प्रसिद्ध पातकी : दण्ड भी ईश्वर है.. एकादशी की लेट नाइट…

दोस्तोएवस्की का बहुत ही चर्चित एवं प्यारा उपन्यास है ‘‘अपराध एवं दण्ड’’। यह उपन्यास पाठकों को मनोजगत के बहुत ही सूक्ष्मतर प्रांतों में ले जाता है। अपराध जितना जटिल शब्द है, वहीं दण्ड को समझना भी कोई आसान काम नहीं है। विष्णु सहस्रनाम में भगवान का एक नाम ‘‘दण्ड’’ भी है।


धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिताsदम:।
अपराजिता: सर्वसहो नियन्ता नियमो यम:।।
भगवान राम धनुर्धर हैं तथा धनुष चलाने की विद्या धनुर्वेद स्वयं भगवान ही है। दण्ड भगवान ही देते हैं। भले ही वह राजा हो या न्यायाधीश जब तक उसके भीतर निष्पक्षता नहीं होगी, वह दण्ड नहीं दे सकता। कई बार न्यायाधीश भी सारे सत्य को जानने के बावजूद क्या दण्ड देता है, इस पर उसका कोई वश नहीं होता क्योंकि दण्ड जो है, वह ईश्वर स्वरूप है।


कहीं एक बहुत सुंदर प्रसंग पढ़ा था। एक न्यायाधीश सुबह कहीं टहलने गये। जंगल में उनके समक्ष एक व्यक्ति की हत्या की गयी। हत्यारे को उन्होंने अपनी आँखों से स्पष्ट रूप से देखा। हत्यारा मौके से भाग गया। बाद में यह केस इन्हीं न्यायाधीश की अदालत में आया। पुलिस ने इस मामले में किसी और व्यक्ति को आरोपी बनाकर झूठे सबूतों के साथ यह प्रमाणित कर दिया कि इसी व्यक्ति ने हत्या की है। अब न्यायाधीश के पास इसके अलावा कोई अन्य विकल्प ही नहीं था कि वह उसे प्राणदण्ड सुनायें। न्यायाधीश महोदया गीता पर परम श्रद्धा रखते थे। उनका इस सिद्धांत में परम विश्वास था कि बिना कर्म के फल नहीं मिलता। इसलिए उन्होंने सजा सुनाने से पहले उस दोषी व्यक्ति को अपने चैंबर में बुलाया और पूछा कि सच सच बताओ कि तुमने पहले ऐसा क्या अपराध किया था कि तुम्हें हत्या का दंड मिलने जा रहा है। मैं यह बात अच्छी तरह जानता हूं कि यह हत्या तुमने नहीं की है क्योंकि उस हत्या को तो मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा था। इस पर उस व्यक्ति ने बताया कि पहले उसने एक आदमी की हत्या कर पुलिस से साठगांठ की एवं किसी अन्य व्यक्ति को उसमें फंसा दिया और उस निर्दोष व्यक्ति को फांसी की सजा हुई। अब वही ठीक बात उसके साथ घटित होने जा रही है। यह सुनकर न्यायाधीश के मन से यह अपराधबोध चला गया कि वह एक निर्दोष व्यक्ति को प्राणदंड देने जा रहे हैं।


वैसे ‘‘दण्ड’’ संस्कृत का एक ऐसा मजेदार शब्द है जिसकी तीन अर्थ छटाएं (nuances) अंग्रेजी के Bar शब्द से बिल्कुल हूबहू मिलता है। बार माने डंडा, बार माने न्याय संबंधी और बार माने शराब का पैमाना। संस्कृत में भी दण्ड शब्द में यही तीनों अर्थ छिपे हैं। किंतु दण्ड शब्द का जो अर्थ ईश्वर से जुड़ा है उसमें न्याय का भाव ही रूढ़ है।


विष्णु सहस्रनाम के इस श्लोक में भगवान के जितने नाम आये हैं, वे सभी किसी ना किसी तरह दण्ड से जुड़े हुए हैं। भगवान का नाम है दमयिता। अर्थात रावण, कंस आदि का दमन करने वाले भगवान दमयिता है। इन रावण और कंस जैसी हमारी कुछ दुष्ट वृत्तियां भी हैं जिनका दमन भगवान के नाम स्मरण मात्र से हो जाता है। भगवान और उनका नाम किसी भी वृत्ति से दबाया नहीं जा सकता, इसलिए वे ‘‘अदम’’ और ‘‘अपराजित’’ हैं। भगवान ‘‘सर्वसह’’ हैं क्योंकि वह किसी के विश्वास को भंग नहीं करते। क्षुद्र शक्तियों एवं सिद्धियों के पीछे भागने वाले लोगों को भगवान सहते हैं। भगवान ‘‘नियन्ता’’ हैं अर्थात आप भगवान को जिस रूप में भजते हैं, भगवान आपको ठीक ऐसी सिचुएशन में डाल देते हैं कि आप उसी रूप को प्रेम करने लगते हैं।


अब माना जाता है कि कुछ महात्मा भगवान को अपना दामाद मानते हैं। अयोध्या जाकर रघुवीर के दर्शन करते हैं। परिक्रमा करते हैं। किंतु अयोध्या का पानी भी नहीं पीते। अयोध्या की सीमा के बाहर आकर फैजाबाद का पानी पीते हैं। अब भला बेटी की ससुराल का पानी कौन पिये? यह जो नियमन यानी Regulations हैं, यह सब भी भगवान हैं। इनकी प्रेरणा और इनको निभाने की सामर्थ्य भी वही देते हैं।


श्रीहरि ही ‘‘नियम’’ भी हैं और ‘‘यम’’ भी। बाबा रामदेव खूब अनुलोम-विलोम और कपालभांति करवाते हैं। किंतु अष्टांग योग की जो पहली दो सीढ़यां हैं…यम एवं नियम, उनको फलांग कर क्या योग हो सकता है। इन यम-नियम को यदि भगवान मानकर पालन किया चाहिए। अन्यथा योग में आप बस द्रविण प्रणाम ही करते रहेंगे।
तो राजन् दण्ड ईश्वर है, उसे सही ढंग से लीजिए। ईश्वर न्याय प्रिय है, वह कोई भी दण्ड आपके जन्मजन्मांतर कर्मों के आधार पर देते हैं।
एकादशी की लेट नाइट राम राम।।

फ़ोटो-साभार

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