आलोक ब्रजनाथ : कुछ बुद्धि लगाओ, सरकार!

पीएम मोदी और उनके मंत्री बहुत जल्दी में हैं। इतनी तीव्र गति में कि सब कुछ शीघ्रातिशीघ्र कर डालना चाहते हैं। इतना कि अगले कार्यकाल के लिए कुछ बचे ही नहीं।

मुझसे पूछें, तो इन्हें सड़क किनारे लगे बोर्ड्स से ही कुछ ज्ञान ले लेना चाहिए, जिन पर लिखा रहता है – ‘दुर्घटना से देर भली।’

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और कुछ नहीं, तो कांग्रेस से ही कुछ सीखें। वह, अपने सहयोगी दलों के साथ, हमेशा ठीक वही करती रही, जो जनता चाहती है।

इंदिरा जी ने नारा दिया, ‘गरीबी हटाओ’, और कमाल देखिए कि कांग्रेस पार्टी की पांच पीढ़ियां यानी सरकारें तर गईं। गरीबों का क्या, वे तो राव साहब के शब्दों में, जब गड्ढे से बाहर आना ही नहीं चाहते, तो बाहर निकालने वाली सरकार कौन?

सच्चर कमेटी बना दो या मच्छर कमेटी। रिपोर्ट लो, जोर से ढोल पीटो और फिर उसे कचरापात्र में डाल कर चादर तान लो। सत्ता में वापसी पक्की।

महाराष्ट्र में एक नेताजी ने कहा, “अरे, पानी नहीं है, तो मैं क्या करूं? बांध को पेशाब करके भर दूं क्या?” बात जनता को इतनी पसंद आई कि तब से वे मंत्री, उपमुख्यमंत्री … मंत्री, उपमुख्यमंत्री बने ही जा रहे हैं।

पिछले पीएम ने पूछा – ‘पैसे पेड़ पर लगते हैं क्या?’ और इसके बावजूद देश के संसाधनों पर पहला हक एक संप्रदाय विशेष का बता दिया। जनता ने खुश होकर तालियां बजाईं।

… और एक ये हैं। कभी सफाई करा रहे हैं, कभी शौचालय बनवा रहे हैं, कभी मकान बनवा रहे हैं, कभी बैंक एकाउंट में पैसे और घर पर राशन पहुंचा रहे हैं। कभी आत्महत्या को आतुर किसान के हाथ से रस्सी खींचना चाहते हैं, कभी खंड-खंड समाज से अटे भूखंड को अखंड करने वाले वीरों के सपने देखने लगते हैं। सत्तर साल गुज़र गए, पर कुछ न सीखा।

वत्स, इतिहास से सीखो। जनता जो चाहती है, वह करो। व्यर्थ मस्तिष्क पर भार क्यों देते हो? जनता चाहती है ‘गरीबी हटाओ’ जैसा नारा, मंत्री को डिप्टी सीएम बनवा देने वाले बयान, कचरापात्र में डाली जा सकने वाली रिपोर्ट सौंपने वाले आयोग।

आत्महत्या पर उतारू व्यक्ति को भला कौन बचा सका है? इसलिए मौज लो, मस्त रहो। डी दादा को फोन मिलाओ। चुपके से स्वभाव से बाएं, किंतु दाएं पड़ोसी के दूतावास में घूम आओ। स्विस नहीं, तो पनामा बैंकिंग का लाभ उठाओ। मॉरीशस की मार्फत अपने रिश्तेदारों का जीवन-स्तर भी सुधार दो। कोलकाता में शैल कंपनीज बनाने वालों को पकड़ो मत, खुद भी कुछ खोल लो।

और जनता? अरे, सत्तर साल से व्यक्ति और समाज को जो आदत पड़ी है, वह क्या सात-आठ साल में बदलती है? धत!

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