इन्ही दिनों उन्हें जालौन जी मिले और गीताप्रेस की नींव पड़ी।
यदि आप अपना सारा जीवन निष्काम भाव से धर्म को समर्पित कर दें, तो ईश्वर आपको अनेक समर्पित सहयोगी भी दे देता है। गोयनका जी के मौसेरे भाई थे श्रधेय हनुमान प्रसाद पोद्दार जी! वे आये, और अपना समूचा जीवन सौंप दिया गीताप्रेस को। गीताप्रेस की पुस्तकें अपनी पाठ की शुद्धता के लिए जानी जाती हैं तो इसका श्रेय इसी महाविद्वान को जाता है। गीता, रामचरितमानस, वाल्मीकि रामायण, लगभग सभी पुराणों और उपनिषदों का सबसे प्रामाणिक अनुवाद इन्ही महानुभाव का है।
अपने सौ वर्ष की लंबी यात्रा में गीताप्रेस ने के कभी कोई सहयोग अनुदान लिया, न ही कोई विज्ञापन किया। बावजूद इसके अबतक लगभग 45 करोड़ पुस्तकें छप और बिक चुकी हैं। इसके अतिरिक्त गीताप्रेस की मासिक पत्रिका कल्याण हर महीने ढाई लाख प्रतियों में छपती हैं। शायद देश में अब कोई अन्य पत्रिका ऐसी नहीं जिसकी इतनी प्रतियां छपती हों।
गोरखपुर जैसे छोटे शहर से प्रत्येक दिन लगभग पचास हजार पुस्तकें छपती हैं। इतनी अधिक पुस्तकों को छाप कर चौथाई मूल्य पर वितरित करने के लिए तो धन चाहिये न? कहाँ से आता होगा पैसा? पर श्रद्धा हो तो धर्मकाज में पैसा कभी राह का रोड़ा नहीं बनता। जिन महान लोगों ने इसकी स्थापना की, वे इसे चलाते रहने की व्यवस्था भी कर के गए। गोरखपुर में गीताप्रेस की अपनी अनेक दुकानें और सम्पत्ति है जिसकी आय से काम चल जाता है, या कहें तो ईश्वर चला देते हैं।
पिछले दिनों भारत सरकार की ओर से गीताप्रेस को गाँधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा हुई। गीताप्रेस की ओर से सम्मान ग्रहण करने पर राशि नहीं लेने का निर्णय हुआ। यह निर्णय इस संस्था की परम्परा का ही हिस्सा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी द्वारा भारत रत्न दिए जाने के प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया था। वही भाव है, संतन को कहाँ सीकरी सो काम…
कुछ राजनैतिक मूर्खों को इसपर भी आपत्ति है कि गीताप्रेस को यह सम्मान क्यों दिया गया! वे अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार रहे हैं, अपनी ही पार्टी का सत्यानाश कर रहे हैं। उनके लिए इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता।
ऐसी संस्थाओं को सम्मान मिले तो सम्मान धन्य होता है। सरकार और चयन समिति को बहुत बहुत बधाई।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।