पत्रकारिता जगत के परशुराम गेंदलाल शुक्ल की जनअदालत..
कोरबा। विकृत मानसिकता की राजनीति,अव्यवस्थित प्रशासनिक व्यवस्था और नक्सलवाद बड़ी चुनौती है आम जनजीवन के लिए।

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में सबसे बड़ा नक्सली हमला 6 अप्रैल 2010 को हुआ था जिसमें 76 जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे। इसके बाद ही नारायणपुर में हुए नक्सली हमले में 27 CRPF के जवान वीरगति को प्राप्त हुए और 12 जवान गंभीर रूप से घायल हुए थे।
तब इसी मध्य सर्वोदय लेखक संघ के संयोजक सुरेशचंद्र रोहरा व अध्यक्ष डॉ. गुलाबराय पंजवानी ने कोरबा की पत्रकारिता जगत के परशुराम कहे जाने वाले वरिष्ठ पत्रकार आदरणीय गेंदलाल शुक्ल जी की राजनीतिक, प्रशासनिक अव्यवस्था के साथ ही नक्सलवाद पर तीव्र प्रहार करती कविता “जनअदालत” का पोस्टर कोरबा में लगाया गया था।
विशालकाय पोस्टर में उकेरी गई इस कविता के शब्दों का ओज था कि सारे शहर में यह “जनअदालत” जनचर्चा का विषय बन गया। लोगों में उत्सुकता थी इसे पढ़ने की। जो भी सड़क से निकलता वो 2 मिनट रुककर इसे अवश्य पढ़ने के लिए अपने को विराम देता था। नेताओं के पोस्टर तो जन्मदिन से लेकर किसी दूसरे प्रदेश में पार्टी की उपलब्धि पर अपने प्रदेश की सड़कों पर टांग दिए जाते हैं लेकिन पहली बार कोरबा जिले के इतिहास में एक पत्रकार का पोस्टर लगा और लगा भी तो समसामयिक ज्वलंत विषयों पर।
कहा जा सकता है कि श्री शुक्ल जिले ही नहीं बल्कि प्रदेश के प्रथम “पोस्टर बॉय पत्रकार” भी रहे।
सबसे बड़ी बात यह कि उपरोक्त उल्लेखित नक्सली हमलों के लगभग 6 वर्ष पहले 23 सितंबर 2004 को इस कविता की रचना की गई थी।
मेरा सौभाग्य रहा कि इस पोस्टर के विमोचन में मैं भी शामिल रहा था।
” जनअदालत”
उनकी पुलिस है,
उनका ही कानून
उन्हीं की अदालत है
उनका ही अपराधी
हम तो दर्शक हैं
सुनेंगे उनका हुक्म
और लौट जाएंगे घर….।।
आपका कहना ठीक है
लोकतंत्र में
राजा होती है प्रजा
लेकिन आप याद रखें
प्रजा की सत्ता
होती है-एक दिन,
पांच साल तक तो
राज कोई और करता है
राजा होता है वही
जिसकी होती है पुलिस
जिसका कानून और
जिसकी अदालत…।।
राजतंत्र से लोकतंत्र तक,
कठिन और लंबी थी राह
हम पीढ़ी दर पीढ़ो बले
मुकाम पर पहुंचे भी लेकिन
अब मजबूर हैं – कहनें
क्या बदला, कुछ तो नहीं….।।
राजशाही में होती थी ताकत
हुक्म होता और
हाजिर होते थे दरबारी
कारिन्दे लगाते थे नारा
प्रजा करती थी
जय जयकार
शक्ति की सत्ता को
बजाया जाता था कोर्निस….।।
अब भी हो रहा है, यही
शहर में ये और जंगलों में वे
जब भी कराते हैं – मुनादी
प्रजा होती है- इकट्ठी
इनका होता है-जन दर्शन,
वे लगाते हैं- जन अदालत
फैसला सुनते हैं,
स्वीकारते हैं
जिसका लाती, उसकी भैंस
हमारी मौजूदगी है महज,
नामकरण में रस्म अदायगी….।।
नही है जरूरत मुलम्मे की
नहीं कोई दरकार बहाने की
हम सब को परम्परा से
पुजारी हैं – शक्ति के
जब तक आप हैं–
सिंहासन पर
हम पूजते रहेंगे आपको
हम हुक्म के गुलाम हैं….।।
मगर इतिहास
बदलता है – करवट,
बदलता है..
शक्ति का केन्द्र
यह सब भी बदलेगा.
जरूर बदलेगा – एक दिन
हमारी एक दिन की सत्ता
पांच साल में बदलेगी और
हम बदलेंगे मुहावरा
तब मूक दर्शक नहीं होगा कोई ।।
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