प्रसिद्ध पातकी : जगन्नाथ रथयात्रा.. जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना
भगवान भी बस कौतुक प्रिय हैं. सात वार नौ त्योहर वाले इस समाज में उनका मन भी नित्य नयी लीलाएं और कौतुक करे बिना नहीं मानता. गर्मी की छुट्टियां है. …चलो मौसी के घर चलते हैं. हम सब भाई बहन मिलकर खूब मौज करेंगे.
भगवान निकलते तो हैं मौसी के घर पर असल मौज हो जाती है भक्तों की. जगन्नाथ की डोर जगत के हाथों में आ जाती है. आचार्यगण कहते हैं कि श्रीहरि के अवतार का हेतु वेद के सत्य को प्रतिपादित करने के लिए होता है. इस सत्य को अपने दौर की परिस्थितियों में कसने के लिए होता है.
उपनिषद में शरीर को रथ की उपमा दी गयी है. कठोपनिषद की प्रसिद्ध उक्ति है:-
आत्मानां रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च
उपनिषद की यह उक्ति एक रूपक है और इस रूपक को यदि विशाल रूप में चरितार्थ होते हुए देखना और अनुभूत करना है तो भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा उत्सव के भागी बनकर देखिए.
जगन्नाथ जब रथ चलाते हैं तो युद्ध नहीं करते. जब युद्ध करते हैं तो रथ पर नहीं चढ़ते. इसे लेकर सहज ही संदेह हो सकता है..”रावनु रथी विरथ रघुबीरा, देखि विभीषन भयउ अधीरा”. विभीषण का यह संदेह अस्वाभाविक नहीं है. पर राम जी का रथ तो निराला है,सर्वथा भिन्न है, ” जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना”.
तो यह जो उपनिषद की उक्ति की है कि बुद्धि और मन से मनुष्य शरीर के रथ को हांक सकता है ,उसे भगवान और एक्सटेंड कर देते हैं. हृदय यदि भक्ति की रस से आप्लावित हो तो आप परमात्मा का रथ भी हांक सकते हैं. रघुवीर का यह जो भिन्न स्यंदन है, यह आज के दिन भक्तों के हवाले हैं. इसे दम लगाकर जी भर खींचिए.
हंसना-मुस्कुराता और हिलता-झूलता ठाकुर आज बांह पसार कर आपका अनुगामी बनेगा. आषाढ़ के मेघ इस रथ के क्षत्र बनकर आपके साथ चलेंगे. यह यात्रा नयनपथ की है, सीधे दहराकाश में उतरने वाली.
जय हो दादा बलभद्र जी की
जय हो बहनी सुभद्रा जी की
जय हो जगन्नाथ जी की